ETV Bharat / state

कुमाऊं की दरकती विरासत और मिटती काष्ठकला, संरक्षण की जरूरत

लकड़ियों पर होने वाली पहाड़ की परंपरागत नक्काशी धीरे-धीरे लुप्त हो रही है. लकड़ी की अनुपलब्धता और काष्ठ कलाकारों की उपेक्षा के चलते यह कला हाशिए पर जा रही है.

Wood art of Kumaon
विलुप्त होती कुमाऊं की परंपरागत काष्ठ कला
author img

By

Published : Nov 8, 2020, 4:29 PM IST

अल्मोड़ा: देवभूमि में बसे लोगों के घरों की खूबसूरत काष्ठ कला हर किसी को मोहित करती है. देवी देवताओं से लेकर तरह-तरह की डिजाइन की नक्काशी पहाड़ के हर घर की पहचान के रूप में भी थी. यहां तक कि कभी इसे स्टेटस सिंबल के रूप में भी देखा जाता रहा. चंद वंश के समय विकसित हुई यह कला सदियों तक बदस्तूर जारी रही, लेकिन अब इस कला को देखने के लिए आंखें तरस गई हैं.

उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब स्मृति चिन्हों तक सिमट गई है. किसी जमाने में घर बनाने से लेकर घरेलू उपयोग में आने वाले लकड़ी के सामान में नक्काशी का प्रचलन था. लेकिन, मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब काष्ठ कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है.

कुमाऊं की दरकती विरासत और मिटती काष्ठकला.

इतिहास में दर्ज दस्तावेजों के अनुसार कुमाऊं में चंद शासन काल में काष्ठ कला विकसित हुई थी. तत्कालीन राजाओं ने इस कला को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माना जाता है कि गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान से जैसे-जैसे लोग आते गए, कुमाऊं में काष्ठकला भी विकसित होती रही. यही कारण है कि आज भी इन राज्यों के ग्रामीण अंचलों की कला कुमाऊं की काष्ठकला से मिलती है.

ये भी पढ़ें: तिब्बत के साथ कैसा रहा चीन का सलूक, सुनें शरणार्थियों की जुबानी

अल्मोड़ा का जौहरी बाजार या फिर खजांची मोहल्ला, दोनों ही इलाके शहर के प्राचीनतम जगहों में शुमार हैं. यहां आज भी सैंकड़ों वर्ष पुराने भवन शहर की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. इन भवनों में काष्ठ कला का विशेष महत्व है. हाथों से लकड़ियों पर तराशी गई नक्काशी और कलाकृतियां लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पर्वतीय शैली में बने भवन काफी मजबूत होते है. दरअसल, कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक घर वैज्ञानिक दृष्टि से भी काफी फायदेमंद होते है. स्थानीय पत्थर, मिट्टी, गोबर और लकड़ी से तैयार ये घर सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडे होते हैं. इसके साथ ही भूकंप की दृष्टि से भी ये भवन मजबूत माने जाते हैं. लेकिन अब इस कला को जीवंत रखने के लिए कुछ ही गिने चुने कलाकार मौजूद हैं.

कुमाऊं की काष्ठ कला में दरवाजे के चारों तरफ झालरनुमा आकृतियां, बीच चौड़ी पट्टी में गणेश आदि देवी-देवताओं के चित्रों के अलावा हाथी आदि के चित्र उकरने की मान्यता रही है. दरवाजे के ऊपर की पट्टी पर लोक देवी-देवताओं के चित्रों की पट्टी बनाई जाती रही है. यही कारण था कि चौखट की नक्काशी भी घर की शान हुआ करती थी. राजतंत्र से लेकर ब्रिटिश शासनकाल तक के इतिहास की इस कला में राजस्थानी और दक्षिण भारतीय कला की झलक देखने को मिलती है. लेकिन, अब पहाड़ों में यह कला सिमटती जा रही है.

ये भी पढ़ें: न काष्ठ रहा न कलाकार, अंतिम सांसें गिन रही पुश्तैनी विरासत

अल्मोड़ा का इतिहास

अल्मोड़ा चंद राजाओं की राजधानी रही है. चंद राजाओं ने यहां अनेक किले, भवनों का निर्माण कराया, जो आज भी यहां मौजूद हैं. अल्मोड़ा नगर की स्थापना चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने सन 1563 ई. में आलम नगर के रूप में की थी. जो बदलते समय के साथ अल्मोड़ा कहलाया.

इतिहासकार वीडीएस नेगी का कहना है कि अल्मोड़ा की काष्ठ कला किसी जमाने में काफी प्रसिद्ध थी. नगर में स्थित नक्काशीदार प्राचीन भवन चंद राजाओं के समय के ही हैं और उनके समय में ही काष्ठ कला सबसे ज्यादा होती थी. नगर में लाला बाजार से लेकर कारखाना बाजार, खजांची मोहल्ले में बने पुराने भवन इसी काष्ठ कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिसे देखने दूर-दूर से सैलानी आते हैं. लेकिन मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब कुमाऊं में काष्ठ कला विलुप्त होती जा रही है.

उत्तराखंड में आज भी पहाड़ों पर लकड़ी के घर मिल जाएंगे, ये मकान 4 से 5 मंजिला होते हैं. हर मंजिल की अपनी खासियत होती है. सबसे बड़ी बात ये है कि कई सौ साल पहले बने ये मकान भूकंपरोधी है. लेकिन उपेक्षा और उदासीनता के चलते काष्ठ नक्काशी वाले नए भवन मिलना तो दूर पुराने भवनों को संरक्षित रखना टेढ़ी खीर बनता जा रहा है.

अल्मोड़ा: देवभूमि में बसे लोगों के घरों की खूबसूरत काष्ठ कला हर किसी को मोहित करती है. देवी देवताओं से लेकर तरह-तरह की डिजाइन की नक्काशी पहाड़ के हर घर की पहचान के रूप में भी थी. यहां तक कि कभी इसे स्टेटस सिंबल के रूप में भी देखा जाता रहा. चंद वंश के समय विकसित हुई यह कला सदियों तक बदस्तूर जारी रही, लेकिन अब इस कला को देखने के लिए आंखें तरस गई हैं.

उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब स्मृति चिन्हों तक सिमट गई है. किसी जमाने में घर बनाने से लेकर घरेलू उपयोग में आने वाले लकड़ी के सामान में नक्काशी का प्रचलन था. लेकिन, मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब काष्ठ कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है.

कुमाऊं की दरकती विरासत और मिटती काष्ठकला.

इतिहास में दर्ज दस्तावेजों के अनुसार कुमाऊं में चंद शासन काल में काष्ठ कला विकसित हुई थी. तत्कालीन राजाओं ने इस कला को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माना जाता है कि गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान से जैसे-जैसे लोग आते गए, कुमाऊं में काष्ठकला भी विकसित होती रही. यही कारण है कि आज भी इन राज्यों के ग्रामीण अंचलों की कला कुमाऊं की काष्ठकला से मिलती है.

ये भी पढ़ें: तिब्बत के साथ कैसा रहा चीन का सलूक, सुनें शरणार्थियों की जुबानी

अल्मोड़ा का जौहरी बाजार या फिर खजांची मोहल्ला, दोनों ही इलाके शहर के प्राचीनतम जगहों में शुमार हैं. यहां आज भी सैंकड़ों वर्ष पुराने भवन शहर की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. इन भवनों में काष्ठ कला का विशेष महत्व है. हाथों से लकड़ियों पर तराशी गई नक्काशी और कलाकृतियां लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पर्वतीय शैली में बने भवन काफी मजबूत होते है. दरअसल, कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक घर वैज्ञानिक दृष्टि से भी काफी फायदेमंद होते है. स्थानीय पत्थर, मिट्टी, गोबर और लकड़ी से तैयार ये घर सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडे होते हैं. इसके साथ ही भूकंप की दृष्टि से भी ये भवन मजबूत माने जाते हैं. लेकिन अब इस कला को जीवंत रखने के लिए कुछ ही गिने चुने कलाकार मौजूद हैं.

कुमाऊं की काष्ठ कला में दरवाजे के चारों तरफ झालरनुमा आकृतियां, बीच चौड़ी पट्टी में गणेश आदि देवी-देवताओं के चित्रों के अलावा हाथी आदि के चित्र उकरने की मान्यता रही है. दरवाजे के ऊपर की पट्टी पर लोक देवी-देवताओं के चित्रों की पट्टी बनाई जाती रही है. यही कारण था कि चौखट की नक्काशी भी घर की शान हुआ करती थी. राजतंत्र से लेकर ब्रिटिश शासनकाल तक के इतिहास की इस कला में राजस्थानी और दक्षिण भारतीय कला की झलक देखने को मिलती है. लेकिन, अब पहाड़ों में यह कला सिमटती जा रही है.

ये भी पढ़ें: न काष्ठ रहा न कलाकार, अंतिम सांसें गिन रही पुश्तैनी विरासत

अल्मोड़ा का इतिहास

अल्मोड़ा चंद राजाओं की राजधानी रही है. चंद राजाओं ने यहां अनेक किले, भवनों का निर्माण कराया, जो आज भी यहां मौजूद हैं. अल्मोड़ा नगर की स्थापना चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने सन 1563 ई. में आलम नगर के रूप में की थी. जो बदलते समय के साथ अल्मोड़ा कहलाया.

इतिहासकार वीडीएस नेगी का कहना है कि अल्मोड़ा की काष्ठ कला किसी जमाने में काफी प्रसिद्ध थी. नगर में स्थित नक्काशीदार प्राचीन भवन चंद राजाओं के समय के ही हैं और उनके समय में ही काष्ठ कला सबसे ज्यादा होती थी. नगर में लाला बाजार से लेकर कारखाना बाजार, खजांची मोहल्ले में बने पुराने भवन इसी काष्ठ कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिसे देखने दूर-दूर से सैलानी आते हैं. लेकिन मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब कुमाऊं में काष्ठ कला विलुप्त होती जा रही है.

उत्तराखंड में आज भी पहाड़ों पर लकड़ी के घर मिल जाएंगे, ये मकान 4 से 5 मंजिला होते हैं. हर मंजिल की अपनी खासियत होती है. सबसे बड़ी बात ये है कि कई सौ साल पहले बने ये मकान भूकंपरोधी है. लेकिन उपेक्षा और उदासीनता के चलते काष्ठ नक्काशी वाले नए भवन मिलना तो दूर पुराने भवनों को संरक्षित रखना टेढ़ी खीर बनता जा रहा है.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.