अजमेर. कहते हैं प्रेम कि कोई जात नहीं होती, वो तो निश्छल प्रेम और निर्मल होता है, सिर्फ भावनाओं से ही वशीभूत होता है. ऐसी ही एक कहानी है 'कान्हा' जिसे लिखा है हिंदी साहित्य की प्रोफेसर डॉ. शमा खान ने. यह एक ऐसी कहानी है जो बताती है कि किसी भी धर्म, पंथ और संप्रदाय के जटिल नियमों से भी बड़ा और मुख्य नियम है भावनाओं का प्रेम. अगर कोई इसमें रम जाए तो फिर सब रंग फिखे पड़ जाते हैं.
डॉ. शमा अपनी रूहानी कहानी 'कान्हा' के लिखने के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए बताती हैं कि उन्हें शुरू से ही कान्हा के बालपन के किरदार से विशेष लगाव रहा है. वह मुस्लिम संप्रदाय से जरूर हैं और जहां पर मूर्ति पूजा स्वीकार्य नहीं है. बावजूद इसके अपने हिंदी साहित्य के अध्ययन के दौरान से ही जिस प्रकार की कान्हा की अठखेलियां शरारतों का विश्लेषण अनेक रचनाओं में पढ़ा है उससे उनके प्रति एक निश्छल प्रेम का भाव पता नहीं कब मन में बैठ गया.
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शमा का कहना है कि 'कान्हा' के बार-बार के चिंतन की वजह से वह जहां भी जाती हैं उन्हें कहीं ना कहीं कोई बालक जिसमें कान्हा का ही रूप दिखता है, वह मिल जाता है. इसी बीच जब 2015-16 के दौरान वह किशनगढ़ में कार्यरत थीं तब उनके सहयोगी प्रोफेसर ने उन्हें कान्हा के प्रति उत्पन्न होने वाले इन भावों को एक कहानी के रूप में लिखने का सुझाव दिया. जिसके बाद एक अनोखी रूहानी कहानी 'कान्हा' अस्तित्व में आयी. इस कहानी में लेखिका के बाल कान्हा के प्रेम के भावों को अनेक विभिन्न परिस्थितियों में भी एकाकरता के रूप में प्रमुखता से दर्शाया गया है.
डॉ. शमा बताती हैं कि बंसी बजैया कान्हा से उनका लगाव इतना ज्यादा है कि वह अक्सर उनके सपनों में भी आते हैं. कचरा बीनने वाले बच्चे में भी प्रेम और करुणा के रूपक कान्हा की ही छवि देखती है. उसके नन्हे हाथ कान्हा के ही हाथ जैसे महसूस होते हैं. डॉ. शमा जब अपनी सहेली के साथ हनुमान मंदिर में जाती है तो उस मूर्ति में भी उसी बाल कान्हा की ही छवि दिखाई देती है.
इसी प्रकार छठी के दौरान जब लेखिका ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह पर जाती है तब भी मन में भाव कान्हा के ही चल रहे होते हैं. तभी पता नहीं कहां से एक बालक उनके पास आता है तो अनायास ही स्तब्ध होकर लेखिका उसको बाल कान्हा मान जकात का पैसा उसके नन्हे हाथों में रख देती हैं.बिना यह सोचे कि धार्मिक बंधन इसका समर्थन करेंगे या नहीं.
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प्रोफेसर शमा खान बताती हैं कि कान्हा एक भाव है. वह प्रेम का प्रतीक है और वो दिल की गहराइयों से भी उत्पन्न होता है और फिर सर्वत्र यही बाल रूप में दृश्यमान होता है. अपने आप ही परिस्थितियां भी सहयोगवश उसी भाव में गूंथती चली जाती हैं. लेखिका के 'कान्हा' प्रेम न जाती देखता है न पंथ न संप्रदाय न अल्लाह न भगवान. डॉ. शमा खान की यह रूहानी कहानी 'कान्हा' सर्वप्रथम कला अंकुर संस्था के माध्यम से आमजन तक पहुंची थी. उसके बाद आकाशवाणी जयपुर से इसका प्रसारण किया गया. वहीं, यह राजस्थान साहित्य पत्रिका मधुमति सहित कई मंचों पर इसका प्रकाशन भी किया जा चुका है.