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क्या लोकसभा चुनाव में भाजपा को टक्कर दे पाएगी सपा, क्या हैं चुनौतियां?

निकाय चुनाव में भाजपा ने बंपर जीत हासिल की है. लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सभी दलों ने तैयारी शुरू कर दी है. आगामी चुनाव में सपा के लिये क्या हैं चुनौतियां? पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : May 20, 2023, 9:54 AM IST

लखनऊ : निकाय चुनाव में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने बंपर जीत हासिल की है उससे यह साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबला आसान नहीं होगा. प्रदेश के मुख्य दलों में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी माने जाते हैं. पिछले कुछ वर्षों में बसपा और कांग्रेस की स्थिति लगातार खराब की है. इसीलिए अब बड़े चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी में सीधा मुकाबला दिखाई देता है. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी दो और बसपा सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब हुई थी. निकाय चुनाव में भी इन दलों के बड़े नेताओं ने न सक्रियता दिखाई न ही जनता के बीच गए. वैसे भी सिर्फ चुनाव के समय वोट मांगना मतदाताओं को अवसरवाद की राजनीति लगती है. पिछले चुनाव में प्रियंका गांधी की सक्रियता इसका उदाहरण है. उन्होंने जिलों का दौरा किया, जनता के बीच गईं, लेकिन सफलता हासिल नहीं हो पाई. यही कारण है कि माना जाने लगा है कि यह भाजपा को कोई चुनौती दे सकता है, तो वह समाजवादी पार्टी ही है.



फाइल फोटो
फाइल फोटो

एक साल पहले 2022 के चुनाव परिणामों पर चर्चा करें, तो भाजपा गठबंधन को कुल 403 विधानसभा सीटों में 255 पर जीत हासिल हुई थी. 1985 के बाद यह पहली बार था जब कोई सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा कर दोबारा बहुमत के साथ सत्ता में लौटी है. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी गठबंधन को 111 सीटों पर जीत हासिल हुई, जो 2017 के चुनाव के मुकाबले 64 सीटें अधिक थीं. माना जाता है कि समाजवादी पार्टी की सीटों की संख्या कुछ और बढ़ सकती थी यदि उन्होंने सही निर्णय किए होते. अखिलेश यादव के टिकट वितरण पर तमाम सवाल उठे. सपा कई सीटें इसलिए हार गई कि उसने अपने नेता पर विश्वास करने के बजाए दूसरे दलों से आए नेताओं पर ज्यादा विश्वास किया. यही नहीं टिकट वितरण ठीक से न होने के कारण कई नेता नाराज होकर भाजपा में चले गए और उन्होंने सपा को कमजोर किया. सपा में किसी को टिकट देने फिर किसी और को सिंबल दे देने जैसी घटनाएं भी खूब हुईं. यह क्रम निकाय चुनाव में भी जारी रहा. समाजवादी पार्टी में अखिलेश का नेतृत्व आने के बाद इस तरह की अनिर्णय की स्थिति बार-बार सामने आ रही है. टिकट वितरण में बड़े नेताओं का परामर्श भी नहीं लिया जाता. सूत्र बताते हैं यह सारे फैसले अखिलेश यादव अकेले ही लेते हैं. सपा के पीछे जाने का एक यह भी बड़ा कारण है. पार्टी के बड़े नेताओं को महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल होना चाहिए और उनका उचित परामर्श भी समय-समय पर लेते रहना चाहिए.


फाइल फोटो
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भाजपा और समाजवादी पार्टी में एक और बड़ा अंतर है. भाजपा हर छोटे-बड़े चुनाव को एक ही तरह से लेती है और उसे जीतने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है, वहीं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव छोटे चुनावों में खुद प्रचार करने और जनता के बीच जाने में तौहीन समझते हैं. निकाय चुनाव में यह सभी ने देखा. एक-दो अपवाद छोड़ दें तो वह बाहर नहीं निकले. बड़े नेताओं के चुनाव मैदान में उतरने से कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा होता है और जीत भी आसान हो जाती है. अखिलेश को विरोधी पार्टी से भी कई बातें सीखनी चाहिए. जीत छोटी हो या बड़ी, मनोबल पर असर तो बड़ा ही डालती है. यदि अखिलेश यह बात समझ पाते तो वह निकाय चुनाव और पंचायत व उपचुनाव में भी जनता के बीच जाकर समर्थन जरूर मांगते. अब जबकि शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी में वापसी कर चुके हैं, तो अखिलेश यादव को उनका भी ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिए. शिवपाल यादव की आज भी कार्यकर्ताओं पर अच्छी पकड़ है और वह जमीनी नेता माने जाते हैं. यदि भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कोई मोर्चा बना तो समाजवादी पार्टी की भूमिका बहुत अहम हो जाएगी. उत्तर प्रदेश लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य है और यहां से 80 सांसद चुनकर लोकसभा पहुंचते हैं. उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी जीत हासिल करने वाला दल ही प्रायः केंद्र की सत्ता पर काबिज होता है. इसलिए यदि अखिलेश की लड़ाई कमजोर रह गई, तो देश के सभी एकजुट हो रहे विपक्षी दलों का सपना अधूरा ही रह जाएगा.



राजनीतिक विश्लेषक आलोक राय कहते हैं 'यदि समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनावों में बड़ी जीत चाहती है, तो उसे अभी से अपनी रणनीति बनानी होगी. यह देखना होगा कि वह भाजपा के ट्रैप में न फंसे. जनता के मुद्दों को उठाने के बजाय नुकसान पहुंचाने वाले रामचरितमानस जैसे विषयों को उठाकर सपा आगे नहीं बढ़ सकती. समाजवादी पार्टी पिछले छह साल में भाजपा के खामियों को अच्छी तरह उजागर नहीं कर पाई है, जबकि भाजपा सरकार जनता से किए अपने कई वादे पूरे करने में नाकाम रही है. किसानों की समस्याएं हों अथवा छुट्टा पशुओं का विषय, स्थिति आज भी वैसे ही है. कागजों पर इन समस्याओं का निपटारा भले हो गया हो पर हकीकत आज भी नहीं बदल पाई है. किसानों की आय दोगुनी करना सिर्फ किताबी जुमला रह गया है. विपक्ष इन विषयों को जोर-शोर से क्यों नहीं उठाता? ऐसा भी नहीं है कि छह साल में भाजपा सरकार में कोई घपला, घोटाला या भ्रष्टाचार न हुआ हो. इसे खोज कर लाने का दायित्व तो विपक्षी दलों पर ही होता है. अब जबकि विपक्ष का सबसे बड़ा दायित्व सपा पर ही है, तो जाहिर है कि अपेक्षा भी समाजवादी पार्टी से ही होगी. अखिलेश यादव को बार-बार इस बात पर ध्यान देना होगा कि वह असल मुद्दों से न भटके. देखने वाली बात यह होगी कि विपक्ष लोकसभा चुनावों के लिए किस तरह एकजुट होकर सामने आता है और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती बनता है. एक बात और... यह भी देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू अब भी कायम है या इसका अवसान होने लगा है.'

यह भी पढ़ें : अलीगढ़ में दारोगा की हत्या, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गले की हड्डी टूटने का खुलासा

लखनऊ : निकाय चुनाव में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने बंपर जीत हासिल की है उससे यह साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबला आसान नहीं होगा. प्रदेश के मुख्य दलों में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी माने जाते हैं. पिछले कुछ वर्षों में बसपा और कांग्रेस की स्थिति लगातार खराब की है. इसीलिए अब बड़े चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी में सीधा मुकाबला दिखाई देता है. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी दो और बसपा सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब हुई थी. निकाय चुनाव में भी इन दलों के बड़े नेताओं ने न सक्रियता दिखाई न ही जनता के बीच गए. वैसे भी सिर्फ चुनाव के समय वोट मांगना मतदाताओं को अवसरवाद की राजनीति लगती है. पिछले चुनाव में प्रियंका गांधी की सक्रियता इसका उदाहरण है. उन्होंने जिलों का दौरा किया, जनता के बीच गईं, लेकिन सफलता हासिल नहीं हो पाई. यही कारण है कि माना जाने लगा है कि यह भाजपा को कोई चुनौती दे सकता है, तो वह समाजवादी पार्टी ही है.



फाइल फोटो
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एक साल पहले 2022 के चुनाव परिणामों पर चर्चा करें, तो भाजपा गठबंधन को कुल 403 विधानसभा सीटों में 255 पर जीत हासिल हुई थी. 1985 के बाद यह पहली बार था जब कोई सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा कर दोबारा बहुमत के साथ सत्ता में लौटी है. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी गठबंधन को 111 सीटों पर जीत हासिल हुई, जो 2017 के चुनाव के मुकाबले 64 सीटें अधिक थीं. माना जाता है कि समाजवादी पार्टी की सीटों की संख्या कुछ और बढ़ सकती थी यदि उन्होंने सही निर्णय किए होते. अखिलेश यादव के टिकट वितरण पर तमाम सवाल उठे. सपा कई सीटें इसलिए हार गई कि उसने अपने नेता पर विश्वास करने के बजाए दूसरे दलों से आए नेताओं पर ज्यादा विश्वास किया. यही नहीं टिकट वितरण ठीक से न होने के कारण कई नेता नाराज होकर भाजपा में चले गए और उन्होंने सपा को कमजोर किया. सपा में किसी को टिकट देने फिर किसी और को सिंबल दे देने जैसी घटनाएं भी खूब हुईं. यह क्रम निकाय चुनाव में भी जारी रहा. समाजवादी पार्टी में अखिलेश का नेतृत्व आने के बाद इस तरह की अनिर्णय की स्थिति बार-बार सामने आ रही है. टिकट वितरण में बड़े नेताओं का परामर्श भी नहीं लिया जाता. सूत्र बताते हैं यह सारे फैसले अखिलेश यादव अकेले ही लेते हैं. सपा के पीछे जाने का एक यह भी बड़ा कारण है. पार्टी के बड़े नेताओं को महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल होना चाहिए और उनका उचित परामर्श भी समय-समय पर लेते रहना चाहिए.


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भाजपा और समाजवादी पार्टी में एक और बड़ा अंतर है. भाजपा हर छोटे-बड़े चुनाव को एक ही तरह से लेती है और उसे जीतने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है, वहीं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव छोटे चुनावों में खुद प्रचार करने और जनता के बीच जाने में तौहीन समझते हैं. निकाय चुनाव में यह सभी ने देखा. एक-दो अपवाद छोड़ दें तो वह बाहर नहीं निकले. बड़े नेताओं के चुनाव मैदान में उतरने से कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा होता है और जीत भी आसान हो जाती है. अखिलेश को विरोधी पार्टी से भी कई बातें सीखनी चाहिए. जीत छोटी हो या बड़ी, मनोबल पर असर तो बड़ा ही डालती है. यदि अखिलेश यह बात समझ पाते तो वह निकाय चुनाव और पंचायत व उपचुनाव में भी जनता के बीच जाकर समर्थन जरूर मांगते. अब जबकि शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी में वापसी कर चुके हैं, तो अखिलेश यादव को उनका भी ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिए. शिवपाल यादव की आज भी कार्यकर्ताओं पर अच्छी पकड़ है और वह जमीनी नेता माने जाते हैं. यदि भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कोई मोर्चा बना तो समाजवादी पार्टी की भूमिका बहुत अहम हो जाएगी. उत्तर प्रदेश लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य है और यहां से 80 सांसद चुनकर लोकसभा पहुंचते हैं. उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी जीत हासिल करने वाला दल ही प्रायः केंद्र की सत्ता पर काबिज होता है. इसलिए यदि अखिलेश की लड़ाई कमजोर रह गई, तो देश के सभी एकजुट हो रहे विपक्षी दलों का सपना अधूरा ही रह जाएगा.



राजनीतिक विश्लेषक आलोक राय कहते हैं 'यदि समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनावों में बड़ी जीत चाहती है, तो उसे अभी से अपनी रणनीति बनानी होगी. यह देखना होगा कि वह भाजपा के ट्रैप में न फंसे. जनता के मुद्दों को उठाने के बजाय नुकसान पहुंचाने वाले रामचरितमानस जैसे विषयों को उठाकर सपा आगे नहीं बढ़ सकती. समाजवादी पार्टी पिछले छह साल में भाजपा के खामियों को अच्छी तरह उजागर नहीं कर पाई है, जबकि भाजपा सरकार जनता से किए अपने कई वादे पूरे करने में नाकाम रही है. किसानों की समस्याएं हों अथवा छुट्टा पशुओं का विषय, स्थिति आज भी वैसे ही है. कागजों पर इन समस्याओं का निपटारा भले हो गया हो पर हकीकत आज भी नहीं बदल पाई है. किसानों की आय दोगुनी करना सिर्फ किताबी जुमला रह गया है. विपक्ष इन विषयों को जोर-शोर से क्यों नहीं उठाता? ऐसा भी नहीं है कि छह साल में भाजपा सरकार में कोई घपला, घोटाला या भ्रष्टाचार न हुआ हो. इसे खोज कर लाने का दायित्व तो विपक्षी दलों पर ही होता है. अब जबकि विपक्ष का सबसे बड़ा दायित्व सपा पर ही है, तो जाहिर है कि अपेक्षा भी समाजवादी पार्टी से ही होगी. अखिलेश यादव को बार-बार इस बात पर ध्यान देना होगा कि वह असल मुद्दों से न भटके. देखने वाली बात यह होगी कि विपक्ष लोकसभा चुनावों के लिए किस तरह एकजुट होकर सामने आता है और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती बनता है. एक बात और... यह भी देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू अब भी कायम है या इसका अवसान होने लगा है.'

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