शामली: मुझे मौत से डरा मत, कई बार मर चुका हूं.. किसी मौत से नहीं कम कोई ख़्वाब टूट जाना...वीरेंद्र खरे की ये पंक्तियां शामली जिले के एक परिवार पर बिल्कुल सटीक बैठ रही हैं. मासूम बच्चों के सिर से दादा-दादी का साया पहले ही उठ गया था. अब कोरोना ने उनके मां-बाप को भी निगल लिया. महज 13 साल की उम्र में बैग का भार उठाने वाले कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी का भार आन पड़ा है. आंखों में दुख का सागर के अलावा सपनों की उम्मीद भी छलकती है. पिता के सपने को साकार करने का जज्बा अभी भी 13 साल के मासूम की आंखों में है.
शामली जिले का लिसाढ़ गांव. लोकेंद्र करीब नौ बीघे की जमीन पर खेती कर परिवार का गुजारा करते थे. साल 2020 के अप्रैल महीने में कोरोना ने लोकेंद्र की सांसें थाम ली. लोकेंद्र के गुजरते ही परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. अब उनकी मां और उनकी पत्नी ने घर की जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाने की कोशिश की. लेकिन, साल 2020 के दिसंबर महीने में लोकेंद्र की मां का भी देहांत हो गया. परिवार एक बार फिर दुखों में घिर गया. किसी तरह से परिवार का गुजर बसर हो रहा था.
सपने हुए चकनाचूर, अब भाई-बहन को पढ़ाऊंगा
इसके बाद जब कोरोना की दूसरी लहर आयी तब लोकेंद्र की पत्नी यानि इन तीनों बच्चों की मां की भी मौत हो गयी. बच्चे बताते हैं कि उनके मां-बाप की मौत के साथ उनके सपनों की भी मौत हो गयी. लोकेंद्र के बड़े बेटे 13 साल के हैं और फिलहाल 10 वीं क्लास में पढ़ाई कर रहे हैं. वह बताते हैं कि सेना में भर्ती होना उनका और उनके पिता का सपना था. छोटी बहन डॉक्टर बनना चाहती है और छोटा भाई भी सेना में भर्ती होना चाहता है. छोटी उम्र में ही वह कहते हैं कि उसके खुद के सपने तो चकनाचूर हो गए लेकिन अब वह अपने भाई और बहन के सपनों को पूरा करने के लिए हरसंभव कोशिश करेंगे.
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किताबें छोड़, कंधों पर आ गया फावड़ा
लोग इस पीड़ित परिवार के घर पर फिलहाल आटा-चावल तो भिजवा दे रहे हैं लेकिन आगे क्या होगा किसी को नहीं पता. कलम वाले हाथों ने अब फावड़ा उठा लिया है. खेल के मैदान में खेलने वाले पैर खेत की मिट्टी को रौंदने लगे हैं. मामा और परिवार के लोग फिलहाल मदद कर रहे हैं. लेकिन 9 बीघे खेतों में पसीना बहाना ही पड़ेगा. लोकेंद्र के बेटे कहते हैं कि परिवार में चार लोगों की मौत के बाद कुछ सरकारी लोग घर पर पहुंचे थे. मदद के नाम पर उन्होंने पांच हजार रुपये दिये. कुछ पुलिसकर्मियों ने राशन का सामान घर पर पहुंचा दिया. अब अपने छोटे भाई और बहन को घर पर पढ़ने के लिए छोड़कर लोकेंद्र के बड़े बेटे के लिए फावड़ा लेकर खेतों के लिए निकल जाना नियति बन गयी है.
बच्चों के सामने खड़ी हुई जिंदगी की मुश्किलें
सिर्फ हौसलों के दम पर जिंदगी नहीं गुजर सकती. मासूम बच्चों को तो यह भी नहीं पता कि बिखरे ख्वाबों को जोड़ने के लिए कितने जतन करने पड़ेंगे. उन्हें उम्मीद है कि सरकार का ध्यान उनकी तरफ भी जाएगा और उन्हें भी सरकार की तरफ से मदद मिलेगी. अपने मां-बाप और दादा-दादी को खो चुके तीनों भाई-बहन हौसले और उम्मीदों के सहारे हैं.