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लोकसभा चुनाव 2019: रावत, जाट, गुर्जर, ब्राह्मण और राजपूत जातियां ही तय करेंगी ये चार सीटें - ब्राह्मण

अजमेर संभाग की बात करें तो इसके दायरे में चार लोकसभा सीटें आती हैं. चारों सीटें एससी, जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, राजपूत व मुस्लिम बाहुल्य हैं. वहीं कई अन्य जातियां भी हैं जो निर्णायक की भूमिका में रहती हैं.

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Published : Mar 25, 2019, 4:37 PM IST

अजमेर. राजनीति में जातिवाद का समावेश नया नहीं है. दशकों राजनीतिक दल जातिवाद के आधार पर ही बिसात बिछा कर वोटों की फसल काटते आए हैं. अजमेर लोकसभा भी जातिगत राजनीति से अछूती नहीं रही है. भाजपा हो या कांग्रेस जातीयों के समीकरण को देखकर ही चुनावी मैदान में उतारती हैं.

अजमेर संभाग की बात करें तो इसके दायरे में चार लोकसभा सीटें आती हैं. चारों सीटें एससी, जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, राजपूत व मुस्लिम बाहुल्य हैं. वहीं कई अन्य जातियां भी हैं जो निर्णायक की भूमिका में रहती हैं. नागौर लोकसभा सीट पर जहां जाट, मुस्लिम और एससी मतदाता अधिक हैं. वहीं अजमेर लोकसभा सीट पर जाट, गुर्जर, एससी, मुस्लिम, ब्राह्मण, राजपूत मतदाता अधिक हैं.

2004 में हुए परिसीमन से पहले यहां रावत समाज की संख्या भी अधिक थी. भीलवाड़ा लोकसभा सीट की बात करें तो वहां ब्राह्मण, एससी, गुर्जर, जाट मतदाताओं की संख्या अधिक है. वहीं टोंक में मुस्लिम, एससी, गुर्जर मतदाताओं की संख्या अधिक है.

CLICK कर देखें VIDEO

अजमेर लोकसभा सीट के जातिगत गुणा-भाग को समझें तो डेढ़ दशक पहले तक अजमेर में रावत समाज को लोकसभा में 5 बार प्रतिनिधित्व मिला. रासा सिंह रावत 5 बार सांसद रहे. लेकिन 2004 में हुए परिसीमन के बाद अजमेर लोकसभा सीट से ब्यावर का हिस्सा टूट कर राजसमंद सीट में चला गया. इससे रावत मतदाताओं में कमी आ गई. वहीं दूदू का हिस्सा जुड़ने से जाट मतदाताओं की संख्या बढ़ गई.

nagaur ajmer bhilwara and tonk loksabha seat
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2009 में सचिन पायलट ने अजमेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और वह जीत गए. मगर दूसरा चुनाव पायलट हार गए. इसके पीछे कारण जातिगत बिल्कुल नहीं था. मोदी लहर में बीजेपी से सांवरलाल जाट जीत गए. इसके बाद बीजेपी ने अजमेर लोकसभा सीट को जाट सीट ही मान लिया और सांवर लाल जाट के निधन के बाद उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को लोकसभा उपचुनाव में मैदान में उतारा. मगर लांबा को कांग्रेस के डॉ रघु शर्मा से शिकस्त खानी पड़ी.

अजमेर लोकसभा की 8 विधानसभा में जातिगत समीकरण देखें तो अजमेर उत्तर में सिंधी, एससी, मुस्लिम, ब्राह्मण और वैश्य मतदाताओं की संख्या अधिक है. अजमेर दक्षिण में एससी, माली, गुर्जर, ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या अधिक है. तीर्थ गुरु पुष्कर में रावत, गुर्जर, जाट, राजपूत, ब्राह्मण, एससी मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. नसीराबाद में गुर्जर, जाट, मुस्लिम, रावत, राजपूत और एससी मतदाताओं की संख्या अधिक है. केकड़ी में ब्राह्मण, गुर्जर, जाट, राजपूत, एससी और मुस्लिम मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. तो मसूदा में मुस्लिम, राजपूत, जाट, ब्राह्मण वर की संख्या अधिक है.

किशनगढ़ में जाट ऐसी गुर्जर मुस्लिम ब्राह्मण वर की संख्या अधिक हैं तो दूदू में जाट, एससी मतदाताओं की संख्या अधिक है. वरिष्ठ पत्रकार क्षितिज गौड़ का मानना है कि राजनीति में हावी जातिवाद को खुद राजनेताओं ने बढ़ावा दिया है और अब तो जातियों में भी माइक्रो इंजीनियरिंग शुरू कर दी है. वहीं देव सेना के पूर्व अध्यक्ष नंदकिशोर गुर्जर का कहना है कि गुर्जर समाज को जो कोई पार्टी मौका देगी समाज उसके साथ खड़ा होगा.

इधर आमजन का मानना है कि बिना जातिवाद की राजनीति के पार्टियां जीत की सोच भी नहीं सकती. वहीं जातिगत आधार के बिना उम्मीदवार उतारने की राजनैतिक दलों में हिम्मत भी नहीं है. जाति बाहुल्य को देखते हुए उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाएगा. जबकि होना यह चाहिए कि जनता के बीच सक्रिय रहने वाले योग्य व्यक्ति को उसकी काबिलियत के आधार पर टिकट दिया जाना चाहिए. राजनीतिक दलों ने ही समाज को बांटने का काम किया है जो देश और समाज के हित में नहीं है.

राजनीति में जातिवाद एक दंश बन चुका है इसका फायदा पहले जाति के व्यक्ति को मिलता है. जबकि शेष जातियां भी प्रतिनिधित्व के लिए मांग करती हैं. यही वजह है कि चुनाव में जिस जाति को प्रतिनिधित्व मिला वो ठीक है वहीं जिस जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वह अन्य पार्टी को समर्थन कर देती है यानी ऐसे ही वोट कभी इधर तो कभी उधर होते रहते हैं.

अजमेर. राजनीति में जातिवाद का समावेश नया नहीं है. दशकों राजनीतिक दल जातिवाद के आधार पर ही बिसात बिछा कर वोटों की फसल काटते आए हैं. अजमेर लोकसभा भी जातिगत राजनीति से अछूती नहीं रही है. भाजपा हो या कांग्रेस जातीयों के समीकरण को देखकर ही चुनावी मैदान में उतारती हैं.

अजमेर संभाग की बात करें तो इसके दायरे में चार लोकसभा सीटें आती हैं. चारों सीटें एससी, जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, राजपूत व मुस्लिम बाहुल्य हैं. वहीं कई अन्य जातियां भी हैं जो निर्णायक की भूमिका में रहती हैं. नागौर लोकसभा सीट पर जहां जाट, मुस्लिम और एससी मतदाता अधिक हैं. वहीं अजमेर लोकसभा सीट पर जाट, गुर्जर, एससी, मुस्लिम, ब्राह्मण, राजपूत मतदाता अधिक हैं.

2004 में हुए परिसीमन से पहले यहां रावत समाज की संख्या भी अधिक थी. भीलवाड़ा लोकसभा सीट की बात करें तो वहां ब्राह्मण, एससी, गुर्जर, जाट मतदाताओं की संख्या अधिक है. वहीं टोंक में मुस्लिम, एससी, गुर्जर मतदाताओं की संख्या अधिक है.

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अजमेर लोकसभा सीट के जातिगत गुणा-भाग को समझें तो डेढ़ दशक पहले तक अजमेर में रावत समाज को लोकसभा में 5 बार प्रतिनिधित्व मिला. रासा सिंह रावत 5 बार सांसद रहे. लेकिन 2004 में हुए परिसीमन के बाद अजमेर लोकसभा सीट से ब्यावर का हिस्सा टूट कर राजसमंद सीट में चला गया. इससे रावत मतदाताओं में कमी आ गई. वहीं दूदू का हिस्सा जुड़ने से जाट मतदाताओं की संख्या बढ़ गई.

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2009 में सचिन पायलट ने अजमेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और वह जीत गए. मगर दूसरा चुनाव पायलट हार गए. इसके पीछे कारण जातिगत बिल्कुल नहीं था. मोदी लहर में बीजेपी से सांवरलाल जाट जीत गए. इसके बाद बीजेपी ने अजमेर लोकसभा सीट को जाट सीट ही मान लिया और सांवर लाल जाट के निधन के बाद उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को लोकसभा उपचुनाव में मैदान में उतारा. मगर लांबा को कांग्रेस के डॉ रघु शर्मा से शिकस्त खानी पड़ी.

अजमेर लोकसभा की 8 विधानसभा में जातिगत समीकरण देखें तो अजमेर उत्तर में सिंधी, एससी, मुस्लिम, ब्राह्मण और वैश्य मतदाताओं की संख्या अधिक है. अजमेर दक्षिण में एससी, माली, गुर्जर, ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या अधिक है. तीर्थ गुरु पुष्कर में रावत, गुर्जर, जाट, राजपूत, ब्राह्मण, एससी मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. नसीराबाद में गुर्जर, जाट, मुस्लिम, रावत, राजपूत और एससी मतदाताओं की संख्या अधिक है. केकड़ी में ब्राह्मण, गुर्जर, जाट, राजपूत, एससी और मुस्लिम मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. तो मसूदा में मुस्लिम, राजपूत, जाट, ब्राह्मण वर की संख्या अधिक है.

किशनगढ़ में जाट ऐसी गुर्जर मुस्लिम ब्राह्मण वर की संख्या अधिक हैं तो दूदू में जाट, एससी मतदाताओं की संख्या अधिक है. वरिष्ठ पत्रकार क्षितिज गौड़ का मानना है कि राजनीति में हावी जातिवाद को खुद राजनेताओं ने बढ़ावा दिया है और अब तो जातियों में भी माइक्रो इंजीनियरिंग शुरू कर दी है. वहीं देव सेना के पूर्व अध्यक्ष नंदकिशोर गुर्जर का कहना है कि गुर्जर समाज को जो कोई पार्टी मौका देगी समाज उसके साथ खड़ा होगा.

इधर आमजन का मानना है कि बिना जातिवाद की राजनीति के पार्टियां जीत की सोच भी नहीं सकती. वहीं जातिगत आधार के बिना उम्मीदवार उतारने की राजनैतिक दलों में हिम्मत भी नहीं है. जाति बाहुल्य को देखते हुए उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाएगा. जबकि होना यह चाहिए कि जनता के बीच सक्रिय रहने वाले योग्य व्यक्ति को उसकी काबिलियत के आधार पर टिकट दिया जाना चाहिए. राजनीतिक दलों ने ही समाज को बांटने का काम किया है जो देश और समाज के हित में नहीं है.

राजनीति में जातिवाद एक दंश बन चुका है इसका फायदा पहले जाति के व्यक्ति को मिलता है. जबकि शेष जातियां भी प्रतिनिधित्व के लिए मांग करती हैं. यही वजह है कि चुनाव में जिस जाति को प्रतिनिधित्व मिला वो ठीक है वहीं जिस जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वह अन्य पार्टी को समर्थन कर देती है यानी ऐसे ही वोट कभी इधर तो कभी उधर होते रहते हैं.

Intro:अजमेर राजनीति में जातिवाद का समावेश नया नहीं है दशकों से जातीय आधार पर राजनीतिक दल जातिवाद के आधार पर ही बिसात बिछा कर वोटों की फसल काटते आए हैं अजमेर संभाग में जातिगत राजनीति से अछूता नहीं रहा है।


Body:अजमेर संभाग की चारों सीट पर एससी जाट गुर्जर ब्राह्मण राजपूत मुस्लिम बाहुल्य है वहीं कई अन्य जातियां भी है जो निर्णायक की भूमिका में रहती है नागौर में जाट मुस्लिम एससी मतदाता अधिक है वही अजमेर में जाट गुर्जर ऐसी मुस्लिम ब्राह्मण राजपूत मतदाता अधिक है सन 2004 में हुए परिसीमन से पहले रावत समाज की संख्या भी अधिक थी भीलवाड़ा में ब्राह्मण ऐसी गुर्जर जाट मतदाताओं की संख्या अधिक है वही टोंक में मुस्लिम एससी गुर्जर मतदाताओं की संख्या अधिक है राजनीतिक दल इन्हीं जातिगत समीकरण को पशुओं से साते आए हैं वहीं इन्हीं जातियों में पंगत की मांग भी अधिक रहती है।

संभाग में अजमेर लोकसभा सीट के जातिगत गुणा भाग को समझे तो डेढ़ दशक पहले तक अजमेर में रावत समाज को लोकसभा में 5 बार प्रतिनिधित्व मिला। रासा सिंह रावत 5 बार सांसद रहे। लेकिन 2004 में हुए परिसीमन के बाद अजमेर लोकसभा सीट से ब्यावर का हिस्सा टूट कर राजसमंद चला गया। इससे रावत मतदाताओं में कमी आ गई। वहीं दूदू का हिस्सा जुड़ने से जाट मतदाताओं की संख्या बढ़ गई। 2009 में सचिन पायलट ने अजमेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और वह जीत गए। मगर दूसरा चुनाव पायलट हार गए। इसके पीछे कारण जातिगत बिल्कुल नहीं था। मोदी लहर में बीजेपी से सांवरलाल जाट जीत गए। इसके बाद बीजेपी ने अजमेर लोकसभा सीट को जाट सीट ही मान लिया और सांवर लाल जाट के निधन के बाद उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को लोकसभा उपचुनाव में मैदान में उतारा। मगर लांबा को कांग्रेस के डॉ रघु शर्मा को से शिकस्त खानी पड़ी। वरिष्ठ पत्रकार क्षितिज गौड़ का मानना है कि राजनीति में हावी जातिवाद को खुद राजनेताओं ने बढ़ावा दिया है और अब तो जातियों में भी माइक्रो इंजीनियरिंग शुरू कर दी है....
बाइट-क्षितिज गौड़- वरिष्ठ पत्रकार

अजमेर लोकसभा की 8 विधानसभा में जातिगत समीकरण देखे तो अजमेर उत्तर में सिंधी ऐसी मुस्लिम ब्राह्मण वैश्य मतदाताओं की संख्या अधिक है अजमेर दक्षिण में ऐसी माली गुर्जर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या अधिक है तीर्थ गुरु पुष्कर में रावत गुर्जर जाट राजपूत ब्राह्मण ऐसी मतदाताओं की संख्या ज्यादा है नसीराबाद में गुर्जर जाट मुस्लिम रावत राजपूत ऐसी मतदाताओं की संख्या अधिक है केकड़ी में ब्राह्मण गुर्जर जाट राजपूत ऐसी मुस्लिम मतदाताओं की संख्या ज्यादा है तो मसूदा में मुस्लिम राजपूत जाट ब्राह्मण वर की संख्या अधिक है किशनगढ़ में जाट ऐसी गुर्जर मुस्लिम ब्राह्मण वर की संख्या अधिक है तो दूदू में जाट ऐसी व की मतदाताओं की संख्या अधिक है गुर्जर जाति की राजनीति कर रहे देव सेना के पूर्व अध्यक्ष नंदकिशोर गुर्जर का कहना है कि गुर्जर समाज को जो कोई पार्टी मौका देगी समाज उसके साथ खड़ा होगा...
बाइट-नंद किशोर गुर्जर - पूर्व अध्यक्ष देव सेना

इधर आमजन का मानना है कि बिना जातिवाद की राजनीति के पार्टियां जीत की सोच भी नहीं सकती। वहीं जातिगत आधार के बिना उम्मीदवार उतारने की राजनैतिक दलों में हिम्मत भी नहीं है। जाति बाहुल्य को देखते हुए उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाएगा। जबकि होना यह चाहिए कि जनता के बीच सक्रिय रहने वाले योग्य व्यक्ति को उसकी काबिलियत के आधार पर टिकट दिया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों ने ही समाज को बांटने का काम किया है जो देश और समाज के हित में नहीं है .....
बाइट- जितेंद्र खेतावत स्थानीय
बाइट- अरविंद मीणा स्थानीय
बाइट- विवेक पाराशर स्थानीय
बाइट- कुलभूषण ईनाणी स्थानीय




Conclusion:राजनीति में जातिवाद एवं बन चुका है इसका फायदा पहले जाति के व्यक्ति को मिलता है। जबकि शेष जातियां भी प्रतिनिधित्व के लिए मांग करती है। यही वजह है कि चुनाव में जिस जाति को प्रतिनिधित्व मिला वो ठीक है वही जिस जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वह अन्य पार्टी को समर्थन कर देती है यानी ऐसे ही वोट कभी इधर तो कभी उधर हो जाते हैं।
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