वाराणसी : क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा, जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा. कबीर कहते है काशी हो या फिर मगहर का ऊसर, मेरे लिए दोनों ही एक जैसे हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम बसते हैं. अगर कबीर काशी में शरीर का त्याग करके मुक्ति प्राप्त कर ले तो, इसमें राम का कौन सा एहसान है. आज कबीर दास की 623वीं जयंती है, जिसे कबीर प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है.
काशी से कबीर का रिश्ता बेहद खास है, लेकिन कबीर ने हमेशा से समाज में फैली कुरीतियों और भारतीयों को दूर करने का प्रयास किया, जिसकी वजह से उनके लिए जीवन की सबसे खास काशी अंतिम समय छूट गई. यानी पूरा जीवन काशी में बिताने वाले कबीर ने अपने जीवन के अंतिम समय मोक्ष की नगरी को छोड़ मगहर में अपने प्राण त्यागे.
कहीं सुनी बातों को झुठलाने का किया काम
मगहर के बारे में यह दंत कथा प्रचलित थी कि काशी मरने के बाद मोक्ष मिलता है, वहीं मगहर में मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और इंसान नया जन्म जानवर के रूप में लेता है. इन्हीं भ्रांतियों को खत्म करने के लिए कबीर दास ने अपना जीवन काशी में बिताया और अंतिम समय में वह मगहर चले गए. कबीर का जन्म 1398 ईसवीं ज्येष्ठ पूर्णिमा पर काशी में और मृत्यु 1518 ईसवीं मगहर में हुई थी. सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास वाराणसी में पैदा हुए और लगभग पूरा जीवन उन्होंने वाराणसी यानी काशी में ही बिताया, लेकिन जीवन के आखिरी समय वो मगहर चले आए और अब से पांच सौ साल पहले वर्ष 1518 में यहीं उनकी मृत्यु हुई.
धर्म को लेकर मतभेद
कबीर किस जाति, किस धर्म के थे यह किसी को नहीं पता. लहरतारा के एक तालाब के किनारे जब कबीर एक कमल में नीरू और नीमा नामक जुल्हा यानि मुस्लिम दंपति को मिले तब उनका लालन-पालन इसी दंपति ने किया. कबीर को मुस्लिम कहा जाता है, लेकिन कमल पुष्प में मिलने की कथा उन्हें हिंदू बताती है. इन दो अलग-अलग मान्यताओं की वजह से कबीर की जाति और धर्म को लेकर हमेशा से मतभेद रहा है. कबीर पंथ की शुरुआत काशी के लहरतारा से ही मानी जाती है.
- संवत 1455 में ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा तिथि पर हुआ था भक्तिकाल के महान कवि संत कबीरदास का जन्म.
- संत कबीरदास ने अपने जीवन में कई सुंदर महाकाव्यों की रचना की है जो आज भी प्रासंगिक हैं.
- संत कबीरदास भारतीय मनीषा के पहले विद्रोही जाने जाते हैं, उन्होंनें अंधविश्वास के खिलाफ विद्रोह किया था.
मोक्ष पाना कर्मो पर निर्भर, किसी शहर पर नहीं
कबीर प्राकट्य स्थली के महान आचार्य गोविंद दास का कहना है कि कबीर समाज में फैली भ्रांतियां और कुरीतियों को खत्म करने के लिए लगातार संघर्षरत थे. लहरतारा में उनका प्रकट होना और काशी के कबीरचौरा इलाके में अपने जीवन के 20 साल बिताने के बाद काशी से ही कबीर पंथ को आगे ले जाने की शुरुआत निश्चित तौर पर काशी से की. इसलिए काशी कबीर को बेहद नजदीक लाती है, लेकिन अपने जीवन का पूरा वक्त काशी में बिताने वाले कबीर ने जीवन के अंत में काशी में मोक्ष मिलने की बात को गलत साबित करने के लिए काशी छोड़ दिया, क्योंकि कबीर साहब मानते थे कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मोक्ष उसके कर्मों की वजह से मिलता है. जीवन भर पाप कीजिए और अंत में काशी आकर अपनी मृत्यु प्राप्त कर लीजिए तो फिर मोक्ष संभव नहीं है.
कबीर यह मानते थे कि वह राम के भक्त हैं और राम नाम ही मोक्ष का सबसे बड़ा आधार है. यदि राम का नाम लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है तो, उनके प्राण काशी में छूटे या मगहर में मोक्ष मिल जाता हैं, लेकिन बिना कर्म अच्छे किए मोक्ष पाना सिर्फ कही सुनी बातें हैं, जिसे पुराणों में वर्णित नहीं किया जा सकता. इसलिए कबीर ने मोक्ष की नगरी को छोड़कर मगहर को चुना अपने मृत्यु के लिए.