करौली. आधुनिकता के दौर में बदलते परिवेश के बीच वैसे तो करौली शहर में रियासत कालीन सांझी की परंपरा लगभग लुप्त हो गई है, लेकिन यहां के प्रसिद्ध मदनमोहन जी मंदिर में यह परंपरा आज भी कायम है. जहां श्राद्ध पक्ष के दौरान एक पखवाड़े तक भगवान श्री कृष्ण के विभिन्न लीला स्थलों का चित्रण सांझी के रूप में किया जाता है. ब्रज संस्कृति से ओतप्रोत करौली में रियासत काल से ही सांझी की परंपरा चली आ रही है.
करौली के इतिहासकारों के अनुसार करीब 3 दशक पहले तक श्राद्ध पक्ष के दौरान करौली में अनेक घरों में सांझी बनाने की परंपरा रही है. घरों के बाहर चबूतरों पर सांझी बनाई जाती थी. वहीं अन्य घरों में बालिकाएं दीवारों पर गोबर से सांझी बनाती. करौली के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले सांझी के प्रति खूब उत्साह रहता था. बड़ी सांझी बनाने के लिए किसी जगह पर दिनभर तैयारियां चलती थी. घरों में तीसरे पहर से बालिकाएं सांझी की तैयारियां में जुट जाती थी. शाम को सांझी का पूजन किया जाता. सजाने के लिए गुलाल के अलावा कोयले, चावल आदि को पीसकर अलग-अलग रंग बनाए जाते. कपड़े में छानकर सांझी में भरे जाते थे. शाम को पूजन के दौरान सांझी गीत गूंजते थे.
मदनमोहन जी मंदिर में आज भी बिखरती है सांझी की छटा
अब सांझी की परंपरा इलाके के प्रसिद्ध मदनमोहनजी मंदिर में ही देखने को मिलती है. सांझी में ब्रज चौरासी कोस में आने वाले भगवान श्रीकृष्ण के स्थलों को रंगों से आकार देकर सजाया जाता है, जिन्हें देखने के प्रति लोगों में उत्साह नजर आता है. बुजुर्गों के अनुसार मदनमोहनजी मंदिर की सांझी ब्रजमंडल में भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थलों से जुड़ी हैं. सांझी में प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ी अलग-अलग प्रकार की झांकी बनाई जाती हैं और अंतिम दिन कोट बनाया जाता है. इसमें राधा कृष्ण की युगल झांकी होती है. पित्र मोक्ष अमावस्या को संजा पर्व का समापन होता है.
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प्रतिदिन बिखरती है बृज की छटा
प्रसिद्ध मदनमोहनजी के मंदिर की सांझी बृजमंडल में श्री कृष्ण की लीला स्थली से जुड़ी हुई हैं. सांझी में प्रतिदिन पूर्णिमा-कमल, प्रतिपदा-मधुवन, तालवन, कुमोदवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, गोवर्धन, रामवन, बरसाना, नंदगाव, कोकिला वन, शेषशायी कोड़ानाथ, वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, दाऊजी एवं अन्तिम दिन कोट बनाया जाता है. इसमें राधा-कृष्ण की युगल झांकी होती है. पित्र मोक्ष अमावस्या को संजा पर्व का समापन होता है. बुजुर्ग बताते हैं कि सांझी में बृज 84 कोस की परिक्रमा में आने वाले भगवान कृष्ण की लीला स्थलों को दर्शाया जाता है.
चुटकी के सहारे बिखेरे जाते है सांझी में रंग
मंदिर के सेवकों ने बताया कि 16 दिन तक अलग-अलग प्रकार के कृष्ण लीलाओं के रंग बिखेरे जाते हैं. सांझी में खास बात यह रहती है कि चुटकी के सहारे रंगों को भरा जाता है. उन्होंने बताया कि इस बार कोरोना संकट के चलते सरकार की गाइड लाइन के अनुसार सांझी बनाने की परंपरा को निभाया जा रहा है. हालांकि शुरू के कुछ दिन मंदिर बंद होने की वजह से मंदिर के पुजारी और सेवक ही सांझी की आरती और दर्शनों का लाभ ले पाए हैं, लेकिन सोमवार से सरकार की मन्दिर खोलने की स्वीकृति के बाद श्रद्धालु भी सांझी का आनंद ले रहे है.
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पहले घर-घर में बनती थी सांझियां
शहर के बुजुर्ग बताते हैं कि करीब तीन दशक पहले तक करौली में अनेक घरों में सांझी बनाने की परम्परा प्रचलित थी. जहां कई घरों में घरों के बाहर चबूतरों पर सांझी बनाई जाती थी, वहीं अनेक घरों में बालिकाएं दीवारों पर गोबर से सांझी बनाकर सायंकाल पूजन करती थीं. बुजुर्गों के अनुसार सांझी के लिए तीसरे पहर से ही तैयारी शुरू हो जाती और कई घंटों की मेहनत के बाद सांझी बनती है. इसमें विभिन्न रंगों को बनाकर आकृति उकेरी जाती थी. पूजन के दौरान गीत गाए जाते थे.
संध्या को गूंजते सांझी गीत
बुजुर्गों व इतिहासकारों के अनुसार बृज क्षेत्र के वैष्णव मंदिरों से यह संस्कृति विकसित हुई. अभी गांवों में यह परम्परा देखने को मिलती है. यहां बालिकाएं राधा-कृष्ण की आकृतियां गोबर से बनाकर अपने घरों की दीवारों पर चिपकाती और सायंकाल उनका पूजन करती हैं. ऐसी भी मान्यता है कि इस दौरान कन्याएं सांझी को वरदायिनी देवी के रूप में पूजती हैं. इस दौरान सांझी गीत भी गाए जाते हैं.