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यहां शिव मंदिर में रावण ने भी टेका है मत्था, जानें कालेश्वर मंदिर का इतिहास - कानपुर देहात की खबरें

सावन का महीना भगवान शिव का महीना है. इसमें लोग माह भर शिव आराधना करते हैं. वहीं कानपुर देहात का कालेश्वर शिव मंदिर लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है. मंदिर का इतिहास रामायण काल से लेकर 1847 के गदर तक फैला हुआ है. इस मंदिर की प्रचीनता का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि इसका जिक्र स्कंद पुराण में भी हैं.

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इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.
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Published : Jul 19, 2020, 12:59 PM IST

कानपुर देहात: जिले के भोगनीपुर ब्लॉक में स्थित अमरौधा का शिव मंदिर सावन में लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है. इस मंदिर को कालेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. इसकी प्राचीनता का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि इस मंदिर का जिक्र पुराणों में भी है. इस मंदिर के शिवलिंग की श्रद्धा में कभी रावण ने भी सिर झुकाए हैं, तो कभी अंग्रेजों के चंगुल से देश को मुक्त कराने की जंग में रानी लक्ष्मीबाई ने पनाह ली. इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

शिवलिंग मिलने की कहानी भी है बेहद रोचक

कानपुर देहात के अमरौधा का यह मंदिर हजारों साल पुराना होने के साथ साथ अद्भुत भी है. इस मंदिर के बारे में स्कंद पुराण में भी चर्चा है. ये मंदिर कालांतर में विलुप्त हो गया और यहां पर जंगल झाड़ियां उग आईं. इस सिध्द शिवलिंग के वापस मिलने और इस मंदिर के बनने की भी कहानी बेहद रोचक है. मान्यता है कि इस इलाके में एक चरवाहा जमींदार की गाय चराने आया करता था. इन्हीं गायों में से एक रोज यहां आकर अपना सारा दूध निकाल दिया करती थी. गाय के दूध न देने पर जमींदार को यह शक हुआ कि चरवाहा गाय का दूध चुरा लिया करता है, तो उसको दण्डित करने का फैसला लिया गया. इसी बीच लोगों ने देखा कि गाय खुद झाड़ियों में खड़ी होकर अपना सारा दूध गिरा देती है. जब ये बात नगर में फैली, तो उस जगह पर खुदाई कराई गई. तब पता चला कि इस जगह पर एक शिवलिंग है. शिवलिंग को झाड़ियों में से निकाल कर जब नगर में स्थापित करने के लिए जब खुदाई कराई गई, तो शिवलिंग का छोर जमीन से खत्म ही नहीं हो रहा था. इस कारण इसे यही पर बने रहने दिया गया.

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इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

इतिहास रामायण व 1847 के गदर से भी जुड़ा

यह मंदिर रावण से जुड़ा हुआ भी बताया जाता है. मंदिर के बगल में स्थित तालाब में स्नान कर रावण यहां भगवान शिव की आराधना किया करता था. वहीं 1857 में अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाली रानी लक्ष्मीबाई ने भी यहां पर मत्था टेका है. मनहोत्रा परिवार की पीढ़ियां ही इस मंदिर का सालों से देखरेख कर रही हैं. आज तक इस मंदिर में जितने भी महंत हुए हैं, उन सभी की समाधियां इसी मंदिर में बनी हुई है. मान्यता है कि इस शिवलिंग के पूजन से भक्तजनों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इसकी प्रसिद्धि की वजह से सावन में इस मंदिर में अथाह भीड़ हुआ करती थी, लेकिन कोरोना की वजह से लागू नियमों की वजह से अभी लोग कम ही आ रहे हैं.

कानपुर देहात: जिले के भोगनीपुर ब्लॉक में स्थित अमरौधा का शिव मंदिर सावन में लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है. इस मंदिर को कालेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. इसकी प्राचीनता का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि इस मंदिर का जिक्र पुराणों में भी है. इस मंदिर के शिवलिंग की श्रद्धा में कभी रावण ने भी सिर झुकाए हैं, तो कभी अंग्रेजों के चंगुल से देश को मुक्त कराने की जंग में रानी लक्ष्मीबाई ने पनाह ली. इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

शिवलिंग मिलने की कहानी भी है बेहद रोचक

कानपुर देहात के अमरौधा का यह मंदिर हजारों साल पुराना होने के साथ साथ अद्भुत भी है. इस मंदिर के बारे में स्कंद पुराण में भी चर्चा है. ये मंदिर कालांतर में विलुप्त हो गया और यहां पर जंगल झाड़ियां उग आईं. इस सिध्द शिवलिंग के वापस मिलने और इस मंदिर के बनने की भी कहानी बेहद रोचक है. मान्यता है कि इस इलाके में एक चरवाहा जमींदार की गाय चराने आया करता था. इन्हीं गायों में से एक रोज यहां आकर अपना सारा दूध निकाल दिया करती थी. गाय के दूध न देने पर जमींदार को यह शक हुआ कि चरवाहा गाय का दूध चुरा लिया करता है, तो उसको दण्डित करने का फैसला लिया गया. इसी बीच लोगों ने देखा कि गाय खुद झाड़ियों में खड़ी होकर अपना सारा दूध गिरा देती है. जब ये बात नगर में फैली, तो उस जगह पर खुदाई कराई गई. तब पता चला कि इस जगह पर एक शिवलिंग है. शिवलिंग को झाड़ियों में से निकाल कर जब नगर में स्थापित करने के लिए जब खुदाई कराई गई, तो शिवलिंग का छोर जमीन से खत्म ही नहीं हो रहा था. इस कारण इसे यही पर बने रहने दिया गया.

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इस मंदिर का शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि स्वयंभू है.

इतिहास रामायण व 1847 के गदर से भी जुड़ा

यह मंदिर रावण से जुड़ा हुआ भी बताया जाता है. मंदिर के बगल में स्थित तालाब में स्नान कर रावण यहां भगवान शिव की आराधना किया करता था. वहीं 1857 में अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाली रानी लक्ष्मीबाई ने भी यहां पर मत्था टेका है. मनहोत्रा परिवार की पीढ़ियां ही इस मंदिर का सालों से देखरेख कर रही हैं. आज तक इस मंदिर में जितने भी महंत हुए हैं, उन सभी की समाधियां इसी मंदिर में बनी हुई है. मान्यता है कि इस शिवलिंग के पूजन से भक्तजनों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इसकी प्रसिद्धि की वजह से सावन में इस मंदिर में अथाह भीड़ हुआ करती थी, लेकिन कोरोना की वजह से लागू नियमों की वजह से अभी लोग कम ही आ रहे हैं.

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