जयपुर. 1 मई यानी मजदूर दिवस इस दिन दुनिया भर में उन श्रमिकों के लिए आयोजन किए जाते हैं, जिनके दम पर समाज आज टिका हुआ है. यह लोग है जो दिन रात मेहनत करते हैं और समाज के लिए ढांचा खड़ा करते हैं. देश में आर्थिक पायदान की आखिरी सीढ़ी पर मौजूद इस वर्ग के लिए दावे बहुत किए जाते हैं पर हकीकत उनसे कोसों दूर होती है. ईटीवी भारत की टीम ने जयपुर की सड़कों पर मौजूद ऐसे ही कुछ मजदूरों के बच्चों से बात की और समझा मजदूर होने के क्या मायने हैं.
मजदूर होने का मतलब शाब्दिक तौर पर मजबूर होना बिल्कुल नहीं माना जाता है. लेकिन अगर हालात की तुलना की जाए तो फिर मजदूर के साथ मजबूरी का ताल्लुक काफी गहरा है. इसे समझने के लिए जयपुर के विश्वकर्मा इंडस्ट्रियल एरिया में मौजूद घूमंतू जाति के कुछ घरों के बाहर खड़े बच्चों से ईटीवी भारत मुखातिब हुआ.
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इन बच्चों से खुशी के मतलब समझे गए इनके लिए नए कपड़ों के माइनों को जाना गया और पूछा गया कि यह लोग मिठाई को अपनी जिंदगी में कितना अहम मानते हैं. जब बात हुई तो यह समझ में आया कि नए कपड़ों का मतलब दीपावली होता है. मिठाई का मतलब स्कूल में 15 अगस्त 26 जनवरी के साथ दीपावली जैसा त्यौहार होता है.
इसके अलावा इन बच्चों के लिए नए कपड़े मयस्सर नहीं होते. वहीं, रही बात मिठाई की तो इनके घरों में मिठाई बनना बहुत मुश्किल सवाल था जाहिर है कि सवाल पूछते वक्त इन बच्चों के माथे पर जवाब देने में कोई शिकन नहीं थी. क्योंकि इन्हें ना तो मजदूरी के मायने पता है और ना ही मजबूरी ये समझते हैं. यह भोली आंखें बस जो देखती है वही बयां कर देती हैं.
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मजदूर दिवस पर मजदूर का परिवार दिखाने का मतलब सिर्फ इतना है, कि हम यह समझ लें कि आज भी हमें मिलकर अगर समाज चलाना है, तो इस वर्ग का ख्याल करना जरूरी है. यह वह वर्ग है जो दिन-रात मेहनत हम सब के लिए करता है और खुद बदले में दो वक्त की रोटी पाता है.
लेकिन कभी-कभी हालात ऐसे हो जाते हैं कि इन लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरतों में अगर देखा जाए तो इनकी सारी कहानी को इन मासूम बच्चों के नंगे पैर ही बयां कर देते हैं. 40 डिग्री से ऊपर झुलस रही सड़कों पर नंगे पैर मौजूद इन बच्चों के लिए चढ़ते पारे के मायने कुछ नहीं हैं.