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अधिक मुनाफे के लिए किसानों को फिर से अपनानी होगी परम्परागत खेती : कृषि वैज्ञानिक - Agricultural scientist Dheeraj Singh

जनसंख्या में लगातार बढ़ोतरी और कम होती खाद्य श्रंखला विश्व के सामने एक कड़ी चुनौती बनकर उभर रहा है. इस चुनौती से लड़ने के लिए अब विश्व के सभी कृषि वैज्ञानिक एकजुट होने की तैयारी कर रहे हैं. जर्मनी से भारत लौटे कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह ने ईटीवी भारत से खास बातचीत करते हुए कई विषयों पर सुझाव दिए.

कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह से खास बातचीत, agricultural scientist Dheeraj Singh
कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह
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Published : Feb 15, 2020, 1:30 PM IST

पाली. जर्मनी में गत दिनों विश्व के जाने-माने कृषि वैज्ञानिकों की एक कार्यशाला का आयोजन किया गया था. जिसमें एशिया का प्रतिनिधित्व पाली के कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह ने किया. उन्होंने इस कार्यशाला में राजस्थान के केर-कुमट को प्रस्तुत किया और सभी वैज्ञानिकों को अपने देश की वनस्पति को बढ़ावा देने के बारे में बताया.

कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह से खास बातचीत

धीरज सिंह के कैर-कुमटिया सांगरी के गुण और उसकी उत्पादन क्षमता के बारे में समझाने के बाद विश्व के अन्य कृषि वैज्ञानिकों ने अब उसके जेनेटिक मैटेरियल को अपनी खेती में डालने की तैयारी की है. कृषि वैज्ञानिक ने ईटीवी भारत के साथ विशेष बातचीत में कई मुद्दों पर अपनी राय दी. उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे लोगों का कृषि के प्रति रुझान कम हो रहा है. इसका कारण किसानों को खेती में कम मुनाफा होना भी है.

इसे बढ़ाने के लिए किसानों को कम लागत में अधिक मुनाफा जैसी तकनीक अपनानी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि इसके लिए किसानों को एक ही खेत में अलग-अलग फसलों का उत्पादन करना होगा. कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि किसान उत्पादन के चक्कर में अपने खेतों में ही पेस्टिसाइड का उपयोग कर और अधिक रुपए खर्च कर रहा है. लेकिन परंपरागत रूप से खेती करने पर किसान को कम खर्च में अधिक पैदावार होती है.

पढ़ें- रियलिटी चेक : सरकारी दफ्तर में अफसर पी रहे RO का पानी, आम लोगों के लिए है गंदगी से भरी टंकी

उन्होंने बताया कि देश में जिस प्रकार से पेस्टिसाइड का उपयोग हो रहा है यह आम आदमी के लिए एक घातक परिणाम दे रहा है. ऐसे में एक बार फिर से देश को अपनी पुरानी परंपरागत खेती पर निर्भर होना पड़ेगा. धीरज सिंह ने कहा कि जिस प्रकार से पुराने समय में बीज का संरक्षण कर आगे उस बीज को तैयार किया जाता था. इसमें किसी भी प्रकार का कीट प्रकोप नहीं रहता था. साथ ही जैविक पद्धति से कीटनाशक तैयार किए जाते थे. उसमें उत्पादन और फसलों की गुणवत्ता दोनों बरकरार रहती थी.

कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह से खास बातचीत

उन्होंने कहा कि किसानों को एक बार फिर से इसी पद्धति पर अपनी खेती को लाना होगा. कृषि वैज्ञानिक ने खर्चिया गेहूं के बारे में भी विशेष तौर पर बताया. उन्होंने बताया कि पूर्वजों की ओर से लगातार बेहतर बीज तैयार करने से आज खर्चिया गेहूं का उपयोग विश्व के सभी देश कर रहे हैं. धीरज ने बताया कि इसी प्रकार से अपनी परंपरागत फसलों का उपयोग किया जाए तो किसानों को बेहतर फायदा मिल सकता है.

पढ़ें- जैसलमेर : पक्षी पर्यटन को लग सकते हैं पंख, बर्ड फेयर में पहली बार दिखे 36 प्रजातियों के 1545 प्रवासी पक्षी

साथ ही युवाओं के कृषि के प्रति कम हो रहे रुझान के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में गांव में युवाओं को वह सुविधा नहीं मिल पा रही है, जो मिलनी चाहिए. इसी कारण से युवा सुविधाओं और शिक्षा के लिए अपने गांव से दूर और खेती से दूर होता जा रहा है. अगर गांव को शहर की तरह ही सुविधाजनक कर दिया जाए तो कोई भी युवा अपना गांव नहीं छोड़ेगा और अपनी मर्जी से नई तकनीकी से अपने खेतों में उत्पादन करेगा. जिससे देश में कम हो रही खाद्य श्रंखला में काफी मदद मिलेगी.

पाली. जर्मनी में गत दिनों विश्व के जाने-माने कृषि वैज्ञानिकों की एक कार्यशाला का आयोजन किया गया था. जिसमें एशिया का प्रतिनिधित्व पाली के कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह ने किया. उन्होंने इस कार्यशाला में राजस्थान के केर-कुमट को प्रस्तुत किया और सभी वैज्ञानिकों को अपने देश की वनस्पति को बढ़ावा देने के बारे में बताया.

कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह से खास बातचीत

धीरज सिंह के कैर-कुमटिया सांगरी के गुण और उसकी उत्पादन क्षमता के बारे में समझाने के बाद विश्व के अन्य कृषि वैज्ञानिकों ने अब उसके जेनेटिक मैटेरियल को अपनी खेती में डालने की तैयारी की है. कृषि वैज्ञानिक ने ईटीवी भारत के साथ विशेष बातचीत में कई मुद्दों पर अपनी राय दी. उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे लोगों का कृषि के प्रति रुझान कम हो रहा है. इसका कारण किसानों को खेती में कम मुनाफा होना भी है.

इसे बढ़ाने के लिए किसानों को कम लागत में अधिक मुनाफा जैसी तकनीक अपनानी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि इसके लिए किसानों को एक ही खेत में अलग-अलग फसलों का उत्पादन करना होगा. कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि किसान उत्पादन के चक्कर में अपने खेतों में ही पेस्टिसाइड का उपयोग कर और अधिक रुपए खर्च कर रहा है. लेकिन परंपरागत रूप से खेती करने पर किसान को कम खर्च में अधिक पैदावार होती है.

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उन्होंने बताया कि देश में जिस प्रकार से पेस्टिसाइड का उपयोग हो रहा है यह आम आदमी के लिए एक घातक परिणाम दे रहा है. ऐसे में एक बार फिर से देश को अपनी पुरानी परंपरागत खेती पर निर्भर होना पड़ेगा. धीरज सिंह ने कहा कि जिस प्रकार से पुराने समय में बीज का संरक्षण कर आगे उस बीज को तैयार किया जाता था. इसमें किसी भी प्रकार का कीट प्रकोप नहीं रहता था. साथ ही जैविक पद्धति से कीटनाशक तैयार किए जाते थे. उसमें उत्पादन और फसलों की गुणवत्ता दोनों बरकरार रहती थी.

कृषि वैज्ञानिक धीरज सिंह से खास बातचीत

उन्होंने कहा कि किसानों को एक बार फिर से इसी पद्धति पर अपनी खेती को लाना होगा. कृषि वैज्ञानिक ने खर्चिया गेहूं के बारे में भी विशेष तौर पर बताया. उन्होंने बताया कि पूर्वजों की ओर से लगातार बेहतर बीज तैयार करने से आज खर्चिया गेहूं का उपयोग विश्व के सभी देश कर रहे हैं. धीरज ने बताया कि इसी प्रकार से अपनी परंपरागत फसलों का उपयोग किया जाए तो किसानों को बेहतर फायदा मिल सकता है.

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साथ ही युवाओं के कृषि के प्रति कम हो रहे रुझान के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में गांव में युवाओं को वह सुविधा नहीं मिल पा रही है, जो मिलनी चाहिए. इसी कारण से युवा सुविधाओं और शिक्षा के लिए अपने गांव से दूर और खेती से दूर होता जा रहा है. अगर गांव को शहर की तरह ही सुविधाजनक कर दिया जाए तो कोई भी युवा अपना गांव नहीं छोड़ेगा और अपनी मर्जी से नई तकनीकी से अपने खेतों में उत्पादन करेगा. जिससे देश में कम हो रही खाद्य श्रंखला में काफी मदद मिलेगी.

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