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करगिल विजय दिवस: शहीद कमलेश सिंह के बूढ़े मां-बाप ने कहा- देश के नाम सैकड़ों बेटे कुर्बान

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Published : Jul 26, 2020, 9:41 PM IST

करगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खत्म हुआ था. करीब तीन महीने तक चले इस युद्ध में भारत की ओर से 527 सैनिक शहीद हुए थे. करगिल युद्ध में गाजीपुर के लाल शहीद कमलेश सिंह भी शहीद हुए थे. आइए जानते हैं शहीद कमलेश सिंह की शौर्य गाथा के बारे में ...

story of martyr kamlesh singh
शहीद कमलेश सिंह के माता पिता.

गाजीपुर: बात जब-जब देश पर मर मिटने की होती है तो बलिदानी माटी गाजीपुर ने सबसे आगे आकर नेतृत्व किया है. इसीलिए गाजीपुर को शहीदों की धरती भी कहते हैं. यहां शहादत की फेहरिस्त काफी लंबी है. इन शहीदों की पंक्ति में 15 जून 1999 को कमलेश सिंह ने भारत माता की रक्षा के लिए प्राणों की शहादत देकर खुद को अमर कर लिया.

story of martyr kamlesh singh
शहीद कमलेश सिंह.

गाजीपुर मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर बिरनों ब्लॉक का भैरोंपुर गांव है. यहां के रहने वाले कैप्टन अजनाथ सिंह के चार पुत्रों में से दूसरे नंबर के पुत्र कमलेश सिंह 31 जुलाई 1985 को बनारस रिक्रूटिंग ऑफिस से ईएमई में भर्ती हुए. इनका विवाह 13 मई 1986 को रंजना सिंह से हुआ था. शुरू से ही पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का जज्बा लेकर सेना में भर्ती हुए कमलेश सिंह की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सेवाकाल के दौरान साथ रहते हुए सेंट्रल स्कूल जामनगर (गुजरात) मे हुई थी. हाईस्कूल की शिक्षा उन्होंने नेहरू इंटर कॉलेज शादियाबाद से प्राप्त की थी.

story of martyr kamlesh singh
शहीद का परिवार.

शहीद के पिता कैप्टन अजनाथ सिंह ने बातचीत के दौरान उनकी स्मृति को नम आंखों से याद करते बताया कि वह अपने कार्य के प्रति ईमानदार और निपुण थे. उनकी ड्यूटी अधिकतर वीआईपी के साथ लगती थी. इनकी पोस्टिंग अप्रैल में 574 एफआरआई में भटिंडा में हुई. वहां से वह 7 जून को छुट्टी पर आने वाले थे, लेकिन बीच में 'ऑपरेशन विजय' शुरू हो जाने की वजह से छुट्टी नहीं मिली और वह 5 यार्ड की टुकड़ी के साथ करगिल चले आये.

करगिल में राज राइफल के साथ लड़ाई में हिस्सा लिया. वहीं 15 जून 1999 को जब राज राइफल दुश्मनों पर मौत बनकर टूटी, तभी एक बम शहीद कमलेश सिंह के शरीर से टकराया और मां भारती का यह लाल हमेशा के लिए सो गया. उनका पार्थिव शरीर 19 जून 1999 को गाजीपुर मुख्यालय ले आया गया. यहां से पार्थिव शरीर पैतृक गांव भैरोंपुर पहुंचा, वहां अंतिम दर्शन के बाद पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि रजागंज स्थित गाजीपुर घाट पर पूरे सैनिक सम्मान के साथ की गई.

ये भी पढ़ें: पीसीएस अधिकारी मणि मंजरी के परिजनों का दावा, कहा- मेरी बेटी आत्महत्या नहीं कर सकती

कैप्टन अजनाथ सिंह ने एक अद्भुत संयोग का जिक्र करते बताया कि जिस जगह पर मैंने लड़ाई में हिस्सा लिया था, उसी जगह पर बेटे ने अपनी शहादत देकर जिले का नाम रोशन करते हुए अमर हो गये. उनकी वीरता का सम्मान यहीं नहीं रुका. उनकी बहादुरी और अदम्य साहस के लिए भारत के तत्कलीन राष्ट्रपति ने उनको मरणोपरांत सेना मेडल से अलंकृत किया.

शहीद के बूढ़े पिता अजनाथ सिंह और माता केशरी देवी आज भी बेटे को पल-पल याद करते हैं, लेकिन गर्व से बेटे की शहादत को सलाम करते हैं. उन्होंने कहा कि देश के नाम एक बेटा क्या. सैकड़ों बेटे कुर्बान.

गाजीपुर: बात जब-जब देश पर मर मिटने की होती है तो बलिदानी माटी गाजीपुर ने सबसे आगे आकर नेतृत्व किया है. इसीलिए गाजीपुर को शहीदों की धरती भी कहते हैं. यहां शहादत की फेहरिस्त काफी लंबी है. इन शहीदों की पंक्ति में 15 जून 1999 को कमलेश सिंह ने भारत माता की रक्षा के लिए प्राणों की शहादत देकर खुद को अमर कर लिया.

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शहीद कमलेश सिंह.

गाजीपुर मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर बिरनों ब्लॉक का भैरोंपुर गांव है. यहां के रहने वाले कैप्टन अजनाथ सिंह के चार पुत्रों में से दूसरे नंबर के पुत्र कमलेश सिंह 31 जुलाई 1985 को बनारस रिक्रूटिंग ऑफिस से ईएमई में भर्ती हुए. इनका विवाह 13 मई 1986 को रंजना सिंह से हुआ था. शुरू से ही पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का जज्बा लेकर सेना में भर्ती हुए कमलेश सिंह की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सेवाकाल के दौरान साथ रहते हुए सेंट्रल स्कूल जामनगर (गुजरात) मे हुई थी. हाईस्कूल की शिक्षा उन्होंने नेहरू इंटर कॉलेज शादियाबाद से प्राप्त की थी.

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शहीद का परिवार.

शहीद के पिता कैप्टन अजनाथ सिंह ने बातचीत के दौरान उनकी स्मृति को नम आंखों से याद करते बताया कि वह अपने कार्य के प्रति ईमानदार और निपुण थे. उनकी ड्यूटी अधिकतर वीआईपी के साथ लगती थी. इनकी पोस्टिंग अप्रैल में 574 एफआरआई में भटिंडा में हुई. वहां से वह 7 जून को छुट्टी पर आने वाले थे, लेकिन बीच में 'ऑपरेशन विजय' शुरू हो जाने की वजह से छुट्टी नहीं मिली और वह 5 यार्ड की टुकड़ी के साथ करगिल चले आये.

करगिल में राज राइफल के साथ लड़ाई में हिस्सा लिया. वहीं 15 जून 1999 को जब राज राइफल दुश्मनों पर मौत बनकर टूटी, तभी एक बम शहीद कमलेश सिंह के शरीर से टकराया और मां भारती का यह लाल हमेशा के लिए सो गया. उनका पार्थिव शरीर 19 जून 1999 को गाजीपुर मुख्यालय ले आया गया. यहां से पार्थिव शरीर पैतृक गांव भैरोंपुर पहुंचा, वहां अंतिम दर्शन के बाद पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि रजागंज स्थित गाजीपुर घाट पर पूरे सैनिक सम्मान के साथ की गई.

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कैप्टन अजनाथ सिंह ने एक अद्भुत संयोग का जिक्र करते बताया कि जिस जगह पर मैंने लड़ाई में हिस्सा लिया था, उसी जगह पर बेटे ने अपनी शहादत देकर जिले का नाम रोशन करते हुए अमर हो गये. उनकी वीरता का सम्मान यहीं नहीं रुका. उनकी बहादुरी और अदम्य साहस के लिए भारत के तत्कलीन राष्ट्रपति ने उनको मरणोपरांत सेना मेडल से अलंकृत किया.

शहीद के बूढ़े पिता अजनाथ सिंह और माता केशरी देवी आज भी बेटे को पल-पल याद करते हैं, लेकिन गर्व से बेटे की शहादत को सलाम करते हैं. उन्होंने कहा कि देश के नाम एक बेटा क्या. सैकड़ों बेटे कुर्बान.

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