अंबेडकरनगर : देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी टाण्डा की पहचान बुनकर नगरी के रूप में है और यहां से बना कपड़ा विदेशों में भी जाता है, लेकिन बुनकर नगरी को पहचान दिलाने वाले हुनरमंदों की हालत खस्ता है. दिन-रात मेहनत करने के बावजूद बुनकर सिर्फ दो वक्त की रोटी की ही व्यवस्था कर पा रहे हैं.
एक शताब्दी पहले गुलाम भारत में टाण्डा में कपड़ा बुनाई का कार्य शुरू कर दिया था. टाण्डा हथकरघा उद्योग की पहचान बन गया. जैसे-जैसे समय परिवर्तन हुआ इस उद्योग का स्थान पावरलूम ने ले लिया और बड़े पैमाने पर कपड़ा बुनाई का कार्य होने लगा. धीरे-धीरे टाण्डा की पहचान बुनकर नगरी के रूप में होने लगी. समय के साथ कपड़ा व्यवसाय में परिवर्तन तो हुआ, लेकिन इसमें लगे मजदूरों के रहन-सहन और जीवन शैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. 12 घण्टे की मेहनत के बाद केवल दो जून की रोटी की ही व्यवस्था हो पाती है.
कपड़ा बुनाई के व्यवसाय में लगे मजदूरों का कहना है कि अब भी उन्हें दिहाड़ी मिलती है. यदि बिजली है तो कार्य होगा और मजदूरी मिलेगी और यदि बिजली न आई तो उस दिन की दिहाड़ी गायब, मुश्किल से दिन में 200 से 300 रुपये की कमाई हो पाती है. जिससे केवल पेट भरा जा सकता है, इस कमाई से बच्चों की पढ़ाई और उनके सपनों को पूरा करना सपने जैसा है.