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दिवाली विशेष: आज भी यहां के कुम्हार 'मुद्रा विनिमय प्रणाली' के बदले अपनाते हैं 'वस्तु विनिमय प्रणाली'

झालावाड़ जिले के सरड़ा गांव में पुराने जमाने से चली आने वाली परंपरा आज भी जीवित हैं. यहां रहने वाले कुम्हार परिवार के लोग आज भी मिट्टी के बर्तन बनाते हैं. इतना ही नहीं इनको बेचकर पैसे नहीं बल्कि पुराने जमाने में चलने वाली वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत अपने रोजमर्रा के सामान लेते हैं, जिससे की उनका उपयोग कर सकें.

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Published : Oct 24, 2019, 4:35 PM IST

मिट्टी के बरतन बेचकर लेते है घरेलु सामान,

झालावाड़. अकलेरा क्षेत्र में सरड़ा गांव के कुम्हार समाज आज भी मिट्टी के काम पर ही निर्भर हैं. मिट्टी के बर्तनों को बेचकर ये पैसे नहीं, बल्कि सामान लेते है. यानि कि इस गांव के कुम्हार परिवार आज भी मुद्रा विनिमय प्रणाली नहीं पुराने जमाने में चलने वाली वस्तु विनिमय प्रणाली अपनाते हैं. इन परिवारों के बच्चें हों या बुढ़े सभी लोग इस सीजन में चाक पर मिट्टी के दिए बनाने में जुट जाते हैं. इन परिवारों का कहना है कि उन्हें अभी भी अपनी मिट्टी से प्यार है और जब तक जिंदा हैं, तब तक पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस कला को संजोए रखेंगे.

यहां के कुम्हार परिवार मिट्टी के बर्तन के बदले नहीं लेते रुपए

ये परिवार दीये बनाने के लिए 3 किलोमीटर दूर से मिट्टी लाते हैं और उसे कूटकर बारीक बनाते हैं. उसके बाद उसे गीला करके चाक पर रखते हैं और उसी से दीपक, मटकी, कलश सहित अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन बनाते हैं. वहीं बड़ी विडंबना ये है कि इन लोगों की इतनी मेहनत के बाद भी दिनों-दिन मिट्टी के दीयों और बर्तनों की बिक्री कम होती जा रही है. इनका कहना है कि पहले मिट्टी के दीये जलाकर सजावट की जाती थी, लेकिन आजकल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से सजावट की जाती है. इसकी वजह से मिट्टी के दीयों की बिक्री बहुत कम हो गई है.

यह भी पढ़ेंः स्पेशल रिपोर्ट: सर्राफा कारोबार पर थी मंदी की मार, व्यापारियों को आस - धनतेरस से बाजार पकड़ेगा रफ्तार

इस प्रकार बनाते है दिए

किशनलाल ने बताया कि कस्बे से 3 किलोमीटर दूर खजूरी से मिट्टी लाते हैं. मिट्टी को कूटकर बारीक बनाते हैं. मिट्टी को बारीक करने के बाद उसमें लीद मिलाकर गिला करने के बाद चाक और गडी की सहायता से दीपक, मटकी, कलश, सहित कई कलाकृतियां बनाते हैं.

दीपक, मटकी, कलश के बदले लेते हैं अनाज

आधुनिक दौर में सभी जगह एक ओर जहां मुद्रा विनियम प्रणाली प्रचलित है, वहीं सरड़ा कस्बे में आज भी वस्तु विनियम प्रणाली देखने को मिल रही है. किशनलाल प्रजापत ने बताया कि दीपावली पर दीपक, मटकी देकर लोगों से उनके बदले में अनाज लेने की परंपरा है.

यह भी पढ़ेंः दीपावली विशेष : चाइनीज लाइटों के आगे दीपक की 'लो' होने लगी फीकी, दीपों पर महंगाई की मार ने भी बढ़ा दी मुश्किलें​​​​​​​

खरीदारों की संख्या हुई कम

संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है. दीवाली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब और इलेक्ट्रानिक सामानों का घरों में उपयोग किया जाने लगा है. इसी वजह से मिट्टी के दीपक के खरीदार पहले की तुलना में काफी कम हो चुके हैं. पहले घरों में दीपक जलाकर सजावट की जाती थी और अब इलेक्ट्रानिक सामानों से सजावट की जाने लगी हैं. 75 वर्षीय किशनलाल ने कहा कि उनके परिश्रम और कला का सम्मान होना चाहिए. यदि लोग उनकी कलाकृतियों की खरीदारी करेंगे तो इससे उनकी आमदनी को संबल मिलेगा.

झालावाड़. अकलेरा क्षेत्र में सरड़ा गांव के कुम्हार समाज आज भी मिट्टी के काम पर ही निर्भर हैं. मिट्टी के बर्तनों को बेचकर ये पैसे नहीं, बल्कि सामान लेते है. यानि कि इस गांव के कुम्हार परिवार आज भी मुद्रा विनिमय प्रणाली नहीं पुराने जमाने में चलने वाली वस्तु विनिमय प्रणाली अपनाते हैं. इन परिवारों के बच्चें हों या बुढ़े सभी लोग इस सीजन में चाक पर मिट्टी के दिए बनाने में जुट जाते हैं. इन परिवारों का कहना है कि उन्हें अभी भी अपनी मिट्टी से प्यार है और जब तक जिंदा हैं, तब तक पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस कला को संजोए रखेंगे.

यहां के कुम्हार परिवार मिट्टी के बर्तन के बदले नहीं लेते रुपए

ये परिवार दीये बनाने के लिए 3 किलोमीटर दूर से मिट्टी लाते हैं और उसे कूटकर बारीक बनाते हैं. उसके बाद उसे गीला करके चाक पर रखते हैं और उसी से दीपक, मटकी, कलश सहित अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन बनाते हैं. वहीं बड़ी विडंबना ये है कि इन लोगों की इतनी मेहनत के बाद भी दिनों-दिन मिट्टी के दीयों और बर्तनों की बिक्री कम होती जा रही है. इनका कहना है कि पहले मिट्टी के दीये जलाकर सजावट की जाती थी, लेकिन आजकल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से सजावट की जाती है. इसकी वजह से मिट्टी के दीयों की बिक्री बहुत कम हो गई है.

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इस प्रकार बनाते है दिए

किशनलाल ने बताया कि कस्बे से 3 किलोमीटर दूर खजूरी से मिट्टी लाते हैं. मिट्टी को कूटकर बारीक बनाते हैं. मिट्टी को बारीक करने के बाद उसमें लीद मिलाकर गिला करने के बाद चाक और गडी की सहायता से दीपक, मटकी, कलश, सहित कई कलाकृतियां बनाते हैं.

दीपक, मटकी, कलश के बदले लेते हैं अनाज

आधुनिक दौर में सभी जगह एक ओर जहां मुद्रा विनियम प्रणाली प्रचलित है, वहीं सरड़ा कस्बे में आज भी वस्तु विनियम प्रणाली देखने को मिल रही है. किशनलाल प्रजापत ने बताया कि दीपावली पर दीपक, मटकी देकर लोगों से उनके बदले में अनाज लेने की परंपरा है.

यह भी पढ़ेंः दीपावली विशेष : चाइनीज लाइटों के आगे दीपक की 'लो' होने लगी फीकी, दीपों पर महंगाई की मार ने भी बढ़ा दी मुश्किलें​​​​​​​

खरीदारों की संख्या हुई कम

संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है. दीवाली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब और इलेक्ट्रानिक सामानों का घरों में उपयोग किया जाने लगा है. इसी वजह से मिट्टी के दीपक के खरीदार पहले की तुलना में काफी कम हो चुके हैं. पहले घरों में दीपक जलाकर सजावट की जाती थी और अब इलेक्ट्रानिक सामानों से सजावट की जाने लगी हैं. 75 वर्षीय किशनलाल ने कहा कि उनके परिश्रम और कला का सम्मान होना चाहिए. यदि लोग उनकी कलाकृतियों की खरीदारी करेंगे तो इससे उनकी आमदनी को संबल मिलेगा.

Intro:झालावाड़ के सरडा गांव में आज भी कुम्हार परिवार मिट्टी के बर्तन तैयार करते हैं और इनको बेचकर पैसे नहीं बल्कि पुराने जमाने मे चलने वाली वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत अपने रोजमर्रा के सामान लेते हैं ताकि उनका उपयोग किया जा सके। Body:परिवार में बच्चे हो या जवान कुम्हारों के घर के सभी सदस्य त्योहारों के इस मौसम में पूरी मेहनत और लगन के साथ दिए और मिट्टी की कलाकृतियां बनाने में जुटे हुए हैं। देखकर तब हैरानी होती है जब झालावाड़ जिले की अकलेरा क्षेत्र के सरडा गांव के कुम्हार समाज के सभी परिवार आज भी मिट्टी के काम पर ही निर्भर है और मिट्टी के बर्तनों को बेचकर ये पैसे नहीं बल्कि सामान लेते है यानी कि इस गांव के कुम्हार परिवार आज भी मुद्रा विनिमय प्रणाली नही पुराने जमाने मे चलने वाली वस्तु विनिमय प्रणाली अपनाते हैं। इन परिवारों के बच्चें हो या बुढ्ढे सभी लोग इस सीजन में चाक पर मिट्टी के दिए बनाने में जुट जाते हैं। इन परिवारों का कहना है कि उन्हें अभी भी अपनी मिट्टी से प्यार है और जब तक जिंदा हैं तब तक पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस कला को संजोए रखेंगे। ये परिवार दिए बनाने के लिए 3 किलोमीटर दूर से मिट्टी लाते है और उसे कूटकर बारीक बनाते हैं। जिसके बाद उसे गीला करके चाक पर रखते हैं और उसी से दीपक, मटकी, कलश सहित अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन बनाते हैं।
वहीं बड़ी विडंबना ये है कि इन लोगों की इतनी मेहनत के बाद भी दिनोंदिन मिट्टी के दीयों व बर्तनों की बिक्री कम होती जा रही है। इनका कहना है कि पहले मिट्टी के दिये जलाकर सजावट की जाती थी लेकिन आजकल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से सजावट की जाती है जिसकी वजह से मिट्टी के दीयों की बिक्री बहुत कम हो गयी है।



इस प्रकार बनाते है दिए
किशनलाल ने बताया कि कस्बे से 3 किलोमीटर दूर खजूरी से मिट्टी लाते हैं। मिट्टी को कूटकर बारिक करते हैं। मिट्टी को बारिक करने के बाद उसमें लीद मिलाकर गिला करने के बाद चाक और गडी की सहायता से दिपक, मटकी, कलश, सहित कई कलाकृतियां बनाते हैं।

दीपक, मटकी, कलश के बदले लेते हैं अनाज
आधुनिक दौर में सभी जगह एक ओर जहाँ मुद्रा विनियम प्रणाली प्रचलित है वहीं सरड़ा कस्बे में आज भी वस्तु विनियम प्रणाली देखने को मिल रही है। किशनलाल प्रजापत ने बताया कि दीपावली पर दीपक, मटकी देकर लोगों से उनके बदले में अनाज प्राप्त करते हैं।

खरीदारों की संख्या हुई कम

संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है। दिवाली पर मिट्टी के दीए की जगह बिजली के बल्ब व इलेक्ट्रानिक सामानों का घरों में उपयोग किया जाने लगा है। इसी वजह से मिट्टी के दीपक के खरीददार पहले की तुलना में काफी कम हो चुके हैं। पहले घरों में दिपक जलाकर सजावट की जाती थी। और अब इलेक्ट्रानिक सामानों से सजावट की जाने लगी हैं। 75 वर्षीय किशनलाल ने कहा कि उनके परिश्रम और कला का सम्मान होना चाहीए। यदि लोग उनकी कलाकृतियों की खरीदारी करेंगे तो इससे उनकी आमदनी को संबल मिलेगा।

Conclusion:बाइट 1 - किशनलाल
बाइट 2 - जगदीश
बाइट 3 - रामगोपाल
बाइट 4 - रोडूलाल
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