हरिद्वार: 60 के दशक से पहले हरिद्वार को सिर्फ एक तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता था. यहां सिर्फ लोग गंगा स्नान या फिर अपने प्रियजनों की अस्थियां विसर्जित करने आया करते थे. उस समय शहर के नाम पर सिर्फ हरिद्वार, कनखल और ज्वालापुर इलाके में ही कुछ लोग रहा करते थे. लेकिन साठ के दशक में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की दूरगामी सोच के चलते भेल रानीपुर इकाई की स्थापना हुई. रानीपुर के जंगलों में न सिर्फ इस इकाई की स्थापना की गई, बल्कि हजारों लोगों को रोजगार और उनके रहने के लिए अलग से व्यवस्था की गई थी.
1962 में शिलान्यास, 1964 में बना भेल: भेल कैंपस करीब दो हजार एकड़ अर्थात आठ किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है. कुछ वर्ष पहले तक इस इकाई में दस हजार स्थाई और छह हजार संविदा कर्मी काम किया करते थे. बीते एक दशक में इसके हाल इस कदर खराब हो गये हैं कि आज यहां बमुश्किल बाइस सौ स्थाई कर्मचारी ही शेष बचे हैं. संविदा कर्मियों की संख्या भी घटकर पंद्रह सौ के करीब ही रह गई है. रानीपुर इकाई ने 2012-13 में 7 हजार करोड़ का टर्न ओवर देकर 500 करोड़ का लाभ कमाया था. अब भेल रानीपुर गर्त में जा रहा है. सिर्फ आठ साल में नवरत्नों में एक ये संस्थान लाभ से घाटे में चला गया. बीते साल भेल हरिद्वार ढाई सौ करोड़ के घाटे में (BHEL Haridwar in loss of two hundred and fifty crores) रहा है. यहां की चाहे शिक्षा व्यवस्था हो या फिर चिकित्सा स्वास्थ्य या फिर कर्मचारियों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी आवासीय व्यवस्था सब चौपट हो रही है.
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नेहरू ने किया था 1962 में शिलान्यास: आजादी के बाद देश को विकास की धारा में लाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने देश में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स की स्थापना का क्रम शुरू किया था. जिसके तहत 1962 में भेल रानीपुर का शिलान्यास किया गया. उसके बाद से विकास और लाभ का जो क्रम शुरू हुआ वह वर्ष 2013 तक बदस्तूर जारी रहा. भेल नवरत्न से महारत्नों में शामिल हो गया.
2012-13 में किया रिकॉर्ड टर्न ओवर: आज भेल रानीपुर भले ही घाटे में चला गया हो, लेकिन यह हाल हमेशा नहीं था. वर्ष 2012-13 में न केवल रानीपुर बल्कि भेल की तमाम इकाइयों ने 50 हजार करोड़ का टर्न ओवर कर 10 हजार करोड़ का कुल लाभ कमाया था. भेल रानीपुर ने अकेले सात हजार करोड़ का टर्न ओवर कर पांच सौ करोड़ का लाभ लाकर केंद्र सरकार के हाथ मजबूत किए थे.
आखिर आठ साल में क्यों अर्श से फर्श पर आया भेल: सिर्फ 8 साल पहले तक भेल रानीपुर ही नहीं बल्कि भेल की तमाम इकाइयां न केवल बड़ी संख्या में बेरोजगारों को रोजगार दे रही थीं, बल्कि यह इकाइयां दिन रात सोना भी उगल रही थीं. बीते 8 साल में ऐसा क्या हुआ कि यह इकाइयां एकाएक मुनाफे का नहीं, बल्कि घाटे का सौदा बन गईं और आज इन इकाइयों से लाभ की जगह सिर्फ हानि ही हो रही है.
आज नहीं है काम: कुछ साल पहले तक देश ही नहीं बल्कि विदेश से भी कई बड़े ऑर्डर लेने वाले भेल रानीपुर के पास इस समय एडवांस ऑर्डर का टोटा है. श्रमिक नेताओं का कहना है कि सरकार अब भेल को ऑर्डर दिलाना ही नहीं चाहती है. क्योंकि सरकार का ध्यान अब निजी उपक्रमों की तरफ है. यह तमाम ऑर्डर अब ऐसे ही कुछ निजी उपक्रमों के हाथों में दिए जा रहे हैं. जिस कारण भेल का घाटा हर साल बढ़ता जा रहा है.
सरकारी नीतियों पर सवाल: जिस समय भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड की स्थापना की गई थी, उस समय की सरकारों का सबसे पहला उद्देश्य इन संस्थानों को अपने पैरों पर मजबूती के साथ खड़ा करना था. इसके लिए सरकारों की तरफ से हर वह संभव प्रयास किए जाते थे जिससे इकाइयों को लगातार न केवल मुनाफा हुआ बल्कि इन इकाइयों के माध्यम से हजारों की संख्या में बेरोजगार लोगों को रोजगार भी मिला. लेकिन बीते कुछ सालों में बदली सरकार की नीतियों के चलते आज इन इकाइयों में रोजगार मिलने की जगह कर्मचारियों की संख्या कम हो रही है. वहीं बाहर से मिलने वाले ऑर्डर भी लगातार कम होते जा रहे हैं.
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स्कूल बंदी की कगार पर: 10 साल पहले तक भेल रानीपुर में स्थित ईएमबी, केवी और डीपीएस स्कूलों में दाखिला लेने के लिए लोगों को सिफारिश लगानी पड़ती थी. इन स्कूलों के रिजल्ट को देखकर ही कनखल ज्वालापुर हरिद्वार सहित आसपास के इलाकों में रहने वाले बच्चों की पहली पसंद भेल के स्कूल हुआ करते थे. लेकिन आज भेल का एजुकेशन मैनेजमेंट बोर्ड लगभग बंदी की कगार पर है. वहीं केवी भी अब भेल से सिमटता जा रहा है. हालत यह है कि अब भेल के स्कूलों को निजी संस्थान किराए पर लेकर मोटा पैसा कमा रहे हैं. बच्चों के भविष्य से मानो कोई सरोकार ही नहीं रह गया.
जर्जर हो रही टाउनशिप: एक समय था जब भेल की पूरी टाउनशिप को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आया करते थे. इस टाउनशिप की व्यवस्थाओं के लिए स्टेट प्रबंधन को जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इस जिम्मेदारी का निर्वहन संपदा विभाग बखूबी निभाता भी था. पिछले कुछ सालों में कंपनी की लगातार घटती कमाई ने संपदा विभाग को भी मानो मजबूर कर दिया है. आला अधिकारियों के आवासों से इतर श्रमिकों के आवासों का बेहद ही बुरा हाल है. न तो अब कर्मचारियों के घरों के आगे से निकलने वाली सड़कों की समय-समय पर मरम्मत होती है. ना ही कोई साफ सफाई की व्यवस्था है. आलम यह है कि अब कर्मचारियों को अपने आवासों पर स्वयं ही अपने खर्चे से रंगाई पुताई और मरम्मत तक करानी पड़ रही है.
सुरक्षा भगवान भरोसे: एक समय था जब भेल के तमाम प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हुआ करते थे. क्षेत्र के तमाम एंट्री प्वाइंट पर न केवल सीआईएसएफ की पोस्ट बनाई गई थी, बल्कि इन पर चौबीसों घंटे सुरक्षाकर्मी भी मौजूद रहते थे. जिनका काम आने जाने वाले वाहनों पर नजर रखने के साथ किसी भी संदिग्ध को रोककर पूछताछ करना था. बीते 2 सालों से उपक्रम में आ रहे घाटे के बाद इन चेक पोस्टों से सुरक्षा बल हटा लिया गया है.
नहीं मिल रहे अब ऑर्डर: श्रमिकों का आरोप है कि अब केंद्र सरकार ही नहीं चाहती कि भेल को बाहर से पहले की तरह वर्क ऑर्डर मिले. ऑर्डर न मिलने के कारण कंपनी का घाटा धीरे धीरे बढ़ता जाएगा. जिसके चलते एक समय ऐसा आएगा, जब कंपनी पर ताला लग जाएगा और आसानी से इसे निजी हाथों को सौंपा जा सकेगा.
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दिनों दिन घट रही कर्मचारियों की संख्या: नवरत्न संस्थानों में शुमार भेल की रानीपुर इकाई में एक समय इस कदर काम था कि यहां पर स्थाई कर्मचारियों की संख्या 10,000 जबकि संविदा कर्मियों की संख्या भी 5000 से अधिक थी. आज यह आलम है कि स्थाई कर्मचारियों की संख्या घटकर 2220 जबकि ठेके पर काम करने वालों की संख्या घटकर पंद्रह सौ के आसपास रह गई है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भेल के पास अब कराने के लिए काम ही नहीं है.
बदहाल हुई सर्वाधिक जरूरी मेडिकल सुविधा: भेल की बदहाली का असर यहां की सर्वाधिक जरूरी मेडिकल सुविधा पर भी नजर आने लगा है. हालत यह है कि यहां से अच्छे अच्छे डॉक्टर छोड़कर निजी क्षेत्र में जा रहे हैं तो वहीं यहां पर अब दवाओं का भी टोटा होने लगा है. सबसे ज्यादा परेशानी उन सेवानिवृत्त कर्मचारियों को उठानी पड़ रही है जिनकी स्थिति बाहर जाकर उपचार कराने की नहीं है. इतना ही नहीं अस्पताल का आलम यह है कि कई जरूरी दवाएं ही अस्पताल में मुहैया नहीं हो पा रही हैं. इसका खामियाजा वर्तमान और पूर्व दोनों ही कर्मचारियों को उठाना पड़ रहा है.
संपदा विभाग हुआ चौपट: भेल टाउनशिप की पूरी जिम्मेदारी संपदा विभाग के पास थी. आवासों की मरम्मत रंगाई पुताई, सड़कों का निर्माण, पेयजल व्यवस्था, बिजली आपूर्ति सहित कई महत्वपूर्ण काम संपदा विभाग एक शिकायत पर दुरुस्त करा देता था. आज आलम यह है कि न तो सालों से कर्मचारियों के घरों पर पुताई हुई है. ना ही कर्मचारियों के आवासों के आसपास की टूटी सड़कें ही मरम्मत हो पा रही हैं. जगह-जगह गड्ढे और जलभराव कर्मचारियों के लिए मुसीबत का कारण बने हुए हैं.
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पीपी बोनस में कटौती: किसी भी कंपनी में कर्मचारी तभी पूरी मेहनत और लगन से काम करता है, जब उसको मिलने वाले वेतन के साथ बोनस और पीपी समय पर प्राप्त हों. लेकिन भेल के कर्मचारियों का कहना है कि पिछले कई सालों से बोनस और पीपी में भारी कटौती कर दी गई है. जिसने सभी मेहनतकश कर्मचारियों को काफी मायूस किया है.