चित्तौड़गढ़. अफीम के साथ-साथ चित्तौड़गढ़ को एक और फसल नई पहचान देने जा रही है. रबी सीजन के दौरान गेहूं के बाद चने की बुवाई लगातार बढ़ती जा रही है. दरअसल, कम बारिश के चलते किसान गेहूं की बजाए चने की पैदावार पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. चने की खेती किसानों किस तरह ठीक लग रही है, इसका अंदाजा पिछले 4 साल की बुवाई से लगाया जा सकता है. पिछले 4 साल में चने की खेती लगभग 14 गुना तक बढ़ चुकी है. अंतिम समय में मावठ के चलते इस बार बंपर पैदावार की उम्मीद जताई जा रही है.
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गौरतलब है कि पिछले कुछ साल में बारिश का आंकड़ा लगातार गिरता जा रहा है. मानसून सीजन में चित्तौड़गढ़ जिले में औसत बारिश 750 मिलीमीटर मानी जाती रही है. लेकिन, पिछले मानसून सीजन में बारिश का आंकड़ा 640 पर जाकर अटक गया यानी औसत 85 फीसदी ही पानी मिल सका. सबसे बड़ी विडंबना ये रही कि जिले के अधिकांश बांध और तालाब सूखे ही रहे. इसके चलते कृषि विभाग ने किसानों को कम पानी की फसल लेने की सलाह दी. कम पानी वाली फसलों में चना और सरसों मुख्य हैं. किसानों ने बारिश के बाद नमी रहने के दौरान ही चने की बुवाई शुरू कर दी.
विभाग के आंकड़ों को देखें तो 4 साल पहले चित्तौड़गढ़ जिले में करीब 6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में चने की बुवाई होती थी, जो वर्ष 2019- 20 में 30 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गई. इसकी पैदावार को देखते हुए चने की बुवाई का यह ग्राफ इस वर्ष ढाई गुना बढ़कर 85 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया. इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि केवल 2 बार की सिंचाई में ही चने की फसल ली जा सकती है, वहीं प्रति हेक्टेयर 25 से लेकर 30 क्विंटल तक पैदावार हो जाती है. पिछले कुछ समय से सरकार भी समर्थन मूल्य पर इसकी खरीदारी कर रही है. लगभग 4 हजार क्विंटल तक इसका समर्थन मूल्य रहता है. ऐसे में किसानों का रुझान चने की खेती के प्रति एकाएक बढ़ा है.
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उपनिदेशक कृषि विस्तार दिनेश जागा के अनुसार पिछले कुछ समय में बारिश का आंकड़ा गिरा है. ऐसे में किसान गेहूं की बजाए चने की बुवाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, जिसमें पानी के साथ साथ मेहनत की भी ज्यादा जरूरत नहीं रहती और पैदावार भी अच्छी मिल जाती है, इसके अलावा चने की फसल की जड़ों में गांठे होती है, जो कि नाइट्रोजन की पूर्ति करती है. इससे न केवल उर्वरक की जरूरत कम रहती है, बल्कि जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है.