जयपुर. समाजसेवी संतोष जैसवाल लावारिस शवों का न केवल अंतिम संस्कार कर रही हैं बल्कि हिन्दू रीति-रिवाज और विधि-विधान से अस्थियों को गंगा में प्रवाहित भी कर रही हैं.
संतोष जैसवाल अब तक 7 हजार से अधिक शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं, लगभर इतनी ही बार अस्थि विसर्जन और पिंडदान कर चुकी हैं. कोरोना काल में संतोष ने अपने इस मिशन को रुकने नहीं दिया.
मोक्षधाम जीवन का आखरी पड़ाव
संतोष मोक्षधाम जाकर शव का अंतिम संस्कार करती हैं और हाथ जोड़ मृतात्मा के मोक्ष की प्रार्थना करती हैं. महीने के लगभग 15 दिन यह उनकी दिनचर्या में शामिल रहता है. अंतिम संस्कार की हर क्रिया में संतोष हाथ बंटाती हैं. यह सिलसिला पिछले 13 साल से चल रहा है.
पहली बार मजदूर का किया अंतिम संस्कार
संतोष ने इस काम की शुरूआत कब और कैसे की, इस सवाल पर वे कहती हैं कि करीब 13-14 साल पहले कुछ लोग उनके पास आये थे. वे मजदूर थे. ये लोग मजदूरी करने जयपुर आये थे. उनके साथी की मौत हो गई थी. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि शव को गांव तक ले जा सकें. तब पहली बार गरीब मजदूर के शव का पूरे विधि विधान से अंतिम संस्कार करवाया. उन लोगों को कुछ पैसे दिए ताकि वे अस्थियों को गंगा में विसर्जित कर सकें.
आपत्तियां हुईं, जारी रखा काम
संतोष बताती हैं तब पहली बार मैं मोक्षधाम आई थी. तब लगा कि कितने ही लोग लावारिस मर जाते हैं, उनका अंतिम संस्कार कौन करता होगा. यह बात मन में आई तो तय कर लिया कि लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का बीड़ा उठाउंगी. शुरूआत में कुछ लोगों को आपत्तियां भी हुईं. महिला के श्मशान जाने और अंतिम संस्कार कराने पर सवाल उठे, लेकिन गीता में इस कार्य को सबसे बड़ा पुण्य बताया गया है.
पुलिस और अस्पताल से मिलती है सूचना
लावारिस शव की सूचना संतोष को पुलिस और एसएमएस अस्पताल के जरिये मिलती है. अस्पताल की मोर्चरी में रखी ऐसी लावारिस लाश जिसके वारिस सामने नहीं आते, उनके बारे में पुलिस और एसएमएस अस्पताल प्रशासन कागजी कार्रवाई को अंजाम देने के बाद संतोष जैसवाल से संपर्क करते हैं और उन्हें लावारिश शव के बारे में जानकारी देते हैं. तब संतोष या तो अपने साधनों से शव को मोक्षधाम ले आती हैं या फिर एंबुलेंस के जरिये शव मोक्षधाम तक पहुंचा दिया जाता है. इसके बाद संतोष खुद लावारिश शव का अंतिम संस्कार करवाती हैं.
राह नहीं थी आसान
सामाजिक कुरीतियों से जकड़े समाज में संतोष की यह राह आसान नहीं रही. संतोष कहती हैं कि इस कार्य को शुरू किया तब खूब आलोचना हुई. भला-बुरा कहा गया. लेकिन किसी की परवाह नहीं की और अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ती रही. संतोष कहती है कि मैं नियमित भागवत गीता पढ़ती हूं, गीता में कहीं नहीं लिखा कि महिलाएं मोक्षधाम नहीं जा सकती. गीता में अंतिम संस्कार को श्रेष्ठ कर्म बताया गया है.
कोरोना काल में भी जब शवों का अंतिम संस्कार करने के लिए अपने ही आगे नहीं आ रहे थे तब भी संतोष ने इस मिशन को रुकने नहीं दिया. संतोष बताती हैं कि कोरोना की पहली और दूसरी लहर में जब लोग अपने परिवार के सदस्यों का भी अंतिम संस्कार करने से कतरा रहे थे, तब भी 3500 से ज्यादा शवों का अंतिम संस्कार किया था.
समाज सेवा के क्षेत्र में महिलाएं लगातार अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं. बल्कि अब समाजसेवा में भी उन क्षेत्रों का रुख कर रही हैं, जहां उनका प्रवेश एक तरह से वर्जित रहा है. संतोष जैसवाल न केवल पुण्य का काम कर रही हैं, बल्कि सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार भी कर रही हैं.