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अकाल के दौरान नवाब ने आखिर क्यों बना दी यह खूबसूरत इमारत, जानें हकीकत - आपात काल में बना था रूमी दरवाजा

लखनऊ में मुगलकाल का बना रूमी दरवाजा काफी प्रसिद्ध है. यह आज लखनऊ की सिग्नेचर बिल्डिंग है. इस इमारत का निर्माण उस समय के बादशाह आसफ़ुद्दौला ने करवाया था. आइए जानते हैं इस स्पेशल रिपोर्ट के जरिए कि आखिर क्या है इस इमारत का इतिहास.

मुगलकाल का बना रूमी दरवाजा
मुगलकाल का बना रूमी दरवाजा
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Published : May 20, 2021, 6:41 PM IST

Updated : May 20, 2021, 9:28 PM IST

लखनऊ : मुगलकाल में अवध के नवाब भी अपनी प्रजा का विशेष ख्याल रखते थे. महामारी और अकाल के समय वह प्रजा को भूखमरी से बचाने और उनके भरण-पोषण के लिए राहत कार्य पर विशेष ध्यान देते थे. अवध में 1783 ईस्वी में भयंकर अकाल पड़ा था. उस दौरान चौथे नवाब आसफ़ुद्दौला लोगों को दैनिक जीवन की जरूरतमंद चीजों के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा था. तब नवाब ने इमामबाड़ा के विस्तार के रूप में रूमी दरवाजे का निर्माण करवाना शुरू किया. इसको बनवाने की मुख्य वजह लोगों को रोजगार देना था. इसकी वजह से उन दिनों 22000 लोगों को रोजगार का अवसर मिला और इस तरह से अकाल को मात दी गई. लोग नवाब साहब से इतने प्रसन्न हुए कि लोग हर समय नवाब आसफ़ुद्दौला का गुणगान करते थे. एक पंक्ति काफी प्रसिद्ध हुई जो इस प्रकार है– जिसको ना दे मौला, उसको दे आसफ़ुद्दौला.

मुगलकाल का बना रूमी दरवाजा

आपात काल में बना था रूमी दरवाजा
इतिहासकार नवाब मीर जाफर अब्दुल्लाह बताते हैं, यह इमारत आज लखनऊ की सिग्नेचर बिल्डिंग है. इसके निर्माण का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है. क्योंकि नवाब ने इस इमारत को अकाल के समय बनवाया था. जिससे कि लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार मिल सके. वहीं इस इमारत में ऐसे लोगों ने भी काम किया था जो शरीफ किस्म के थे, और दिन के उजाले में काम करने से शर्माते थे. इसलिए उन्हें रात में काम करना पड़ता था. उनका कहना था कि वर्तमान में सरकार को भी इस इमारत और नबाब की कार्यशैली से सिख लेनी चाहिए.


क्या है रूमी दरवाजे का इतिहास ?

नवाबों के शहर लखनऊ में आज भी हर कोने पर नवाबी शानो-शौकत की छाप देखी जा सकती है. अवध के चौथे नवाब आसफुद्दौला ने सन‍् 1775 में लखनऊ को अपनी सल्तनत का मरकजे मसनद बना लिया था. सन् 1784 में उन्होंने रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना शुरू कर दिया था. इनका निर्माण कार्य सन् 1786 में पूरा हुआ. इस विशाल दरवाजे का निर्माण अकाल राहत प्रोजेक्ट के तौर पर बनाया गया. यह दरवाजा 2 सालों में बनकर तैयार हुआ था. कहते हैं इसके निर्माण में उस जमाने में एक करोड़ की लागत आई थी. हालांकि जब रूमी दरवाजा बन रहा था, उस वक्त अवध में अकाल पड़ा हुआ था. इसलिए भूखों को रोटी देने की गरज से आसफुद्दौला ने इन इमारतों की विस्तृत योजना बनाई थी.

तुर्किश वास्तुकला का प्रतीक है रूमी दरवाजा

अवध के छोटे नवाब आसफुद्दौला के संसार प्रसिद्ध रूमी दरवाजे का वास्तुशिल्प किफायतउल्ला नाम के एक नक्‍शा नवीस ने बनाया था. यह वही कारीगर था, जिसने रूमी दरवाजे के चंद्राकार अर्धगुंबद का और इमामबाड़े की लदावतार छत की डाट को बखूबी संभाला था. इन इमारतों में लखौड़ी ईट और बादामी चूने का इस्तेमाल किया गया है. रूमी दरवाजा कान्सटिनपोल के एक प्राचीन दुर्ग द्वार की नकल पर बनवाया गया था. वहीं आज तक योरोपियन इतिहासकार इसे ‘टर्किश गेट’ कहते हैं. वैसे लखनऊ में निर्मित इमारतें किसी एक शैली से संबद्ध नहीं हैं. नवाब आसफ़उद्दौला के समय से ही इमारतों में गॉथिक कला का असर दिखने लगा था. रोम से अनायास जुड़ जाने वाला रूमी दरवाजा रोमन लिपि की तरह भले ही विदेशी वास्तु का प्रतीक मान लिया जाय, इसका मूल प्रभाव भारतीय कला का पोषण करता है.

हिंदू-मुस्लिम कला की प्रतीक है यह इमारत

अवध की चौथी नवाब आसफ़ुद्दौला ने रूमी दरवाजे का निर्माण 1786 इसी में कराया था जिसकी ऊंचाई 60 फीट है. इसके सबसे ऊपरी हिस्से पर एक अठपहलू छतरी बनी हुई है, जहां तक जाने के लिए रास्ता है. पश्चिम की ओर से रूमी दरवाजे की रूपरेखा त्रिपोलिया जैसी है, जबकि पूर्व की ओर से यह पंचमहल मालूम होता है. दरवाजे के दोनों तरफ तीन मंजिला हवादार परकोटा बना हुआ है, जिसके सिरे पर आठ पहलू वाले बुर्ज बने हुए हैं जिन पर गुंबद नहीं है. रूमी दरवाजे की सजावट निराली है जिसमें हिंदू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण देखने को मिलता है.

इसे भी पढ़ें- यूपी के सभी निजी स्कूलों में फीस बढ़ोतरी पर लगी रोक

'वर्तमान सरकारों को भी सीख देती है इमारत'

जिस तरीके से रूमी दरवाजे का निर्माण अकाल राहत प्रोजेक्ट के तहत लोगों को रोजगार देने के लिए किया गया. इस दरवाजे को बनाने में 22000 मजदूरों ने दिन-रात काम किया. वहीं वर्तमान में कोरोना जैसी महामारी के दौरान भी बेरोजगार लोगों को रोजगार के अवसर देने के लिए विशेष प्रयास की जरूरत है. जिससे कि वर्तमान समय में इस महामारी से उपजे हालात से निपटा जा सके.

लखनऊ : मुगलकाल में अवध के नवाब भी अपनी प्रजा का विशेष ख्याल रखते थे. महामारी और अकाल के समय वह प्रजा को भूखमरी से बचाने और उनके भरण-पोषण के लिए राहत कार्य पर विशेष ध्यान देते थे. अवध में 1783 ईस्वी में भयंकर अकाल पड़ा था. उस दौरान चौथे नवाब आसफ़ुद्दौला लोगों को दैनिक जीवन की जरूरतमंद चीजों के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा था. तब नवाब ने इमामबाड़ा के विस्तार के रूप में रूमी दरवाजे का निर्माण करवाना शुरू किया. इसको बनवाने की मुख्य वजह लोगों को रोजगार देना था. इसकी वजह से उन दिनों 22000 लोगों को रोजगार का अवसर मिला और इस तरह से अकाल को मात दी गई. लोग नवाब साहब से इतने प्रसन्न हुए कि लोग हर समय नवाब आसफ़ुद्दौला का गुणगान करते थे. एक पंक्ति काफी प्रसिद्ध हुई जो इस प्रकार है– जिसको ना दे मौला, उसको दे आसफ़ुद्दौला.

मुगलकाल का बना रूमी दरवाजा

आपात काल में बना था रूमी दरवाजा
इतिहासकार नवाब मीर जाफर अब्दुल्लाह बताते हैं, यह इमारत आज लखनऊ की सिग्नेचर बिल्डिंग है. इसके निर्माण का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है. क्योंकि नवाब ने इस इमारत को अकाल के समय बनवाया था. जिससे कि लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार मिल सके. वहीं इस इमारत में ऐसे लोगों ने भी काम किया था जो शरीफ किस्म के थे, और दिन के उजाले में काम करने से शर्माते थे. इसलिए उन्हें रात में काम करना पड़ता था. उनका कहना था कि वर्तमान में सरकार को भी इस इमारत और नबाब की कार्यशैली से सिख लेनी चाहिए.


क्या है रूमी दरवाजे का इतिहास ?

नवाबों के शहर लखनऊ में आज भी हर कोने पर नवाबी शानो-शौकत की छाप देखी जा सकती है. अवध के चौथे नवाब आसफुद्दौला ने सन‍् 1775 में लखनऊ को अपनी सल्तनत का मरकजे मसनद बना लिया था. सन् 1784 में उन्होंने रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना शुरू कर दिया था. इनका निर्माण कार्य सन् 1786 में पूरा हुआ. इस विशाल दरवाजे का निर्माण अकाल राहत प्रोजेक्ट के तौर पर बनाया गया. यह दरवाजा 2 सालों में बनकर तैयार हुआ था. कहते हैं इसके निर्माण में उस जमाने में एक करोड़ की लागत आई थी. हालांकि जब रूमी दरवाजा बन रहा था, उस वक्त अवध में अकाल पड़ा हुआ था. इसलिए भूखों को रोटी देने की गरज से आसफुद्दौला ने इन इमारतों की विस्तृत योजना बनाई थी.

तुर्किश वास्तुकला का प्रतीक है रूमी दरवाजा

अवध के छोटे नवाब आसफुद्दौला के संसार प्रसिद्ध रूमी दरवाजे का वास्तुशिल्प किफायतउल्ला नाम के एक नक्‍शा नवीस ने बनाया था. यह वही कारीगर था, जिसने रूमी दरवाजे के चंद्राकार अर्धगुंबद का और इमामबाड़े की लदावतार छत की डाट को बखूबी संभाला था. इन इमारतों में लखौड़ी ईट और बादामी चूने का इस्तेमाल किया गया है. रूमी दरवाजा कान्सटिनपोल के एक प्राचीन दुर्ग द्वार की नकल पर बनवाया गया था. वहीं आज तक योरोपियन इतिहासकार इसे ‘टर्किश गेट’ कहते हैं. वैसे लखनऊ में निर्मित इमारतें किसी एक शैली से संबद्ध नहीं हैं. नवाब आसफ़उद्दौला के समय से ही इमारतों में गॉथिक कला का असर दिखने लगा था. रोम से अनायास जुड़ जाने वाला रूमी दरवाजा रोमन लिपि की तरह भले ही विदेशी वास्तु का प्रतीक मान लिया जाय, इसका मूल प्रभाव भारतीय कला का पोषण करता है.

हिंदू-मुस्लिम कला की प्रतीक है यह इमारत

अवध की चौथी नवाब आसफ़ुद्दौला ने रूमी दरवाजे का निर्माण 1786 इसी में कराया था जिसकी ऊंचाई 60 फीट है. इसके सबसे ऊपरी हिस्से पर एक अठपहलू छतरी बनी हुई है, जहां तक जाने के लिए रास्ता है. पश्चिम की ओर से रूमी दरवाजे की रूपरेखा त्रिपोलिया जैसी है, जबकि पूर्व की ओर से यह पंचमहल मालूम होता है. दरवाजे के दोनों तरफ तीन मंजिला हवादार परकोटा बना हुआ है, जिसके सिरे पर आठ पहलू वाले बुर्ज बने हुए हैं जिन पर गुंबद नहीं है. रूमी दरवाजे की सजावट निराली है जिसमें हिंदू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण देखने को मिलता है.

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'वर्तमान सरकारों को भी सीख देती है इमारत'

जिस तरीके से रूमी दरवाजे का निर्माण अकाल राहत प्रोजेक्ट के तहत लोगों को रोजगार देने के लिए किया गया. इस दरवाजे को बनाने में 22000 मजदूरों ने दिन-रात काम किया. वहीं वर्तमान में कोरोना जैसी महामारी के दौरान भी बेरोजगार लोगों को रोजगार के अवसर देने के लिए विशेष प्रयास की जरूरत है. जिससे कि वर्तमान समय में इस महामारी से उपजे हालात से निपटा जा सके.

Last Updated : May 20, 2021, 9:28 PM IST
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