देहरादून: उत्तराखंड की स्थापना के साथ ही प्रदेश में नए जिलों की डिमांड भी उठने लगी थी. कई समितियों और मोर्चों की तरफ से इस पर आंदोलन भी चलाए गए. खासतौर पर इसमें उन लोगों ने हिस्सा लिया जो जिला मुख्यालयों से खुद को कटा हुआ और बेहद दूरस्थ मानते थे. वैसे तो राज्य स्थापना के समय ही उत्तराखंड क्रांति दल 21 जिलों वाला राज्य बनने की कल्पना करता रहा था. लेकिन उस दौरान नए राज्य में 13 जिलों के गठन पर अंतिम मंजूरी हो पाई.
जाहिर है नए राज्य की स्थापना के साथ जिलों के पुनर्गठन की उम्मीदें भी बढ़ गई. एक दर्जन से ज्यादा जगह पर जिले बनाए जाने के लिए आंदोलन किए गए. जिन क्षेत्रों को जिले के रूप में पुनर्गठित किए जाने के लिए आवाजें उठी उनमें गैरसैंण, कर्णप्रयाग, थराली, यमुनोत्री, कोटद्वार, नरेंद्रनगर, ऋषिकेश, रुड़की, काशीपुर, रामनगर, डीडीहाट और रानीखेत शामिल हैं. इधर विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी ने इस मामले पर प्रदेश में 4 नए जिले बनाए जाने की बेहद ज्यादा आवश्यकता बताई है.
हालांकि, उन्होंने यह 4 जिले कौन से होंगे, उनके नाम नहीं बताए, लेकिन उन्होंने अपनी विधानसभा क्षेत्र कोटद्वार को जिला बनाए जाने की पुरजोर पैरवी करने की बात कही. ऋतु खंडूड़ी ने कहा कि वह हर संभव प्रयास कर रही हैं और हर उस मंच पर अपनी बात रख रही हैं, जहां से कोटद्वार को जिला बनाए जाने की कोशिश हो सकती है.
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सिर्फ चुनावी जुमला साबित हुआ नए जिलों के मुद्दे: सूबे में विधानसभा चुनावों के दौरान नए जिलों के गठन का वादा किया जाता रहा है. न केवल बीजेपी और कांग्रेस की तरफ से नए जिलों के गठन के वादे किए जाते रहे हैं, बल्कि 2022 के विधानसभा चुनाव में तो पहली बार चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने भी राज्य में 6 नए जिलों के गठन का सपना दिखाया था. उन्होंने काशीपुर को जिला बनाने के लिए सार्वजनिक घोषणा की थी तो वहीं उनकी इच्छा यमुनोत्री, कोटद्वार, रुड़की, डीडीहाट और रानीखेत को भी जिला बनाने की थी.
बड़े जिलों में नए जिलों की उठती रही मांगः राज्य स्थापना से पहले से ही उत्तराखंड के कुछ जिले ऐसे रहे, जिनका क्षेत्रफल बेहद ज्यादा था. इसी वजह से दूरदराज और जिला मुख्यालयों से कटे होने की वजह से कई क्षेत्रों में नए जिलों के पुनर्गठन की मांग उठी थी. इसमें खासतौर पर चमोली जिला रहा, जिसका क्षेत्रफल काफी बड़ा था.
इस जिले में जिन क्षेत्रों में नए जिलों की मांग उठी, इसमें थराली, गैरसैंण और कर्णप्रयाग क्षेत्र शामिल हैं. इसके अलावा हरिद्वार जिले में भी रुड़की के लिए मांग उठाई गई है. उधर, उत्तरकाशी में यमुनोत्री, पिथौरागढ़ में डीडीहाट और पौड़ी जिले में कोटद्वार समेत उधम सिंह नगर में काशीपुर को जिला बनाए जाने की मांग उठती रही है.
डीडीहाट जिला बनाने की मांग है काफी पुरानीः गौर हो कि साल 1962 से ही पिथौरागढ़ से अलग डीडीहाट जिला बनाने की मांग (Didihat District Demand) उठती रही है. लगातार उठती मांग को देखते हुए यूपी में मुलायम सरकार ने जिले को लेकर दीक्षित आयोग बनाया था. निशंक सरकार में 15 अगस्त 2011 को डीडीहाट समेत रानीखेत, यमुनोत्री और कोटद्वार को जिला बनाने की घोषणा की थी. चुनावी साल में हुई इस घोषणा का शासनादेश भी जारी कर दिया गया था, लेकिन गजट नोटिफिकेशन नहीं हुआ.
नतीजा ये रहा कि जीओ जारी होने के 10 साल बाद भी चारों जिले अस्तित्व में नहीं आ पाए. डीडीहाट जिले के सवाल पर बीजेपी ही नहीं बल्कि कांग्रेस के दामन पर भी दाग है. साल 2005 में 36 दिनों तक चले अनशन के बाद तत्कालीन सीएम एनडी तिवारी ने डीडीहाट को जिला बनाने का ऐलान किया था, लेकिन ये ऐलान भी हवा-हवाई रहा. इस बार के उत्तराखंड विधान सभा चुनाव 2022 में भी यह मुद्दा उठा, लेकिन चुनाव खत्म हुए तो यह मुद्दा भी गायब हुआ.
पुरोला या यमुनोत्री को जिला बनाने की मांगः उत्तरकाशी जिले के रवांई घाटी के लोगों ने साल 1960 से ही नौगांव, पुरोला व मोरी ब्लॉक को मिलाकर पृथक जिला बनाने की मांग शुरू कर दी थी, लेकिन किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. राज्य गठन के बाद भी यहां कई बार महीनों तक आंदोलन चलते रहे, लेकिन सरकारी तंत्र मूकदर्शक बना रहा.
प्रदेश में चार नए जिलों का गठन करने की घोषणा हुई थी, जिसमें यमुनोत्री को जिला बनाने की मांग (Yamunotri District Demand) भी शामिल थी, लेकिन वो अभी तक ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है. हिमाचल प्रदेश की सीमा से लगे मोरी ब्लॉक के सुदूरवर्ती क्षेत्र के लोग आज भी दो दिन में जिला मुख्यालय उत्तरकाशी पहुंचते हैं.
वित्तीय भार नए जिलों के लिए सबसे बड़ा रोड़ाः उत्तराखंड में आयोजनागत मद पहले ही प्रदेश के लिए मुसीबत बना हुआ है. कुल बजट का 80% तक आयोजनागत में खर्च किया जाता है. जिससे प्रदेश में योजनाओं और विकास के लिए पैसा ही नहीं बचता. ऐसे हालातों में नए जिलों के पुनर्गठन पर राज्य के लिए पैसा खर्च कर पाना नामुमकिन दिखता है. इतना ही नहीं नए जिलों के गठन से आयोजनागत खर्च भी बेहद ज्यादा बढ़ जाएगा. ऐसे में सरकार के लिए नए जिलों का पुनर्गठन टेढ़ी खीर होगा.
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कॉर्पस फंड बनाने का हो चुका था फैसलाः हरीश रावत के शासनकाल में सरकार ने जनवरी 2017 को नए जिलों के गठन के लिए एक हजार करोड़ की धनराशि से कॉर्पस फंड बनाने का फैसला तक कर दिया था. लेकिन मार्च 2017 में सत्ता पर काबिज हुई त्रिवेंद्र सरकार ने पिछली सरकार की ओर से राजस्व परिषद की अध्यक्षता में आयोग का गठन और नए जिलों के निर्माण के लिए एक हजार करोड़ के कॉर्पस फंड के स्थापना के बाद भी इस दिशा में कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया. सरकार ने नए जिलों के गठन का पूरा मामला जिला पुनर्गठन आयोग पर ही छोड़ दिया कि जिला पुनर्गठन आयोग ही तय करेगा कि कितने जिले और कब बनाए जाने हैं.
एक जिले के निर्माण में 150 से 200 करोड़ के व्यय का आकलनः साल 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के शासनकाल में नए जिलों के गठन के लिए बनाए गए आयोग ने एक नए जिले के निर्माण में करीब 150 से 200 करोड़ रुपए के व्यय का आकलन किया था. यानी उस दौरान 4 नए जिले बनाने की बात चल रही थी. लिहाजा, उस दौरान चार नए जिले बनाए जाते तो राज्य पर करीब 600 से 800 करोड़ तक का अतिरिक्त भार पड़ता. ऐसे में अब जब इस बात को 4 साल का समय बीत गया है, तो अब 4 नए जिलों का गठन किया जाता है तो ऐसे में साल 2016 में अनुमानित व्यय से अधिक खर्च आना लाजिमी है.
नए जिलों के गठन से बढ़ेगा करोड़ों का अतिरिक्त भारः अगर नए जिले बनाए जाते हैं तो उसमें जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान के साथ ही इनका पूरा तंत्र और ऑफिस, गाड़ी समेत तमाम खर्चों का व्यय बढ़ जाएगा. इतना ही नहीं जिला स्तर के सभी विभागों में पद भी सृजित किए जाएंगे, जिसके बाद उनके कार्यालय समेत अन्य खर्चों का अतिरिक्त भार सरकार को झेलना पड़ेगा. जिससे सालाना करोड़ों रुपए का खर्च बढ़ जाएगा. लेकिन वर्तमान राज्य की हालात देखें तो सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के लिए बाजार से कर्ज उठाना पड़ रहा है. अगर कर्ज लेकर घी पीने जैसी नीति रही तो यह भविष्य में नुकसानदेह भी साबित हो सकती है.
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