गोरखपुरः देश में लोकतंत्र का मंदिर अगर संसद भवन कहा जाता है तो स्थानीय स्तर पर इसकी भूमिका नगर पंचायत, नगर पालिका और नगर निकाय निभाते हैं. यह व्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने वाले प्रमुख संस्थान के रूप में काम करते हैं. बात करें गोरखपुर नगर निगम की तो नगरीय व्यवस्था के इस केंद्र का कुल इतिहास 150 वर्ष पुराना है. अंग्रेजों के जमाने में म्युनिसिपल कमेटी के गठन के साथ नगर पालिका और नगर महापालिका होते हुए यह आज अपने नगर निगम के वजूद में खड़ा है.
इन डेढ़ सौ वर्षो में इसने जनता को सुविधाएं देने के साथ अपनी आय को बढ़ाने के कई मार्ग तय किये. कई राजनीतिक दलों का भविष्य भी निकाय चुनाव के माध्यम से परवान चढ़ा. कई घरानों की यह राजनीतिक पहचान बना तो लोगों की समस्याओं के समाधान का बड़ा केंद्र भी. एक बार फिर स्थानीय निकाय चुनाव होने जा रहा है. ऐसे में नगर निगम की भूमिका और राजनीतिक पहचान के लिए दावे और वादे का दौर शुरू हो गया है.
अंग्रेजों ने म्युनिसिपल कमेटी का किया था गठन
4 दिसंबर सन 1873 को अंग्रेजों ने म्युनिसिपल कमेटी का गठन कर इस शहर को शहरीकरण की भूमिका से जोड़ना शुरू किया. 20 सदस्यों से इसकी शुरुआत हुई थी, जिसका क्षेत्रफल तब 24 किलोमीटर का था. इसका इतिहास काफी पुराना है. अपने गठन के 43 वर्ष बाद 15 जून 1916 को तत्कालीन गवर्नर जनरल ने उत्तर प्रदेश म्युनिसिपल एक्ट का अनुमोदन किया. हालांकि इसके पहले वर्ष 1914 में पालिका के पहले अध्यक्ष मोहम्मद खलील बन चुके थे.
1996 में हुआ था नगर निगम का पहला चुनाव
मौजूदा समय में यह 150 साल का अपना सफर पूरा कर चुका है. इसका दायरा 225 किलोमीटर हो चुका है. नवंबर 1995 में यहां नगर निगम का पहला चुनाव हुआ, तब निगम में कुल 60 वार्ड थे. समय के साथ नाम में भी परिवर्तन हुआ. पहले नगर प्रमुख, फिर मेयर और मेयर से महापौर वर्ष 2002 में हुआ. गोरखपुर नगर पालिका शुरुवाती दिनों में श्रेणी तीन की थी. इसका कार्यालय रीड सहाब के धर्मशाला के पास पशु चिकित्सालय का मौजूदा भवन हुआ करता था. आजादी के पहले नगर में पानी की आपूर्ति के मुख्य स्रोत के रूप में राप्ती और रोहिन नदी को उपयोग में लाया गया.
1955 में हुई जल कल की स्थापना
इसके बाद प्रतिदिन 200 लीटर पानी प्रति व्यक्ति को उपलब्ध कराने के लिए वर्ष 1955 में जल कल की स्थापना की गई, तब नगर की जनसंख्या डेढ़ लाख थी. वर्ष 1956 में यह प्रथम श्रेणी की नगर पालिका घोषित हुई. इसे 15 वार्डों में बांटा गया और तब पालिका में 38 सदस्य होते थे. एक वार्ड से 2 सदस्य चुने जाते थे. 8 सदस्यों का चयन किया जाता था. इसमें सभी वर्गों की भागीदारी होती थी. नगर पालिका क्षेत्र में 1929 में बिजली की आपूर्ति शुरू हुई थी और झांसी इलेक्ट्रिकल कंपनी ने इस पर अपना काम किया था. इससे पहले प्रकाश की व्यवस्था पालिका तेल लैंप से करती थी. जबकि मौजूदा समय में 32 हजार से ज्यादा पद प्रकाश बिंदु हैं.
1949 में पालिका कमेटी को किया गया था भंग
नगर निगम की राजनीति के केंद्र रहे गोरखपुर शहर के चौधरी राम लखन चंद के परिवार में जहां इसके अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त हुआ तो वहीं इस परिवार की बहू अंजू चौधरी वर्ष 2006 में महापौर भी निर्वाचित हुई. ईटीवी भारत से बातचीत में अंजू चौधरी ने कहा कि अंग्रेजों के जमाने से लेकर मौजूदा समय तक, नगर पालिका, नगर महापालिका और नगर निकाय में बड़े परिवर्तन और विकास देखने को मिले हैं. हालांकि आजादी के बाद वर्ष 1949 में पालिका कमेटी को भंग कर दिया गया था और इसके सर्वांगीण विकास की नींव पड़ी थी.
नगर निगम को 1982 में मिला महापालिका का दर्जा
अंजू चौधरी ने बताया कि हाल्सीगंज में आधुनिक व्यवसायिक प्रतिष्ठान बना तो इसके साथ व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के निर्माण की शुरुआत हुई. लाल डिग्गी पार्क में दुकान, जल कल परिसर गोरखपुर में दुकान, टाउन हॉल पूर्वी गेट पर दुकानों का निर्माण कराया गया. अपने ऐसे इतिहास को समेटने वाले इस नगर निगम को 15 जून 1982 को नगर महापालिका का दर्जा प्राप्त हुआ. जनवरी 1988 को हुए चुनाव में 30 वोटों से 60 सभासद चुने गए और इन्हीं सभासदों ने अध्यक्ष के रूप में पवन बथवाल को अपना अध्यक्ष चुना. 30 मई 1994 को नगर महापालिका को नगर निगम का दर्जा दे दिया गया और पवन बथवाल नगर प्रमुख के पद पर आसीन हुए.
1994 में राजेंद्र शर्मा नगर प्रमुख निर्वाचित हुए
एक बार फिर स्थानीय निकाय चुनाव की रणभेरी बज चुकी है. नामांकन दाखिल करने के साथ-साथ सभी दलों ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा और चुनावी अभियान पर जोर दे दिया है. गोरखपुर में शहरी निकाय की व्यवस्था नगर पालिका परिषद से शुरू होती है, जो वर्ष 1994 में आते-आते नगर महापालिका, नगर निगम में तब्दील हो जाती है. इसके बाद से यह नगर निगम क्षेत्र, राजनीति का बड़ा अखाड़ा बनता है. देखा जाए तो पहले नगर प्रमुख के रूप में यहां से पवन बथवाल मनोनीत हो जाते हैं, जब चुनावी प्रक्रिया की बात आती है और सीधे जनता को इसका चयन करना होता है तो भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में राजेंद्र शर्मा यहां से नगर प्रमुख निर्वाचित होते हैं.
सन 2000 में आशा देवी बनीं नगर प्रमुख
इनका कार्यकाल वर्ष 1995 से 2000 का होता है, लेकिन वर्ष 2000 में नगर निगम की राजनीति और परिणाम पूरे देश में चौंकाने वाला रहा. जब भाजपा के इस गढ़ में भितरघात होने की वजह से किन्नर प्रत्याशी के तौर पर आशा देवी गोरखपुर की नगर प्रमुख, महापौर निर्वाचित हो जाती हैं. माना जाता है कि अगर भितरघात नहीं हुआ होता तो बीजेपी इस बार भी अपना प्रत्याशी जिता ले जाने में कामयाब हुई होती, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. इसके बाद के हुए वर्ष 2006 के चुनाव में अंजू चौधरी, भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी के रूप में महापौर निर्वाचित होती हैं. वह पढ़ी-लिखी महिला थी. गोरखपुर नगर क्षेत्र को संवारने के कई प्रोजेक्ट पर उन्होने सफल काम किया.
अंजू चौधरी ने बताया कि केंद्र प्रदेश में विरोधी दल की सरकार होने से कुछ प्रोजेक्ट सफल करा पाने में कामयाब नहीं हो पाईं. यह उस परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जो गोरखपुर में नगर पालिका की स्थापना, विकास और नई पहचान देने में अपनी बड़ी भूमिका अदा करता रहा है. इनके ससुर चौधरी राम लखन चंद वर्ष 1958 से 1963 तक नगर पालिका के चेयरमैन रहे. जिनके कार्यकाल में गोरखपुर में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन और न जाने कितने नेताओं नगर पालिका में कदम रखा था.
वर्ष 2012 के चुनाव में सत्या पांडेय बीजेपी प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ती हैं और जीत कर महापौर बनती हैं. वर्ष 2017 का जो स्थानीय निकाय चुनाव था. वह भारतीय जनता पार्टी के लिए बेहद खास बन गया. सीताराम जायसवाल गोरखपुर के महापौर निर्वाचित हुए. इस दौरान केंद्र, प्रदेश में बीजेपी की सरकार रही. मुख्यमंत्री के रूप में खुद योगी आदित्यनाथ रहे, इसलिए कई प्रकार के संसाधनों और व्यवस्थाओं को नया स्वरूप देने में गोरखपुर का नगर निगम सफल हुआ.
यहां तक कि अंग्रेजों के जमाने से जिस बिल्डिंग में नगर निगम का कार्यालय संचालित हो रहा था. वह करीब एक सौ तीस साल बाद, अपने नए भवन के रूप में करीब 35 करोड़ की लागत से बनकर तैयार हो गया है. जहां से आप नगर निगम की गतिविधियां प्रशासन व्यवस्था संचालित की जाती हैं.