लखनऊ: राजधानी में वैसे तो कई मंदिर और मजार हैं, जहां लोग आस्था और विश्वास के साथ माथा टेकते हैं, लेकिन लखनऊ के मूसाबाग में सैयद बाबा की मजार है और यहां अंग्रेजों का मूसाबाग का किला भी स्थापित है. इन दोनों के ही बीच में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान सेना की टुकड़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले कैप्टन एफ वेल्स की मजार भी बनी है, जिसे गोरे बाबा की मजार के नाम से जाना जाता है.
सैयद बाबा, गोरे बाबा और मूसा बाग के किले में क्या रिश्ता है?
सैयद बाबा की मजार पर हजारों लाखों की संख्या में दूर-दूर से लोग अपनी परेशानियों को लेकर आते हैं और जिस वक्त यहां कव्वालियां शुरू होती हैं, वैसे ही लोगों का बर्ताव भी बदलने लगता है. महिलाएं हो या पुरुष वह झूमने लग जाते हैं, मानो वह इंसान हो ही नहीं. इसी मजार के ठीक पीछे अंग्रेजी हुकूमत के कप्तान एफ वेल्स की कब्र भी है. जिसे लोग गोरे बाबा की मजार के नाम से जानते हैं. कहा जाता है कि गोरे बाबा, सैयद बाबा के मुरीद हैं. लोग गोरे बाबा की मजार पर भी अपनी मन्नत मांगने आते हैं और चढ़ावे के रूप में सिगरेट, शराब, अंडा आदि चढ़ाया जाता है.
क्या है इसका इतिहास
सन् 1857 में शुरू हुआ गदर जब अवध प्रांत पहुंचा तो अंग्रेजी हुकूमत और अवध प्रांत के क्रांतिकारियों के बीच मूसाबाग के इसी किले में जंग हुई. इस जंग को अंग्रेजों ने जीत तो लिया, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के सैनिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले कैप्टन वेल्स इस लड़ाई में मारे गए. जिसके बाद उनके सैनिकों ने किले के पीछे उनकी समाधि बनाकर उनको वहां दफना दिया. मूसाबाग के किले को एएसआई के द्वारा संरक्षित किया गया है. आज यह किला पूरी तरह से खंडहर में तब्दील हो गया है.
सैयद बाबा की मजार की देखरेख करने वाले सेवक ने बताया कि कप्तान साहब उर्फ गोरे बाबा सैयद बाबा के मुरीद है. अंग्रेजों के समय में कप्तान साहब ने सैयद बाबा की मजार की दीवार गिरानी चाही, लेकिन उनके सभी सैनिक अंधे हो गए. इसके बाद कप्तान साहब ने भी सैयद बाबा को मानना शुरू कर दिया था.
कई वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है कि लोग सैयद बाबा की मजार के साथ-साथ गोरे बाबा की मजार पर भी मन्नत लेकर जाते हैं. मान्यता है कि सैयद बाबा जब गोरे बाबा को आदेश देते हैं तो लोगों की परेशानियां दूर होती हैं.