कौशांबीः चाइनीज वस्तुओं के बहिष्कार के चलते कुम्हारों ने दिवाली पर दीये तो बना लिए, लेकिन बाजारों में इन दीयों की मांग कम है. क्योंकि बाजार में मिट्टी के दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग-बिरंगी चाइनीज इलेक्ट्रॉनिक झालरों ने ले ली है. दीयों की बिक्री नहीं होने पर कुम्हारों के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं.
तालाबों पर लोगों का कब्जा
अन्य दिनों में मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए जिन तालाबों से मिट्टी लाते थे, अब ज्यादातर उन तालाबों पर लोगों ने कब्जा कर लिया है. सरकार से भी किसी तरह की मदद नहीं मिलने पर मिट्टी के समान बनाने वाले कारीगरों में मायूसी है. आज से कुछ वर्ष पहले, जब दीपों का त्योहार दिवाली आती थी, तो कुम्हारों की दिनचर्या ही बदल जाती थी. महीनों पहले से कुम्हार पूरे परिवार के साथ मिलकर दीये तैयार करने में जुट जाते थे.
यही त्योहार देता था खुशी
कुम्हारों को साल भर रौशनी के पर्व का इंतजार रहता था. आखिर इंतजार भी क्यों न रहे, यही त्योहार उनकी मेहनत के बदले उन्हें खुशियां देता था. दीये बनाने से जो कमाई होती थी उससे साल भर पूरे परिवार का खर्च आराम से चलता था. समय बदला और हर कोई आधुनिकता के रंग में रंगने लगा. आधुनिकता की सबसे बड़ी मार यदि किसी को पड़ी है तो वह कुम्हार ही हैं. मिट्टी के दीये और दूसरे बर्तन बनाकर जीवन यापन करने वाले कुम्हारों का पुश्तैनी काम अब मंदा हो गया है.
कुम्हारों को नहीं भा रहा काम
तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हें सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छानना और उसके बाद गीली कर चाक पर तरह-तरह के बर्तन और दीये बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम है. इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण-पोषण होता है, लेकिन कुम्हारों को इनका पुश्तैनी काम अब इन्हें नहीं भा रहा है.
चाय दुकानों पर भी फाइबर
चाय की दुकान से लेकर मीठे पकवानों के दुकानों में प्लास्टिक के बर्तनों ने जगह बना ली है. मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को दिन भर मेहनत के बाद चंद रुपये ही हाथ आ पाते हैं.