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SPECIAL: एक जिद से हरा-भरा हुआ सूखा लापोडिया, पशुपालन से रुका पलायन

जयपुर शहर से 80 किलोमीटर की दूरी पर लापोडिया गांव के लोग अस्सी के दशक में सूखे के कारण राजधानी की ओर पलायन करने लगे थे. गांव का हर युवा जयपुर में जाकर रोजगार खोलने का सपना देख रहा था. लेकिन 40 बरस में गांव की स्थिति ऐसे बदली कि अब रोजगार की तलाश में आसपास के लोग लापोडिया आने लगे हैं.

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पशुपालन से रुका पलायन
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Published : Sep 1, 2020, 3:06 PM IST

जयपुर. लापोडिया गांव सिर्फ पानी बचाने के लिए ही नहीं पशुपालन और गांव की स्थिति सुधारने के लिए भी जाना जाता है. लापोडिया पशुपालन के क्षेत्र में एक अग्रणी गांव बन गया है. साथ ही यहां की ग्रीन बेल्ट भी इस गांव को अनूठी पहचान दिलाती है. ईटीवी भारत जल क्रांति सीरीज के तीसरे पार्ट में आपको लापोडिया के आत्मनिर्भर बनने की कहानी से रूबरू करा रहा है.

हरा भरा हुआ लापोडिया गांव

जब रोजगार बनी बड़ी समस्या...

अस्सी के दशक में जयपुर शहर से 80 किलोमीटर की दूरी पर लापोडिया गांव के लोग सूखे के कारण राजधानी की ओर पलायन करने लगे थे. गांव का हर युवा जयपुर में जाकर रोजगार खोलने का सपना देख रहा था. ऐसे दौर में साल 1988 में गांव के ठिकानेदार परिवार के सदस्य लक्ष्मण सिंह ने अपने गांव के लिए कुछ करने की ठानी और जयपुर से लौटकर गांव में ग्राम विकास नवयुवक मंडल का गठन किया. ताकि गांव के युवाओं को एकजुट कर सार्थक प्रयास किए जाएं और पलायन को रोका जाए. परंतु उनके सामने चुनौती शेष थी कि कैसे गांव में रोजगार सृजित किया जाए. उन्होंने गांव की दशा और स्थिति को देखते हुए पानी को जमा करते हुए कृषि और पशुपालन पर फोकस किया. जिसके बाद 40 बरस में गांव की स्थिति ऐसे तब्दील हुई कि अब रोजगार की तलाश में आसपास के लोग लापोडिया आने लगे हैं.

चारागाह क्षेत्र का हुआ विस्तार

पशुपालन के रोजगार से रुका पलायन...

लक्ष्मण सिंह लापोडिया, गांव में ये एक ऐसा नाम बना कि आज लापोडिया गांव जल संरक्षण के साथ-साथ रोजगार के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होकर अपनी पहचान को मजबूत बनाते जा रहा है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' नाम की किताब पढ़ी और उसके बाद गांव के देव सागर तालाब को संवारने का संकल्प लिया.

पढें- SPECIAL: जल क्रांति का वाहक बना 'लापोडिया', 50 से ज्यादा गांवों में दूर हुआ पानी का संकट

वे बताते हैं कि इस काम में गांव का हर शख्स उनके साथ आया और रोली-मोली हाथ में लेकर तालाब को बचाने की शपथ ली. परंतु तालाब बचाने के साथ-साथ इसे जीवित रखने के लिए इसमें पानी चाहिए था और इस पानी की बदौलत खेती और पशुपालन में आत्मनिर्भर बनाना था. इसलिए गांव के चारागाह क्षेत्र पर काम शुरू हुआ, जहां बरसात के पानी को सहेजने के लिए गांव वालों के प्रयास से चौके बनाए गए.

लगभग एक दशक मेहनत करने के बाद इन चौकों की बदौलत गांव का आसपास का क्षेत्र हरे भरे वन में तब्दील हो गया. चारागाह क्षेत्र में 30 प्रकार की घास साल भर मौजूद रहने लगी. जिसके कारण पशुधन से गांव समृद्ध हो गए, लक्ष्मण सिंह लापोडिया कहते हैं कि एक वक्त गांव के हर घर में मवेशी होना संभव नहीं था. क्योंकि गांव वालों के पास चारे पानी का इंतजाम नहीं था. ऐसे में उन्होंने निजी प्रयासों से पैसा जमा कर गुजरात से गिर गाय संवर्धन के लिए 80 नंदी मंगवाए. जिनके कारण आसपास के क्षेत्र में गायों की नस्ल में सुधार हुआ और आज यहां की गिर गाय रोजाना 15 लीटर दूध दिया करती है. जिससे घर की जरूरतों को पूरा करने के बाद दूध को बेचा जाता है. क्षेत्र में बड़ी संख्या में पशुपालन होता है. पशुपालकों के पास गाय के अलावा भैंस और बकरी के भी रूप में बड़ा पशुधन मौजूद है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया की टीम में काम करने वाले हनुमान सिंह बताते हैं कि आप इस गांव से रोजाना 10,000 लीटर से ज्यादा दूध जयपुर जैसे शहर को निर्यात किया जाता है.

गांववालों ने निखारा गोचर..

गांव वालों ने निखारा गोचर...

लापोडिया गांव के लोगों का अपनी गोचर भूमि को सुधारने के लिए छोटी-छोटी बैठकों से शुरू हुआ काम बड़े बड़े फैसले के बाद साकार हो पाया. गांव के लोगों ने गांव के लिए कुछ ऐसे नियम तय किए.

  • पशुपालक अपने साथ कुल्हाड़ी लेकर नहीं जाएगा
  • घास को नहीं खोदा जाएगा
  • वन्य जीव को नहीं मारा जाएगा
  • प्रकृति का संरक्षण किया जाएगा
  • पक्षियों को घोंसला और अंडा देने के लिए स्थान सुरक्षित रहेगा

यूं तैयार हुआ प्रकृति को संरक्षित रखने का बेल्ट, नाम रखा 'देव-बनी'

गांव के सबसे बड़े अन्न सागर तालाब के बीच में लाखेटा (टापू) के रूप में एक सुरक्षित भूमि को भी इसी परिपेक्ष में तैयार किया गया. लापोडिया समेत आसपास के गांवों ने प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए ग्रीन बेल्ट के रूप में वन्य भूमि को भी बचाने के लिए प्रयास शुरू किए हैं. जिस तरह से पशुधन के लिए गोचर भूमि को आरक्षित किया गया, पानी के लिए तालाब बनाए गए. उसी प्रकार से वन्यजीवों के लिए देव-बनी को निर्धारित किया गया. जहां पेड़ों पर पक्षी स्वछंद माहौल में घोंसले बनाकर अंडे दे सके, वन्य जीव अपने वंश की वृद्धि कर सके और इसमें किसी प्रकार का मानव दखल ना हो.

खास बात यह है कि इस देव बनी में चारों तरफ कांटों की झाड़ लगाकर इसे बंद रखा गया है. ताकि पालतू पशुओं का प्रवेश निषेध रहे. इसी प्रकार से गांव के घरों में चूहों को नहीं मारा जाता. पिंजरे में पकड़ने के बाद देव बनी के नजदीक बने चूहा घर नाम के हरे भरे क्षेत्र में इन चूहों को खुला छोड़ दिया जाता है. इस प्रकार लापोडिया गांव के लोग प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर करते हैं. गांव के सबसे बड़े तालाब अन्न सागर के नजदीक रिजर्व ग्रीन बेल्ट भी रखा गया है ताकि अकाल के समय में अगर पशुओं के चरने के लिए जगह नहीं हो, तो उस क्षेत्र में मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल किया जा सके.

गोचर सत्याग्रह का ऐसा है किस्सा...

लक्ष्मण सिंह लापोडिया की ओर से गोचर भूमि को बचाने के लिए किए गए प्रयासों को लेकर गांव में किस्सा खासा प्रचलित है. 16 सितंबर 1995 को गांव की ग्राम पंचायत में गोचर भूमि में पेड़ कटाई का ठेका मात्र ₹2000 में छोड़ दिया था. इसके बाद लक्ष्मण सिंह लापोडिया के साथ मिलकर गांव के लोगों ने गोचर सत्याग्रह शुरू किया. गांव के लोग दिन और रात की ठंड में खुले गोचर में बारी-बारी बैठकर पहरा देते थे. क्या बच्चे, क्या बड़े, इसमें हर उम्र के लोग शामिल थे. एक साथ युवा, महिलाएं और परिवार के छोटे-छोटे बच्चे भी इस सत्याग्रह में शामिल हुए.

पढें- SPECIAL: लापोडिया का चौका सिस्टम बना वरदान, पानी सहेजने की इस तकनीक से 58 गांव बने आत्मनिर्भर

बताया जाता है कि इस दौरान पुलिस, कलेक्टर और छोटे बड़े अधिकारी, पटवारी हमेशा गांव में डेरा जमाए रहते थे. लेकिन इस पूरे किस्से में गांव वालों के सत्याग्रह की जीत हुई और आज भी गोचर भूमि एक बड़े हरे भरे क्षेत्र में तब्दील हो गई. इस दौरान विलायती बबूल को हटाने के लिए एक बड़ा अभियान भी छेड़ा गया था कि गोचर भूमि को सुरक्षित रखा जा सके. बताया जाता है कि संरक्षित गोचर भूमि में लुप्त हो रही पसरकटेली, ऊंटकटेला और खरगोश चूंटी के साथ-साथ गंदेल और लापना-झेरना जैसी लुप्त प्राय खास भी अब मैदानों को हरा भरा रखने लगी है.

यहां सुरक्षित रहते हैं सभी पशु-पक्षी

दुग्ध क्रांति से मिला रोजगार...

किसी वक्त उजड़े और पिछड़े गांव की पहचान लिए हुए लापोडिया में आज की तस्वीर बिल्कुल उलट है. गांव से जयपुर डेयरी को 30 लाख रुपए का दूध भेजा जाता है. लापोडिया गांव के लोगों के अनुसार चौका सिस्टम से जमीन में नमी बनती है और इसके बाद घास के मैदान लहराने से पशुधन के चारे की समस्या का समाधान हो जाता है. इसके बाद गांव का हर घर खेती के साथ-साथ प्रमुख रूप से पशुपालन को भी अपने रोजगार में शामिल कर लेता है.

परम्परागत पशु खेलों का योगदान...

लापोडिया गांव के लोग पशु प्रेम के साथ-साथ पशुओं पर आधारित खेलों को भी अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं. हर दशहरे पर पशु पूजन गांव की प्रमुख रीति रिवाज का हिस्सा है. दीपावली पर गाय और बैलों को अलग से पकवान बनाकर खिलाए जाते हैं. जब फसल कट जाती है और खेत खाली होते हैं, तब पशु दौड़ का भी यहं आयोजन किया जाता है. घास बाबा की दौड़ के आयोजन में बैलों के पीछे पत्थर बांधकर उसे लंबी दूरी तक दौड़ाना भी इनके प्रमुख खेलों का हिस्सा है.

खरगोश के चबूतरे का अलग है किस्सा ...

प्रकृति को बचाने और गांव को समृद्ध बनाने के लिए लोग गांव के चुग्गा घर में अपनी सालाना उपज का हिस्सा उपलब्ध करवाते हैं, ताकि पक्षियों के लिए चुग्गा उपलब्ध रहे और वे उनके जंगलों में बीजों को प्रकीर्णन की प्रक्रिया में शामिल कर सके. इसी प्रकार से वन्यजीवों को बचाने के लिए शिकार पर भी पाबंदी लगाई गई है.

पुराना किस्सा है कि जब गांव में एक खरगोश का शिकार हुआ, तो गांव वालों ने दोषियों को पकड़कर सार्वजनिक रूप से दंडित किया. फिर खरगोश की शव यात्रा निकालकर उसके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को पूरा किया गया. इस संदेश को देने के लिए गांव में खरगोश का चबूतरा भी बनवाया गया.

कुल मिलाकर लापोडिया ना सिर्फ पानी, बल्कि चारागाह, दूध, रोजगार और प्रकृति को संरक्षित कर आत्मनिर्भर गांव बन चुका है. कृषि प्रधान देश के पहचान के रूप में लापोडिया गांव समृद्धि का रास्ता साकार करते हुए नजर आता है.

जयपुर. लापोडिया गांव सिर्फ पानी बचाने के लिए ही नहीं पशुपालन और गांव की स्थिति सुधारने के लिए भी जाना जाता है. लापोडिया पशुपालन के क्षेत्र में एक अग्रणी गांव बन गया है. साथ ही यहां की ग्रीन बेल्ट भी इस गांव को अनूठी पहचान दिलाती है. ईटीवी भारत जल क्रांति सीरीज के तीसरे पार्ट में आपको लापोडिया के आत्मनिर्भर बनने की कहानी से रूबरू करा रहा है.

हरा भरा हुआ लापोडिया गांव

जब रोजगार बनी बड़ी समस्या...

अस्सी के दशक में जयपुर शहर से 80 किलोमीटर की दूरी पर लापोडिया गांव के लोग सूखे के कारण राजधानी की ओर पलायन करने लगे थे. गांव का हर युवा जयपुर में जाकर रोजगार खोलने का सपना देख रहा था. ऐसे दौर में साल 1988 में गांव के ठिकानेदार परिवार के सदस्य लक्ष्मण सिंह ने अपने गांव के लिए कुछ करने की ठानी और जयपुर से लौटकर गांव में ग्राम विकास नवयुवक मंडल का गठन किया. ताकि गांव के युवाओं को एकजुट कर सार्थक प्रयास किए जाएं और पलायन को रोका जाए. परंतु उनके सामने चुनौती शेष थी कि कैसे गांव में रोजगार सृजित किया जाए. उन्होंने गांव की दशा और स्थिति को देखते हुए पानी को जमा करते हुए कृषि और पशुपालन पर फोकस किया. जिसके बाद 40 बरस में गांव की स्थिति ऐसे तब्दील हुई कि अब रोजगार की तलाश में आसपास के लोग लापोडिया आने लगे हैं.

चारागाह क्षेत्र का हुआ विस्तार

पशुपालन के रोजगार से रुका पलायन...

लक्ष्मण सिंह लापोडिया, गांव में ये एक ऐसा नाम बना कि आज लापोडिया गांव जल संरक्षण के साथ-साथ रोजगार के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होकर अपनी पहचान को मजबूत बनाते जा रहा है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' नाम की किताब पढ़ी और उसके बाद गांव के देव सागर तालाब को संवारने का संकल्प लिया.

पढें- SPECIAL: जल क्रांति का वाहक बना 'लापोडिया', 50 से ज्यादा गांवों में दूर हुआ पानी का संकट

वे बताते हैं कि इस काम में गांव का हर शख्स उनके साथ आया और रोली-मोली हाथ में लेकर तालाब को बचाने की शपथ ली. परंतु तालाब बचाने के साथ-साथ इसे जीवित रखने के लिए इसमें पानी चाहिए था और इस पानी की बदौलत खेती और पशुपालन में आत्मनिर्भर बनाना था. इसलिए गांव के चारागाह क्षेत्र पर काम शुरू हुआ, जहां बरसात के पानी को सहेजने के लिए गांव वालों के प्रयास से चौके बनाए गए.

लगभग एक दशक मेहनत करने के बाद इन चौकों की बदौलत गांव का आसपास का क्षेत्र हरे भरे वन में तब्दील हो गया. चारागाह क्षेत्र में 30 प्रकार की घास साल भर मौजूद रहने लगी. जिसके कारण पशुधन से गांव समृद्ध हो गए, लक्ष्मण सिंह लापोडिया कहते हैं कि एक वक्त गांव के हर घर में मवेशी होना संभव नहीं था. क्योंकि गांव वालों के पास चारे पानी का इंतजाम नहीं था. ऐसे में उन्होंने निजी प्रयासों से पैसा जमा कर गुजरात से गिर गाय संवर्धन के लिए 80 नंदी मंगवाए. जिनके कारण आसपास के क्षेत्र में गायों की नस्ल में सुधार हुआ और आज यहां की गिर गाय रोजाना 15 लीटर दूध दिया करती है. जिससे घर की जरूरतों को पूरा करने के बाद दूध को बेचा जाता है. क्षेत्र में बड़ी संख्या में पशुपालन होता है. पशुपालकों के पास गाय के अलावा भैंस और बकरी के भी रूप में बड़ा पशुधन मौजूद है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया की टीम में काम करने वाले हनुमान सिंह बताते हैं कि आप इस गांव से रोजाना 10,000 लीटर से ज्यादा दूध जयपुर जैसे शहर को निर्यात किया जाता है.

गांववालों ने निखारा गोचर..

गांव वालों ने निखारा गोचर...

लापोडिया गांव के लोगों का अपनी गोचर भूमि को सुधारने के लिए छोटी-छोटी बैठकों से शुरू हुआ काम बड़े बड़े फैसले के बाद साकार हो पाया. गांव के लोगों ने गांव के लिए कुछ ऐसे नियम तय किए.

  • पशुपालक अपने साथ कुल्हाड़ी लेकर नहीं जाएगा
  • घास को नहीं खोदा जाएगा
  • वन्य जीव को नहीं मारा जाएगा
  • प्रकृति का संरक्षण किया जाएगा
  • पक्षियों को घोंसला और अंडा देने के लिए स्थान सुरक्षित रहेगा

यूं तैयार हुआ प्रकृति को संरक्षित रखने का बेल्ट, नाम रखा 'देव-बनी'

गांव के सबसे बड़े अन्न सागर तालाब के बीच में लाखेटा (टापू) के रूप में एक सुरक्षित भूमि को भी इसी परिपेक्ष में तैयार किया गया. लापोडिया समेत आसपास के गांवों ने प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए ग्रीन बेल्ट के रूप में वन्य भूमि को भी बचाने के लिए प्रयास शुरू किए हैं. जिस तरह से पशुधन के लिए गोचर भूमि को आरक्षित किया गया, पानी के लिए तालाब बनाए गए. उसी प्रकार से वन्यजीवों के लिए देव-बनी को निर्धारित किया गया. जहां पेड़ों पर पक्षी स्वछंद माहौल में घोंसले बनाकर अंडे दे सके, वन्य जीव अपने वंश की वृद्धि कर सके और इसमें किसी प्रकार का मानव दखल ना हो.

खास बात यह है कि इस देव बनी में चारों तरफ कांटों की झाड़ लगाकर इसे बंद रखा गया है. ताकि पालतू पशुओं का प्रवेश निषेध रहे. इसी प्रकार से गांव के घरों में चूहों को नहीं मारा जाता. पिंजरे में पकड़ने के बाद देव बनी के नजदीक बने चूहा घर नाम के हरे भरे क्षेत्र में इन चूहों को खुला छोड़ दिया जाता है. इस प्रकार लापोडिया गांव के लोग प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर करते हैं. गांव के सबसे बड़े तालाब अन्न सागर के नजदीक रिजर्व ग्रीन बेल्ट भी रखा गया है ताकि अकाल के समय में अगर पशुओं के चरने के लिए जगह नहीं हो, तो उस क्षेत्र में मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल किया जा सके.

गोचर सत्याग्रह का ऐसा है किस्सा...

लक्ष्मण सिंह लापोडिया की ओर से गोचर भूमि को बचाने के लिए किए गए प्रयासों को लेकर गांव में किस्सा खासा प्रचलित है. 16 सितंबर 1995 को गांव की ग्राम पंचायत में गोचर भूमि में पेड़ कटाई का ठेका मात्र ₹2000 में छोड़ दिया था. इसके बाद लक्ष्मण सिंह लापोडिया के साथ मिलकर गांव के लोगों ने गोचर सत्याग्रह शुरू किया. गांव के लोग दिन और रात की ठंड में खुले गोचर में बारी-बारी बैठकर पहरा देते थे. क्या बच्चे, क्या बड़े, इसमें हर उम्र के लोग शामिल थे. एक साथ युवा, महिलाएं और परिवार के छोटे-छोटे बच्चे भी इस सत्याग्रह में शामिल हुए.

पढें- SPECIAL: लापोडिया का चौका सिस्टम बना वरदान, पानी सहेजने की इस तकनीक से 58 गांव बने आत्मनिर्भर

बताया जाता है कि इस दौरान पुलिस, कलेक्टर और छोटे बड़े अधिकारी, पटवारी हमेशा गांव में डेरा जमाए रहते थे. लेकिन इस पूरे किस्से में गांव वालों के सत्याग्रह की जीत हुई और आज भी गोचर भूमि एक बड़े हरे भरे क्षेत्र में तब्दील हो गई. इस दौरान विलायती बबूल को हटाने के लिए एक बड़ा अभियान भी छेड़ा गया था कि गोचर भूमि को सुरक्षित रखा जा सके. बताया जाता है कि संरक्षित गोचर भूमि में लुप्त हो रही पसरकटेली, ऊंटकटेला और खरगोश चूंटी के साथ-साथ गंदेल और लापना-झेरना जैसी लुप्त प्राय खास भी अब मैदानों को हरा भरा रखने लगी है.

यहां सुरक्षित रहते हैं सभी पशु-पक्षी

दुग्ध क्रांति से मिला रोजगार...

किसी वक्त उजड़े और पिछड़े गांव की पहचान लिए हुए लापोडिया में आज की तस्वीर बिल्कुल उलट है. गांव से जयपुर डेयरी को 30 लाख रुपए का दूध भेजा जाता है. लापोडिया गांव के लोगों के अनुसार चौका सिस्टम से जमीन में नमी बनती है और इसके बाद घास के मैदान लहराने से पशुधन के चारे की समस्या का समाधान हो जाता है. इसके बाद गांव का हर घर खेती के साथ-साथ प्रमुख रूप से पशुपालन को भी अपने रोजगार में शामिल कर लेता है.

परम्परागत पशु खेलों का योगदान...

लापोडिया गांव के लोग पशु प्रेम के साथ-साथ पशुओं पर आधारित खेलों को भी अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं. हर दशहरे पर पशु पूजन गांव की प्रमुख रीति रिवाज का हिस्सा है. दीपावली पर गाय और बैलों को अलग से पकवान बनाकर खिलाए जाते हैं. जब फसल कट जाती है और खेत खाली होते हैं, तब पशु दौड़ का भी यहं आयोजन किया जाता है. घास बाबा की दौड़ के आयोजन में बैलों के पीछे पत्थर बांधकर उसे लंबी दूरी तक दौड़ाना भी इनके प्रमुख खेलों का हिस्सा है.

खरगोश के चबूतरे का अलग है किस्सा ...

प्रकृति को बचाने और गांव को समृद्ध बनाने के लिए लोग गांव के चुग्गा घर में अपनी सालाना उपज का हिस्सा उपलब्ध करवाते हैं, ताकि पक्षियों के लिए चुग्गा उपलब्ध रहे और वे उनके जंगलों में बीजों को प्रकीर्णन की प्रक्रिया में शामिल कर सके. इसी प्रकार से वन्यजीवों को बचाने के लिए शिकार पर भी पाबंदी लगाई गई है.

पुराना किस्सा है कि जब गांव में एक खरगोश का शिकार हुआ, तो गांव वालों ने दोषियों को पकड़कर सार्वजनिक रूप से दंडित किया. फिर खरगोश की शव यात्रा निकालकर उसके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को पूरा किया गया. इस संदेश को देने के लिए गांव में खरगोश का चबूतरा भी बनवाया गया.

कुल मिलाकर लापोडिया ना सिर्फ पानी, बल्कि चारागाह, दूध, रोजगार और प्रकृति को संरक्षित कर आत्मनिर्भर गांव बन चुका है. कृषि प्रधान देश के पहचान के रूप में लापोडिया गांव समृद्धि का रास्ता साकार करते हुए नजर आता है.

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