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चित्तौड़गढ़: किसानों ने अफीम फसल की सुरक्षा और देखरेख के लिए खेतों पर ही डाला डेरा, जानें- किस प्रकार होता है प्रोडक्शन

काले सोने के रूप में पहचानी जाने वाली अफीम की फसल इन दिनों चित्तौड़गढ़ में अपने पूरे शबाब पर है और प्रोडक्शन स्टेज पर पहुंच चुकी है. इसको लेकर किसानों ने अपने पूरे परिवार सहित खेत पर डेरा डाल दिया है और रात को पूरा जंगल जगमगाता देखा जा सकता है. पढ़ें- किसान किस तरह अफीम की फसल तैयार करता है.

Chittorgarh news, opium cultivation
किसानों ने अफीम फसल की सुरक्षा और देखरेख के लिए खेतों पर ही डाला डेरा
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Published : Feb 18, 2021, 3:28 PM IST

चित्तौड़गढ़. अफीम भी चित्तौड़गढ़ जिले की एक पहचान मानी जाती है. काले सोने के रूप में पहचानी जाने वाली अफीम की फसल इन दिनों अपने पूरे शबाब पर है और प्रोडक्शन स्टेज पर पहुंच चुकी है. किसानों के लिए यह फसल कितनी कीमती है, इसका अंदाजा इसकी मॉनिटरिंग और सुरक्षा से देखी जा सकती है. किसानों ने अपने पूरे परिवार सहित खेत पर डेरा डाल दिया है और रात को पूरा जंगल जगमगाता देखा जा सकता है. आखिरकार अफीम की फसल किसानों के लिए कितनी अहम है और इसके लिए वह क्या-क्या जतन करते हैं? इसको लेकर ईटीवी भारत की टीम खेतों पर पहुंची और किसानों से ही जाना कि आखिर वे इस फसल को किस प्रकार से ले रहे हैं.

किसानों ने अफीम फसल की सुरक्षा और देखरेख के लिए खेतों पर ही डाला डेरा

जिले का निंबाहेड़ा इलाका हो या फिर बेगू अथवा बड़ीसादड़ी और राशमी, जहां भी नजर जाती है चारों ओर सफेद फूल ही फूल देखे जा सकते हैं. अगेती बुवाई करने वाले काश्तकारों ने प्रोडक्शन लेना भी शुरू कर दिया है. हालांकि अक्टूबर-नवंबर में फसल की बुवाई के साथ ही किसान की जीवनचर्या खेत पर केंद्रित हो जाती है, लेकिन जैसे ही फूल आने लगते हैं पूरा परिवार ही खेत पर डेरा डाल देता है. चाय से लेकर खाना-पीना तक खेत पर ही शुरू हो जाता है. इसके फल को डोडा कहा जाता है, जिसकी चिराई(cut) और लूराई(collection) के लिए विशेष किस्म के औजार काम में लिए जाते हैं.

कालिका माता की स्थापना के साथ चिराई का काम शुरू होता है. यह काम सूरज की तेज रोशनी में शुरू होता है. चीरा लगाने के साथ ही डोडा से भूरे रंग का दूध निकलना शुरू होता है, जोकि सास डालने के साथ ही टाइट होने के साथ काला पड़ने लगता है. इस दूध को सूर्योदय के साथ ही विशेष औजार से एकत्र करने का काम शुरू हो जाता है. इसके लिए परिवार के साथ-साथ मजदूरों का भी साथ लिया जाता है. अफीम कलेक्शन की यह प्रक्रिया 20 से 25 दिन तक चलती है. हालांकि पछेती फसल लेने वालों के लिए कलेक्शन का यह काम अधिकांश 15 दिन ही चल पाता है.

यह भी पढ़ें- पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर सुनिए श्याम रंगीला की शानदार मिमिक्री, PM के अंदाज में बोला उन्हीं पर हमला

इसके 20 से 25 दिन बाद सूखे डोडो की तुड़ाई के साथ घर पहुंचाया जाता है. काश्तकार घनश्याम के अनुसार अक्टूबर-नवंबर में फसल की बुवाई के साथ ही किसान सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए खेत पर ही अपना डेरा डाल देते हैं. 120 से लेकर 150 दिन बाद फसल घर पहुंचती है. उसके बाद ही किसान चैन ले पाता है. रामजस के अनुसार सुरक्षा को लेकर ज्यादा चिंता रहती है क्योंकि पशु पक्षियों के साथ चोरी चकारी का खतरा और भी बढ़ जाता है. वहीं रतन देवी के अनुसार जैसे ही चिराई का काम शुरू होता है, घर की बजाय खेत को ही अपना बसेरा बना लेते हैं. खाने-पीने से लेकर हर काम खेत पर ही होता है और अति आवश्यक कार्य होने पर ही घर जा पाते हैं.

चित्तौड़गढ़. अफीम भी चित्तौड़गढ़ जिले की एक पहचान मानी जाती है. काले सोने के रूप में पहचानी जाने वाली अफीम की फसल इन दिनों अपने पूरे शबाब पर है और प्रोडक्शन स्टेज पर पहुंच चुकी है. किसानों के लिए यह फसल कितनी कीमती है, इसका अंदाजा इसकी मॉनिटरिंग और सुरक्षा से देखी जा सकती है. किसानों ने अपने पूरे परिवार सहित खेत पर डेरा डाल दिया है और रात को पूरा जंगल जगमगाता देखा जा सकता है. आखिरकार अफीम की फसल किसानों के लिए कितनी अहम है और इसके लिए वह क्या-क्या जतन करते हैं? इसको लेकर ईटीवी भारत की टीम खेतों पर पहुंची और किसानों से ही जाना कि आखिर वे इस फसल को किस प्रकार से ले रहे हैं.

किसानों ने अफीम फसल की सुरक्षा और देखरेख के लिए खेतों पर ही डाला डेरा

जिले का निंबाहेड़ा इलाका हो या फिर बेगू अथवा बड़ीसादड़ी और राशमी, जहां भी नजर जाती है चारों ओर सफेद फूल ही फूल देखे जा सकते हैं. अगेती बुवाई करने वाले काश्तकारों ने प्रोडक्शन लेना भी शुरू कर दिया है. हालांकि अक्टूबर-नवंबर में फसल की बुवाई के साथ ही किसान की जीवनचर्या खेत पर केंद्रित हो जाती है, लेकिन जैसे ही फूल आने लगते हैं पूरा परिवार ही खेत पर डेरा डाल देता है. चाय से लेकर खाना-पीना तक खेत पर ही शुरू हो जाता है. इसके फल को डोडा कहा जाता है, जिसकी चिराई(cut) और लूराई(collection) के लिए विशेष किस्म के औजार काम में लिए जाते हैं.

कालिका माता की स्थापना के साथ चिराई का काम शुरू होता है. यह काम सूरज की तेज रोशनी में शुरू होता है. चीरा लगाने के साथ ही डोडा से भूरे रंग का दूध निकलना शुरू होता है, जोकि सास डालने के साथ ही टाइट होने के साथ काला पड़ने लगता है. इस दूध को सूर्योदय के साथ ही विशेष औजार से एकत्र करने का काम शुरू हो जाता है. इसके लिए परिवार के साथ-साथ मजदूरों का भी साथ लिया जाता है. अफीम कलेक्शन की यह प्रक्रिया 20 से 25 दिन तक चलती है. हालांकि पछेती फसल लेने वालों के लिए कलेक्शन का यह काम अधिकांश 15 दिन ही चल पाता है.

यह भी पढ़ें- पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर सुनिए श्याम रंगीला की शानदार मिमिक्री, PM के अंदाज में बोला उन्हीं पर हमला

इसके 20 से 25 दिन बाद सूखे डोडो की तुड़ाई के साथ घर पहुंचाया जाता है. काश्तकार घनश्याम के अनुसार अक्टूबर-नवंबर में फसल की बुवाई के साथ ही किसान सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए खेत पर ही अपना डेरा डाल देते हैं. 120 से लेकर 150 दिन बाद फसल घर पहुंचती है. उसके बाद ही किसान चैन ले पाता है. रामजस के अनुसार सुरक्षा को लेकर ज्यादा चिंता रहती है क्योंकि पशु पक्षियों के साथ चोरी चकारी का खतरा और भी बढ़ जाता है. वहीं रतन देवी के अनुसार जैसे ही चिराई का काम शुरू होता है, घर की बजाय खेत को ही अपना बसेरा बना लेते हैं. खाने-पीने से लेकर हर काम खेत पर ही होता है और अति आवश्यक कार्य होने पर ही घर जा पाते हैं.

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