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दिवाली विशेष: झालावाड़ में कुम्हार परिवारों का दर्द, दीयों की मांग तो बहुत है, लेकिन बारिश ने फेरा पानी

झालावाड़ में दिवाली के पर्व पर कुंभकारों के चेहरे मायूस नजर आ रहे हैं. दिवाली पर दिये की ज्यादा मांग होती है. लेकिन इस बार बारिश की वजह से कुंभकार दिये समय पर तैयार नहीं कर सके, जिसकी वजह से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

झालावाड़ न्यूज, jhalawar news
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Published : Oct 25, 2019, 10:34 PM IST

झालावाड़. दिवाली के त्योहार पर दीयों का बड़ा महत्व होता है. वहीं दीयों की बहुत मांग होने के बावजूद जिले के कुम्हार निराश हैं. क्योंकि बाढ़ और लगातार बारिश होते रहने के कारण वो दीए, मटकी और मिट्टी के अन्य बर्तन तैयार ही नहीं कर पाए हैं.

झालावाड़ के कुम्हार परिवारों का दर्द

मान्यता है कि भगवान श्री राम जब लंका से वापस आ रहे थे. तब हर एक रास्ते में उनके स्वागत में दिए जलाए गए थे और ये परम्परा आज भी अनवरत जारी है. ऐसे में बिना दीयों के दिवाली के त्योहार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

पढ़ें- इस बार धनतेरस पर शुभ संयोग, सवार्थसिद्धि योग इसे बना रहा और भी खास, जानें शुभ मुहूर्त

ईटीवी भारत की टीम दिए बनाने की पूरी प्रक्रिया और इस बार दिए और मिट्टी के बर्तनों के व्यापार की स्थिति को जानने के लिए झालावाड़ के नया गांव पहुंची. यहां के कुम्हार परिवारों ने बताया कि दीए बनाने के लिए इस बार उन्हें काफी कम वक्त मिला है. इस बार जिले में बाढ़ आने और उसके बाद भी लगातार बारिश होते रहने के कारण वो मिट्टी के बर्तन ही तैयार नहीं कर पाए. उन्होंने बताया कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जमाने में भी बाजारों में दीयों की मांग तो बहुत है. लेकिन जितने माल की आवश्यकता है उतना वो तैयार ही नहीं कर पाए हैं.

कुम्हार परिवारों ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए वो जंगल, नदी और बंजर तीन प्रकार की मिट्टी एकत्रित करते हैं. उसके बाद उनको भिगोकर चाक पर रखा जाता है तथा उससे मिट्टी के दीए, मटकी और अन्य बर्तन बनाये जाते हैं और उनको पकाया जाता है. इसके बाद उनके ऊपर रंग-रोगन किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में पूरा परिवार जुट कर काम करता है.

पढ़ें- इस दिवाली नहीं रहेगी गरीबों की झोली खाली, क्योंकि टीम निवाला लाया है 'हैप्पी किट

परिवार के पुरुष जहां मिट्टी लाने और बर्तन बनाने का काम करते हैं. वहीं महिलाएं बर्तनों पर रंग-रोगन का काम करती है. इस पूरी प्रकिया में जहां 1 से 2 दिन दिए बनाने में लगते है तथा 8 से 10 दिन एक मटकी तैयार करने में लग जाते हैं. इसके बाद कुम्हार परिवार तैयार मिट्टी के बर्तनों को थोक के भाव में व्यापारियों को भेज देते हैं या फिर खुद ही जाकर सड़क के किनारे बैठकर बेचते हैं.

कुंभकारों ने बताया कि थोक के व्यापारियों को वो जहां 1 हजार दिये 300 से 400 रुपए में बेचते हैं, वहीं ग्राहकों को सीधे एक रुपए में एक दिया कि हिसाब से बेचतें है. मटकी थोक व्यापारियों को 50 से 70 रुपये में बेचते हैं जबकि, वहीं मटकी ग्राहकों को सीधे 80 से 100 के में बेच देते हैं.

कुम्हार परिवारों ने बताया कि सीधे ग्राहकों को बेचने में फायदा रहता है. लेकिन बड़े व्यापारियों की वजह से उनको बाजारों में जगह उपलब्ध नहीं हो पाती है. साथ ही इस दौरान मिट्टी के बर्तनों के टूटने की आशंका भी ज्यादा रहती है, जिसकी वजह से उनको मिट्टी के बर्तन सीधे थोक व्यापारियों को बेचने पड़ते हैं. लेकिन इस बार मांग के अधिक रहने के बावजूद भी वो बारिश के कारण मिट्टी के दिए, मटकी और अन्य बर्तन तैयार नहीं कर पाए हैं.

झालावाड़. दिवाली के त्योहार पर दीयों का बड़ा महत्व होता है. वहीं दीयों की बहुत मांग होने के बावजूद जिले के कुम्हार निराश हैं. क्योंकि बाढ़ और लगातार बारिश होते रहने के कारण वो दीए, मटकी और मिट्टी के अन्य बर्तन तैयार ही नहीं कर पाए हैं.

झालावाड़ के कुम्हार परिवारों का दर्द

मान्यता है कि भगवान श्री राम जब लंका से वापस आ रहे थे. तब हर एक रास्ते में उनके स्वागत में दिए जलाए गए थे और ये परम्परा आज भी अनवरत जारी है. ऐसे में बिना दीयों के दिवाली के त्योहार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

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ईटीवी भारत की टीम दिए बनाने की पूरी प्रक्रिया और इस बार दिए और मिट्टी के बर्तनों के व्यापार की स्थिति को जानने के लिए झालावाड़ के नया गांव पहुंची. यहां के कुम्हार परिवारों ने बताया कि दीए बनाने के लिए इस बार उन्हें काफी कम वक्त मिला है. इस बार जिले में बाढ़ आने और उसके बाद भी लगातार बारिश होते रहने के कारण वो मिट्टी के बर्तन ही तैयार नहीं कर पाए. उन्होंने बताया कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जमाने में भी बाजारों में दीयों की मांग तो बहुत है. लेकिन जितने माल की आवश्यकता है उतना वो तैयार ही नहीं कर पाए हैं.

कुम्हार परिवारों ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए वो जंगल, नदी और बंजर तीन प्रकार की मिट्टी एकत्रित करते हैं. उसके बाद उनको भिगोकर चाक पर रखा जाता है तथा उससे मिट्टी के दीए, मटकी और अन्य बर्तन बनाये जाते हैं और उनको पकाया जाता है. इसके बाद उनके ऊपर रंग-रोगन किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में पूरा परिवार जुट कर काम करता है.

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परिवार के पुरुष जहां मिट्टी लाने और बर्तन बनाने का काम करते हैं. वहीं महिलाएं बर्तनों पर रंग-रोगन का काम करती है. इस पूरी प्रकिया में जहां 1 से 2 दिन दिए बनाने में लगते है तथा 8 से 10 दिन एक मटकी तैयार करने में लग जाते हैं. इसके बाद कुम्हार परिवार तैयार मिट्टी के बर्तनों को थोक के भाव में व्यापारियों को भेज देते हैं या फिर खुद ही जाकर सड़क के किनारे बैठकर बेचते हैं.

कुंभकारों ने बताया कि थोक के व्यापारियों को वो जहां 1 हजार दिये 300 से 400 रुपए में बेचते हैं, वहीं ग्राहकों को सीधे एक रुपए में एक दिया कि हिसाब से बेचतें है. मटकी थोक व्यापारियों को 50 से 70 रुपये में बेचते हैं जबकि, वहीं मटकी ग्राहकों को सीधे 80 से 100 के में बेच देते हैं.

कुम्हार परिवारों ने बताया कि सीधे ग्राहकों को बेचने में फायदा रहता है. लेकिन बड़े व्यापारियों की वजह से उनको बाजारों में जगह उपलब्ध नहीं हो पाती है. साथ ही इस दौरान मिट्टी के बर्तनों के टूटने की आशंका भी ज्यादा रहती है, जिसकी वजह से उनको मिट्टी के बर्तन सीधे थोक व्यापारियों को बेचने पड़ते हैं. लेकिन इस बार मांग के अधिक रहने के बावजूद भी वो बारिश के कारण मिट्टी के दिए, मटकी और अन्य बर्तन तैयार नहीं कर पाए हैं.

Intro:दिवाली के त्यौहार पर दीयों का बड़ा महत्व होता है। झालावाड़ में दियों की बहुत मांग होने के बावजूद यहाँ के कुम्हार निराश है क्योंकि बाढ़ व लगातार बारिश होते रहने के कारण वो दिए, मटकी व मिट्टी के अन्य बर्तन तैयार ही नही कर पाए।Body:माना जाता है कि भगवान श्री राम जब लंका से वापस आ रहे थे तब हर एक रास्ते मे उनके स्वागत में दिए जलाए गए थे और ये परम्परा आज भी अनवरत जारी है। ऐसे में बिना दियों के दिवाली के त्यौहार की कल्पना भी नहीं कि जा सकती दिवाली के त्योहार पर सबसे ज्यादा महत्व दियों का होता है। ऐसे में ईटीवी भारत की टीम दिए बनाने की पूरी प्रक्रिया और इस बार दिए व मिट्टी के बर्तनों के व्यापार की स्थिति को जानने के लिए झालावाड़ के नयागांव पहुंची. वहां के कुम्हार परिवारों ने बताया कि दिए बनाने के लिए इस बार उन्हें काफी कम वक्त मिला है। इस बार जिले में बाढ़ आने व उसके बाद भी लगातार बारिश होते रहने के कारण वो मिट्टी के बर्तन ही तैयार नही कर पाए. उन्होंने बताया कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जमाने मे भी बाजारों में दीयों की मांग तो बहुत है लेकिन जितने माल की आवश्यकता है उतना वो तैयार ही नहीं कर पाए है.

कुम्हार परिवारों ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए वो जंगल, नदी व बंजर तीन प्रकार की मिट्टी एकत्रित करते है उसके बाद उनको भिगोकर चाक पर रखा जाता है तथा उससे मिट्टी के दिए, मटकी व अन्य बर्तन बनाये जाते है और उनको पकाया जाता है. इसके बाद उनके ऊपर रंगरोगन किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में पूरा परिवार जुट कर काम करता है। परिवार के पुरुष जहां मिट्टी लाने व बर्तन बनाने का काम करते है वहीं महिलाएं बर्तनों पर रंगरोगन का काम करती है. इस पूरी प्रकिया में जहां 1 से 2 दिन दिए बनाने में लगते है तथा 8 से 10 दिन एक मटकी तैयार करने में लग जाते है। इसके बाद कुम्हार परिवार तैयार मिट्टी के बर्तनों को थोक के भाव में व्यापारियों को भेज देते हैं या फिर खुद ही जाकर सड़क के किनारे बैठकर बेचते हैं। उन्होंने बताया कि थोक के व्यापारियों को जहां 1000 हजार दिए 300 से 400 रुपए में बेचते है वहीं ग्राहकों को सीधे एक रुपए में एक दिया कि हिसाब से बेचतें है। वही मटकी थोक व्यापारियों को 50 से 70 रुपये में बेचते हैं जबकि वही मटकी ग्राहकों को सीधे 80 से 100 के में बेच देते हैं।

कुम्हार परिवारों ने बताया कि सीधे ग्राहकों को बेचने में फायदा रहता है लेकिन बड़े व्यापारियों की वजह से उनको बाजारों में जगह उपलब्ध नही हो पाती है साथ ही इस दौरान मिट्टी के बर्तनों के टूटने की आशंका भी ज्यादा रहती है जिसकी वजह से उनको मिट्टी के बर्तन सीधे थोक व्यापारियों को बेचने पड़ते हैं। लेकिन इस बार मांग के अधिक रहने के बावजूद भी बो बारिश के कारण मिट्टी के दिए, मटकी व अन्य बर्तन तैयार नही कर पाए।

Conclusion:बाइट 1 - भगीरथ प्रजापति
बाइट 2 - रूपबंसत प्रजापति
बाइट 3 - भूरीबाई
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