नागौर. शहर की प्रियंका नाहर की जैन साध्वी के रूप में गुरुवार को दीक्षा हो गई. उन्होंने जैन धर्म के श्वेताम्बर पंथ में तपागच्छ श्री संघ की साध्वी के रूप में दीक्षा ग्रहण कर ली है. दीक्षा का कार्यक्रम पूरा होने के बाद उनकी गुरु मां सौम्य प्रभा श्रीजी ने उनका जैन साध्वी के रूप में नामकरण किया. आज से प्रियंका को परमदर्शना श्रीजी के नाम से जाना जाएगा.
इस दौरान जिले में बख्तसागर तालाब के पास जैन मंदिर में हुए इस भव्य आयोजन में देश के कोने-कोने से आए जैन धर्म के लोग पहुंचे और इस आयोजन के साक्षी बने. इस मौके पर गणिवर्य इंद्रजीत विजय महाराज, प्रफुल्ल प्रभा श्रीजी और सौम्य प्रभा श्रीजी भी मौजूद रहे. इस आयोजन की खास बात यह रही कि नूतन दीक्षित परामदर्शना की बड़ी बहन अक्षयदर्शना श्रीजी ने करीब 15 साल पहले ही तपागच्छ श्री संघ में ही दीक्षा ली थी, वह भी इस आयोजन में शामिल रही.
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बता दें कि नागौर में 26 जनवरी को इस दीक्षा का आयोजन शुरू हुआ था. वहीं, इस पांच दिवसीय आयोजन में जैन धर्म की कई परंपराओं का निर्वहन किया गया. बीती देर रात तक प्रियंका का विदाई कार्यक्रम किया गया. जिसके तहत उन्हें सांसारिक जीवन से धूमधाम से विदाई दी गई. गुरुवार को तड़के से ही दीक्षा कार्यक्रम शुरू हो गया था.
कॉमर्स में पोस्ट ग्रेजुएट प्रियंका के संयम पथ पर आगे बढ़ने का फैसला करने की कहानी भी अपने आप में असाधारण ही है. उनकी बड़ी बहन ने करीब 15 साल पहले संयम पथ अंगीकार किया था. प्रियंका कभी-कभी उनसे मिलने जाती तो धीरे-धीरे उनका भी झुकाव इस पथ की ओर होने लगा. आखिरकार उन्होंने भी इसी पथ पर आजीवन चलने का फैसला कर लिया.
प्रियंका बताती हैं कि उनके पिता की सात संतानें हैं, जिनमें पांच बेटियां और दो बेटे है. वह अपने माता-पिता की चौथी संतान हैं. सबसे बड़ी बहन अक्षयदर्शना साध्वी हैं. साथ ही दो बहनें शादीशुदा हैं. वहीं, प्रियंका से छोटी एक बहन और दो भाई हैं. उनका कहना है कि यह फैसला लेना उनके लिए इतना आसान नहीं था. पहले तो खुद को त्याग और संयम की राह पर चलने के लिए तैयार किया, लेकिन इससे भी कठिन काम था अपने परिजनों को इसके लिए तैयार करना.
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नूतन दीक्षित परमदर्शना श्रीजी का कहना है कि मानव जीवन ही एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसमें हम दूसरों के लिए कुछ कर सकते हैं।. प्राणीमात्र की सेवा कर सकते हैं. उनका मानना है कि सेवा के लिए संन्यास ग्रहण करना ही एकमात्र रास्ता नहीं है. गृहस्थ रहकर भी कोई मनुष्य जीवमात्र की सेवा कर सकता है.