झालावाड़. दिवाली के त्योहार पर दीयों का बड़ा महत्व होता है. वहीं दीयों की बहुत मांग होने के बावजूद जिले के कुम्हार निराश हैं. क्योंकि बाढ़ और लगातार बारिश होते रहने के कारण वो दीए, मटकी और मिट्टी के अन्य बर्तन तैयार ही नहीं कर पाए हैं.
मान्यता है कि भगवान श्री राम जब लंका से वापस आ रहे थे. तब हर एक रास्ते में उनके स्वागत में दिए जलाए गए थे और ये परम्परा आज भी अनवरत जारी है. ऐसे में बिना दीयों के दिवाली के त्योहार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
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ईटीवी भारत की टीम दिए बनाने की पूरी प्रक्रिया और इस बार दिए और मिट्टी के बर्तनों के व्यापार की स्थिति को जानने के लिए झालावाड़ के नया गांव पहुंची. यहां के कुम्हार परिवारों ने बताया कि दीए बनाने के लिए इस बार उन्हें काफी कम वक्त मिला है. इस बार जिले में बाढ़ आने और उसके बाद भी लगातार बारिश होते रहने के कारण वो मिट्टी के बर्तन ही तैयार नहीं कर पाए. उन्होंने बताया कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जमाने में भी बाजारों में दीयों की मांग तो बहुत है. लेकिन जितने माल की आवश्यकता है उतना वो तैयार ही नहीं कर पाए हैं.
कुम्हार परिवारों ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए वो जंगल, नदी और बंजर तीन प्रकार की मिट्टी एकत्रित करते हैं. उसके बाद उनको भिगोकर चाक पर रखा जाता है तथा उससे मिट्टी के दीए, मटकी और अन्य बर्तन बनाये जाते हैं और उनको पकाया जाता है. इसके बाद उनके ऊपर रंग-रोगन किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में पूरा परिवार जुट कर काम करता है.
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परिवार के पुरुष जहां मिट्टी लाने और बर्तन बनाने का काम करते हैं. वहीं महिलाएं बर्तनों पर रंग-रोगन का काम करती है. इस पूरी प्रकिया में जहां 1 से 2 दिन दिए बनाने में लगते है तथा 8 से 10 दिन एक मटकी तैयार करने में लग जाते हैं. इसके बाद कुम्हार परिवार तैयार मिट्टी के बर्तनों को थोक के भाव में व्यापारियों को भेज देते हैं या फिर खुद ही जाकर सड़क के किनारे बैठकर बेचते हैं.
कुंभकारों ने बताया कि थोक के व्यापारियों को वो जहां 1 हजार दिये 300 से 400 रुपए में बेचते हैं, वहीं ग्राहकों को सीधे एक रुपए में एक दिया कि हिसाब से बेचतें है. मटकी थोक व्यापारियों को 50 से 70 रुपये में बेचते हैं जबकि, वहीं मटकी ग्राहकों को सीधे 80 से 100 के में बेच देते हैं.
कुम्हार परिवारों ने बताया कि सीधे ग्राहकों को बेचने में फायदा रहता है. लेकिन बड़े व्यापारियों की वजह से उनको बाजारों में जगह उपलब्ध नहीं हो पाती है. साथ ही इस दौरान मिट्टी के बर्तनों के टूटने की आशंका भी ज्यादा रहती है, जिसकी वजह से उनको मिट्टी के बर्तन सीधे थोक व्यापारियों को बेचने पड़ते हैं. लेकिन इस बार मांग के अधिक रहने के बावजूद भी वो बारिश के कारण मिट्टी के दिए, मटकी और अन्य बर्तन तैयार नहीं कर पाए हैं.