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आखिर यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा नतीजों के बाद यह सामने आया कि वामपंथी दलों का दबदबा सिर्फ केरल तक सीमित होकर रह गया है. पश्चिम बंगाल जैसे राज्य, जहां करीब चार दशकों तक वाम दल सत्ता में रहे, वहां भी उनकी उपस्थिति सीमित हो गई है. अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले है मगर प्रदेश की बढ़ी हुई राजनीतिक सरगर्मी में वामपंथी दल नजर नहीं आ रहे हैं. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या यूपी की जनता ने 'लाल सलाम' को ही सलाम कर दिया है.

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Published : Jun 3, 2021, 9:19 PM IST

Updated : Jun 4, 2021, 10:11 PM IST

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

लखनऊ: हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा नतीजों के बाद यह सामने आया कि वामपंथी दलों का दबदबा सिर्फ केरल तक सीमित होकर रह गया है. पश्चिम बंगाल जैसे राज्य, जहां करीब चार दशकों तक वाम दल सत्ता में रहे, वहां भी उनकी उपस्थिति सीमित हो गई है. अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले है. यहां की सियासी गलियारे में राजनीतिक दलों की गतिविधियां बढ़ गई हैं. राजनीतिक सरगर्मी में वामपंथी दल नजर नहीं आ रहे हैं. वाम दल के नेता भले ही दावा करें कि यूपी में वाम दलों ने जमीनी आधार नहीं खोया है. मगर 2012 के बाद से वाम आंदोलन न तो सड़क पर दिख रहा है और न ही लेफ्ट पार्टियां विधानसभा में पहुंच रही हैं. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या यूपी की जनता ने 'लाल सलाम' को ही सलाम कर दिया है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

जब पूर्वांचल बन गया था वाम राजनीति का केंद्र

ऐसा नहीं है कि यूपी में हमेशा से ही वामपंथी दल हाशिये पर रहे. मगर यह भी सच है कि लेफ्ट पार्टियां यूपी की चुनावी राजनीति में कभी ताकतवर नहीं रहीं. 1957 में पहली बार उत्तर प्रदेश की जमीन पर लाल झंडा लहराया. तब विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक सीट जीती थी. वह सीट वाराणसी की कोलअसला विधानसभा सीट थी. इस जीत के बाद पूर्वांचल यूपी में वामपंथ का केंद्र बन गया था. पांच साल बाद वर्ष 1962 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 1967 के विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 13 सीटें जीतीं. 1974 के चुनाव में पार्टी की सीटों की संख्या 16 हो गईं थी.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

1967 में दमदार तरीके से आई थी माकपा मगर..

देश की आजादी के 20 साल बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने भी यूपी की सियासी जमीन पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी. मगर माकपा कभी भी ये उत्तर प्रदेश में दहाई का आंकड़ा छू नहीं पाई. माकपा के राज्य सचिव हीरालाल यादव बताते हैं कि 1967 के आम चुनाव में वाराणसी संसदीय सीट से सत्यनारायण सिंह ने कांग्रेस के दमदार नेता डॉ. रघुनाथ सिंह को हरा दिया. इसके बाद साल 1989 में कानपुर से सुभाषिनी अली ने संसदीय सीट जीतकर लाल परचम बुलंद कर दिया. साल 1985 के बाद हुए चुनावों में राजकिशोर सिंह ने बनारस से ही तीन बार जीत दर्ज की. साल 2002 में इलाहाबाद से रामकृपाल और आजमगढ़ से राम जगराम ने माकपा के लिए आखिरी बार विधानसभा चुनाव जीता.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

2007 के बाद से शुरू हुआ पतन

एक समय पूर्वांचल में चंद्रबली सिंह, रुस्तम सैटिन, राजकिशोर, झारखंडे राय जैसे दिग्गज वामपंथी नेताओं की तूती बोलती थी. अब पिछले 10 साल से विधानसभा चुनाव में वामदल अपना खाता खोलने तक को तरस गए. वाम दलों से आखिरी बार 2007 में सिर्फ एक व्यक्ति विधानसभा पहुंचा था. 2012 में प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में सीपीआई ने 51 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. पार्टी को मात्र 1.06 प्रतिशत वोट मिला था. सीपीएम ने भी 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, इसें भी कहीं से भी जीत नहीं मिली. सीपीएम उम्मीदवारों का वोट प्रतिशत 2.13 रहा था. 2017 में वामपंथी दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा, मगर आपसी मतभेद के कारण रिजल्ट शून्य ही रहा. वाम दलों का वोट प्रतिशत डेढ़ से दो प्रतिशत के बीच सीमित हो गया.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

संगठन तो है पर संसाधन नहीं

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रदेश के लगभग 65 जिलों में संगठन है, लेकिन सभी इकाइयां संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं. सिर्फ 54 जिलों में पार्टी के कार्यालय हैं. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव हीरालाल यादव बताते हैं कि सीपीएम का संगठन 50 जिलों में है. सभी जिलों में कमेटियां हैं. इनका प्रभाव उत्तर प्रदेश के 57 जिलों पर है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

कम हुई पार्टी से जुड़े छात्र संगठनों की ताकत

वामपंथ से जुड़ने वाले युवा, छात्र और महिला मोर्चों में सदस्यों की कुल संख्या में काफी गिरावट आई है. खुद सीपीएम के नेता मानते हैं कि युवा संगठन भारत की जनवादी नौजवान सभा और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) सक्रिय तो हैं, लेकिन पूरे प्रदेश में नहीं. निश्चित तौर पर छात्र संगठन कमजोर हुआ है. जहां तक बात महिला संगठन की है तो एडवा पूरे प्रदेश में काम कर रही है. लखनऊ, आगरा, चंदौली में बेहतर काम हो रहा है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

पार्टी ने सदस्यता अभियान नहीं

कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बताते हैं कि अन्य पार्टियों की तरह कम्युनिस्ट पार्टी में सदस्यता अभियान नहीं चलाया जाता है. यहां पर किसी आंदोलन में जो अभी प्रखर वक्ता होता है उसे मौका दिया जाता है. एक साल का ट्रेनिंग पीरियड होता है, उसके बाद अगर सफल हुए तो पार्टी के सदस्य बनते हैं नहीं तो कोई जगह नहीं.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

मंडल-कमंडल में टिक नहीं सकी वाम राजनीति

90 के दशक में जातीय राजनीति और राम मंदिर आंदोलन का असर यूपी समेत पूरे भारत में दिखने लगा. कम्युनिस्ट पार्टियां किसान एकता, मजदूर एकता, कर्मचारी एकता की बात करती रहीं. लेकिन यह वर्ग मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद वाम दलों से दूर चला गया. सीपीएम के राज्य सचिव हीरालाल यादव भी मानते हैं कि उनकी पार्टी को संसदीय राजनीति में वोट नहीं मिलता. उनके प्रत्याशी जीत नहीं पाते. उनका कहना है कि आंदोलन के कारण सीपीएम के प्रति जनता का लगाव है. पार्टी समस्याओं को लेकर आंदोलन कर रही है. जिस दिन जनता बात को समझेगी, कम्युनिस्ट पार्टी को वोट देगी और हम जीतकर सत्ता में आएंगे.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

दावा, आंदोलनों के जरिये फिर जोड़ लेंगे कार्यकर्ता

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ गिरीश का कहना है कि उत्तर प्रदेश हो या देश कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर नहीं हुआ है. संसदीय क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रतिनिधित्व जरूर घटा है. इसके कुछ कारण है. सबसे बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भूमंडलीकरण, निजीकरण, अव्यवस्था हावी हो गई है. भारत में सांप्रदायिक शक्तियों के कारण कम्युनिस्ट आंदोलन कुछ हद तक सीमित हुआ है. पार्टी जनता, किसानों और मजदूरों के सवालों पर लगातार आंदोलन कर रही हैं. उनका दावा है कि गरीब, किसान, मजदूर, दलित, अल्पसंख्यक, कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ जुड़ेंगे और फिर से पार्टी मजबूत होगी.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

वैचारिक और व्यवहारिक तौर से वामपंथ को बदलना होगा : प्रभात रंजन दीन

राजनीतिक विश्लेषक प्रभात रंजन दीन वाम दलों की इस हालत के लिए उनकी नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं. उनका कहना है कि जो दल अपने देश समाज और लोक संस्कृति से लगाव नहीं रखेगा उसका यही हश्र होगा. वाम दलों ने राजनीति, अर्थनीति और कूटनीति की विदेशी चिंतन धारा पर आंख मूंदकर भरोसा किया. इस कारण वामपंथी कभी जमीन पर रहे ही नहीं तो जड़ें कहां जमेंगी. जो जमीन थी, वह भी सूख गई है. उनका मानना है कि वामपंथियों ने जब रेडिकल इस्लामिक तत्वों से हाथ मिला कर सत्ता पर काबिज होने की रणनीति बनाई, तब वे उत्तर भारत में राजनीतिक, सैद्धांतिक और नैतिक रूप से पीछे छूटते रहे. अब वामपंथी दलों को समय का इंतजार करना होगा, लेकिन इसके पहले वैचारिक और व्यवहारिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आना होगा.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

लखनऊ: हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा नतीजों के बाद यह सामने आया कि वामपंथी दलों का दबदबा सिर्फ केरल तक सीमित होकर रह गया है. पश्चिम बंगाल जैसे राज्य, जहां करीब चार दशकों तक वाम दल सत्ता में रहे, वहां भी उनकी उपस्थिति सीमित हो गई है. अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले है. यहां की सियासी गलियारे में राजनीतिक दलों की गतिविधियां बढ़ गई हैं. राजनीतिक सरगर्मी में वामपंथी दल नजर नहीं आ रहे हैं. वाम दल के नेता भले ही दावा करें कि यूपी में वाम दलों ने जमीनी आधार नहीं खोया है. मगर 2012 के बाद से वाम आंदोलन न तो सड़क पर दिख रहा है और न ही लेफ्ट पार्टियां विधानसभा में पहुंच रही हैं. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या यूपी की जनता ने 'लाल सलाम' को ही सलाम कर दिया है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

जब पूर्वांचल बन गया था वाम राजनीति का केंद्र

ऐसा नहीं है कि यूपी में हमेशा से ही वामपंथी दल हाशिये पर रहे. मगर यह भी सच है कि लेफ्ट पार्टियां यूपी की चुनावी राजनीति में कभी ताकतवर नहीं रहीं. 1957 में पहली बार उत्तर प्रदेश की जमीन पर लाल झंडा लहराया. तब विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक सीट जीती थी. वह सीट वाराणसी की कोलअसला विधानसभा सीट थी. इस जीत के बाद पूर्वांचल यूपी में वामपंथ का केंद्र बन गया था. पांच साल बाद वर्ष 1962 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 1967 के विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 13 सीटें जीतीं. 1974 के चुनाव में पार्टी की सीटों की संख्या 16 हो गईं थी.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

1967 में दमदार तरीके से आई थी माकपा मगर..

देश की आजादी के 20 साल बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने भी यूपी की सियासी जमीन पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी. मगर माकपा कभी भी ये उत्तर प्रदेश में दहाई का आंकड़ा छू नहीं पाई. माकपा के राज्य सचिव हीरालाल यादव बताते हैं कि 1967 के आम चुनाव में वाराणसी संसदीय सीट से सत्यनारायण सिंह ने कांग्रेस के दमदार नेता डॉ. रघुनाथ सिंह को हरा दिया. इसके बाद साल 1989 में कानपुर से सुभाषिनी अली ने संसदीय सीट जीतकर लाल परचम बुलंद कर दिया. साल 1985 के बाद हुए चुनावों में राजकिशोर सिंह ने बनारस से ही तीन बार जीत दर्ज की. साल 2002 में इलाहाबाद से रामकृपाल और आजमगढ़ से राम जगराम ने माकपा के लिए आखिरी बार विधानसभा चुनाव जीता.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

2007 के बाद से शुरू हुआ पतन

एक समय पूर्वांचल में चंद्रबली सिंह, रुस्तम सैटिन, राजकिशोर, झारखंडे राय जैसे दिग्गज वामपंथी नेताओं की तूती बोलती थी. अब पिछले 10 साल से विधानसभा चुनाव में वामदल अपना खाता खोलने तक को तरस गए. वाम दलों से आखिरी बार 2007 में सिर्फ एक व्यक्ति विधानसभा पहुंचा था. 2012 में प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में सीपीआई ने 51 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. पार्टी को मात्र 1.06 प्रतिशत वोट मिला था. सीपीएम ने भी 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, इसें भी कहीं से भी जीत नहीं मिली. सीपीएम उम्मीदवारों का वोट प्रतिशत 2.13 रहा था. 2017 में वामपंथी दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा, मगर आपसी मतभेद के कारण रिजल्ट शून्य ही रहा. वाम दलों का वोट प्रतिशत डेढ़ से दो प्रतिशत के बीच सीमित हो गया.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

संगठन तो है पर संसाधन नहीं

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रदेश के लगभग 65 जिलों में संगठन है, लेकिन सभी इकाइयां संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं. सिर्फ 54 जिलों में पार्टी के कार्यालय हैं. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव हीरालाल यादव बताते हैं कि सीपीएम का संगठन 50 जिलों में है. सभी जिलों में कमेटियां हैं. इनका प्रभाव उत्तर प्रदेश के 57 जिलों पर है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

कम हुई पार्टी से जुड़े छात्र संगठनों की ताकत

वामपंथ से जुड़ने वाले युवा, छात्र और महिला मोर्चों में सदस्यों की कुल संख्या में काफी गिरावट आई है. खुद सीपीएम के नेता मानते हैं कि युवा संगठन भारत की जनवादी नौजवान सभा और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) सक्रिय तो हैं, लेकिन पूरे प्रदेश में नहीं. निश्चित तौर पर छात्र संगठन कमजोर हुआ है. जहां तक बात महिला संगठन की है तो एडवा पूरे प्रदेश में काम कर रही है. लखनऊ, आगरा, चंदौली में बेहतर काम हो रहा है.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

पार्टी ने सदस्यता अभियान नहीं

कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बताते हैं कि अन्य पार्टियों की तरह कम्युनिस्ट पार्टी में सदस्यता अभियान नहीं चलाया जाता है. यहां पर किसी आंदोलन में जो अभी प्रखर वक्ता होता है उसे मौका दिया जाता है. एक साल का ट्रेनिंग पीरियड होता है, उसके बाद अगर सफल हुए तो पार्टी के सदस्य बनते हैं नहीं तो कोई जगह नहीं.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

मंडल-कमंडल में टिक नहीं सकी वाम राजनीति

90 के दशक में जातीय राजनीति और राम मंदिर आंदोलन का असर यूपी समेत पूरे भारत में दिखने लगा. कम्युनिस्ट पार्टियां किसान एकता, मजदूर एकता, कर्मचारी एकता की बात करती रहीं. लेकिन यह वर्ग मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद वाम दलों से दूर चला गया. सीपीएम के राज्य सचिव हीरालाल यादव भी मानते हैं कि उनकी पार्टी को संसदीय राजनीति में वोट नहीं मिलता. उनके प्रत्याशी जीत नहीं पाते. उनका कहना है कि आंदोलन के कारण सीपीएम के प्रति जनता का लगाव है. पार्टी समस्याओं को लेकर आंदोलन कर रही है. जिस दिन जनता बात को समझेगी, कम्युनिस्ट पार्टी को वोट देगी और हम जीतकर सत्ता में आएंगे.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

दावा, आंदोलनों के जरिये फिर जोड़ लेंगे कार्यकर्ता

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ गिरीश का कहना है कि उत्तर प्रदेश हो या देश कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर नहीं हुआ है. संसदीय क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रतिनिधित्व जरूर घटा है. इसके कुछ कारण है. सबसे बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भूमंडलीकरण, निजीकरण, अव्यवस्था हावी हो गई है. भारत में सांप्रदायिक शक्तियों के कारण कम्युनिस्ट आंदोलन कुछ हद तक सीमित हुआ है. पार्टी जनता, किसानों और मजदूरों के सवालों पर लगातार आंदोलन कर रही हैं. उनका दावा है कि गरीब, किसान, मजदूर, दलित, अल्पसंख्यक, कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ जुड़ेंगे और फिर से पार्टी मजबूत होगी.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?

वैचारिक और व्यवहारिक तौर से वामपंथ को बदलना होगा : प्रभात रंजन दीन

राजनीतिक विश्लेषक प्रभात रंजन दीन वाम दलों की इस हालत के लिए उनकी नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं. उनका कहना है कि जो दल अपने देश समाज और लोक संस्कृति से लगाव नहीं रखेगा उसका यही हश्र होगा. वाम दलों ने राजनीति, अर्थनीति और कूटनीति की विदेशी चिंतन धारा पर आंख मूंदकर भरोसा किया. इस कारण वामपंथी कभी जमीन पर रहे ही नहीं तो जड़ें कहां जमेंगी. जो जमीन थी, वह भी सूख गई है. उनका मानना है कि वामपंथियों ने जब रेडिकल इस्लामिक तत्वों से हाथ मिला कर सत्ता पर काबिज होने की रणनीति बनाई, तब वे उत्तर भारत में राजनीतिक, सैद्धांतिक और नैतिक रूप से पीछे छूटते रहे. अब वामपंथी दलों को समय का इंतजार करना होगा, लेकिन इसके पहले वैचारिक और व्यवहारिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आना होगा.

यूपी की विधानसभा से क्यों गायब हो गईं लेफ्ट पार्टियां ?
Last Updated : Jun 4, 2021, 10:11 PM IST
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