चित्तौड़गढ़. 'काला सोना' यानी अफीम की खेती अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुकी है. कुछ ही दिनों में अफीम की फसल पक कर तैयार हो जाएगी. ऐसे में जानवरों और पशु-पक्षियों से बचाव के साथ चोरी के डर से किसानों ने फसल को अपने सुरक्षा चक्र में ले लिया है. जिन गांव में अफीम की खेती की जाती है वहां अधिकांश गांवों में अब दिन में सन्नाटा पसरा रहता है क्योंकि किसान पूरे परिवार के साथ खेतों पर चले जाते हैं. यहां तक कि खाना-पीना और रहना सब खेतों पर ही होने लगा है. रात में भी खेत पर पहरे के लिए कोई न कोई रहता है.
चित्तौड़गढ़ जिला अफीम की खेती के लिहाज से प्रदेश ही नहीं पूरे देश में शीर्ष स्थान पर माना जाता है. यहां करीब 17000 किसानों के पास अफीम काश्त के लाइसेंस हैं. नवंबर के पहले हफ्ते में बोई गई फसल पर इन दिनों सफेद फूल लगने शुरू हो गए हैं. फसलों पर पूरी तरह से फूल आने से पहले ही काश्तकारों ने खेतों पर डेरा डालना शुरू कर दिया गया. नीलगाय और आवारा मवेशियों से फसल के बचाव के लिए जहां चारों ओर तारों की फेंसिंग की गई हैं. हवा से फसल को कोई नुकसान नहीं पहुंचे इसके लिए भी चारों और कपड़े बांधे गए हैं. इसके अलावा फल को पक्षियों से बचाने के लिए रेशम की जाल का इस्तेमाल भी किया गया.
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भीमगढ़ के काश्तकार प्रकाश चंद्र चौधरी के अनुसार यह फसल कीमती है. इस कारण इसकी सुरक्षा को लेकर तमाम प्रबंध करने होते हैं. फूल निकलने से पहले ही परिवार खेत पर आ जाता है क्योंकि सुरक्षा के साथ-साथ देखरेख भी करनी होती है. कचनारिया गांव के सीताराम जाट के अनुसार अफीम के फूल आने के साथ ही काश्तकार परिवार गांव छोड़कर अस्थाई तौर पर खेत पर बस जाता है. कुल मिलाकर हर समय परिवार का कोई न कोई सदस्य फसल के पास रहता है. जब तक अफीम की पैदावार नहीं ले ली जाती तब तक किसान परिवार खेत को नहीं छोड़ता है. कुल मिलाकर अफीम काश्तकार फसल की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर खेत पर ही डेरा डाल लेता है. खाना-पीना भी खेत पर ही होता है. चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, मंदसौर और नीमच को अफीम का गढ़ कहा जाता है क्योंकि देश में सर्वाधिक अफीम का उत्पादन इसी बेल्ट में होता है. इनमें भी सबसे अधिक पट्टे चित्तौड़गढ़ जिले में हैं.