लखनऊ : छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय (Chhatrapati Shahu Ji Maharaj University), कानपुर के कुलपति विनय पाठक के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज होने के बाद एसटीएफ की टीम ने आगरा के बाबा साहब आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के डॉ एपीजे अब्दुल कलाम प्राविधिक विश्वविद्यालय व ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में भी अपनी जांच शुरू कर दी है. इन विश्वविद्यालयों में भी विनय पाठक कुलपति रह चुके हैं, हालांकि विनय पाठक पर जो आरोप हैं, उनका अदालत में सिद्ध होना बाकी है. इसके बावजूद शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण पनपे भ्रष्टाचार की जड़ें कहीं गहरी हैं. खासतौर पर उच्च शिक्षा में व्यावसायीकरण तेजी से बढ़ा है. सरकारी संस्थान भी पैसा कमाने की मशीन बनते जा रहे हैं.
1990 के दशक से सरकारी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शुरू हुआ 'सेल्फ फाइनेंस' का रोग अब एक गंभीर बीमारी बन गया है. ज्यादातर सरकारी या सरकार द्वारा वित्त पोषित महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों ने 'सेल्फ फाइनेंस' कोर्स के नाम पर मोटी रकम वसूलना शुरू कर दिया है. यह वसूली दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. कहा नहीं जा सकता कि यह कहां जाकर रुकेगी. यह कॉलेज और विश्वविद्यालय अभ्यर्थियों की तादाद के हिसाब से सामान्य सीटों की संख्या बेहद कम रखते हैं. ऐसे में कई बहुत मेधावी अभ्यर्थी भी सामान्य कोटे में दाखिला नहीं ले पाते. मजबूरन उन्हें सेल्फ फाइनेंस की ओर जाना पड़ता है. ऐसे में अभिभावकों के सामने कोई विकल्प नहीं होता है. इन शिक्षण संस्थानों द्वारा 'सेल्फ फाइनेंस' के नाम पर की जा रही वसूली अभिभावकों के शोषण जैसी ही है. एक ही कक्षा में समान पढ़ाई के लिए अलग-अलग शुल्क वसूलना किसी को भी हजम नहीं होगा. खास बात यह है कि सरकारों ने भी इस ओर से अपनी आंखें मूंद ली हैं. यही कारण है कि संस्थाएं अपनी मनमानी करने के लिए उतारू हैं.
इतना ही नहीं. प्रदेश के तमाम उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के पद रिक्त हैं और वहां पर अस्थाई शिक्षकों को कम वेतन पर नियुक्त किया गया है. यानी शिक्षण संस्थान अभ्यर्थियों से तो मोटी रकम वसूल करते हैं, किंतु स्थाई शिक्षकों की नियुक्ति से बचते हैं. अस्थाई शिक्षकों को वेतन स्थाई के मुकाबले काफी कम देना पड़ता है. सेल्फ फाइनेंस कोर्सेज से अर्जित धन से सरकारी उच्च शिक्षण संस्थान तमाम निर्माण आदि के काम कराते हैं, जिनमें कई जगह मोटी कमीशनखोरी भी होती है. इसका सबसे बड़ा कारण है कि सरकारी डिग्री कॉलेजों में 1993 के बाद 2021-22 में नियमित प्राचार्यों की नियुक्ति प्रक्रिया आयोग पूरी कर पाया है. यानी लगभग तीस साल तक इन कॉलेजों का संचालन मैनेजमेंट और कार्यवाहक प्राचार्यों के भरोसे होता रहा, जिसके कारण सेल्फ फाइनेंस जैसी योजनाओं को बढ़ावा मिला. यही नहीं तमाम शिक्षण संस्थानों को होटलों की तरह अत्याधुनिक बनाया जा रहा है. विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के कार्यालयों और शिक्षकों के कमरों को एयर कंडीशनर्स, महंगे पर्दों और कार्पेट से चमकाया जा रहा है. कई बार तो आप को अचरज होगा कि आप विद्या के मंदिर में जा रहे हैं अथवा किसी होटल में. सबसे बड़ी बात यह है कि व्यावसायीकरण की इस दौड़ में शिक्षा का स्तर नदारद है. छात्र-छात्रों को जो शिक्षा दी जा रही है, उस पद्धति में कोई बदलाव नहीं आया है. यानी मोटी रकम खर्च करने के बावजूद बच्चों का भविष्य क्या होगा, कहना कठिन है.
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तीनों स्तरों यानी प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के अलग-अलग मंत्रालय हैं. इनका पूरा तंत्र है. इसके बावजूद किसी की नजर सरकारी या सरकार द्वारा वित्त पोषित महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों पर नहीं पड़ती. कोई अधिकारी या नेता कभी इन विरोधाभाषों पर सवाल नहीं उठाता. क्या सरकारी शिक्षण संस्थानों की स्थापना का उद्देश्य धनार्जन था? यदि ऐसा नहीं है, तो कोई इस पर अंकुश लगाने की पहल क्यों नहीं करता? ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की अपेक्षा करना अपने आप में बेमानी ही है. ताज्जुब नहीं कि शिक्षा के इन मंदिरों को कलंकित करने वाले और मामले सामने आएं और गिरफ्तारियां हों कई और गुरुजन सलाखों के पीछे पहुंचें.
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