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MP Cast Politics: संत रविदास मंदिर की आड़ में ये है BJP का सियासी गणित, Congress व BSP के वोटबैंक में सेंध लगाने की प्लानिंग

सागर के बड़तूमा बनने वाले संत रविदास मंदिर का भूमिपूजन प्रधानमंत्री मोदी ने शनिवार को किया. बीजेपी इसे सामाजिक समरसता के तौर पर पेश कर रही है, लेकिन असल में भाजपा संत रविदास के जरिए दलित वोट बैंक की सबसे बड़ी जातियों अहिरवार और जाटव को साधने की कोशिश में हैं. संत रविदास के अनुयायियों की संख्या मध्यप्रदेश के अलावा, महाराष्ट्र और यूपी में भी है. कोशिश ये है कि कांग्रेस और बसपा के जनाधार में सेंध लगाई जाए.

Sant Ravidas temple political equation of BJP
संत रविदास मंदिर की आड़ में ये है BJP का सियासी गणित
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Published : Aug 12, 2023, 5:39 PM IST

सागर। संत रविदास मंदिर की ओट में मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों में दलित वोटों को साधने की कोशिश में बीजेपी है. मध्यप्रदेश के 2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा को दलित सीटों पर कांग्रेस के मुकाबले कम सीटें मिली थीं. जबकि 2013 में भाजपा ने दलित सीटों पर बड़ी जीत हासिल की थी. संत रविदास मंदिर दलित वोट बैंक के उन अनुयायियों को साधने की कोशिश है, जो रविदास पंथ के अनुयायी हैं. वहीं, दूसरी ओर रविदास मंदिर को लेकर सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं. क्योंकि दलित संत और महापुरुषों के लिहाज से मध्यप्रदेश की पहचान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जन्मभूमि के रूप में है. इंदौर के महू में उनका जन्म हुआ था, लेकिन अंबेडकर के अनुयायियों का झुकाव ज्यादातर बौद्ध धर्म की तरफ हो रहा है.

अहिरवार और जाटव समाज पर नजर : मध्य प्रदेश में दलितों की 41 जातियों में से सबसे ज्यादा अहिरवार और जाटव समाज है, जो संत रविदास का अनुयायी है. मध्यप्रदेश में बुंदेलखंड और चंबल में अहिरवार और जाटव समाज सबसे ज्यादा हैं. इसके अलावा उज्जैन और मालवा में भी कुछ इलाकों में संत रविदास के अनुयायी काफी संख्या में हैं. रविदासिया, रविदास और रैदास पंथ के नाम से जाने जाने वाले इस पंथ के अनुयायी मध्यप्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, पंजाब, यूपी और पश्चिम बंगाल में हैं.

संत रविदास मंदिर सागर में ही क्यों : सवाल ये है कि सागर में रविदास मंदिर क्यों बनाया जा रहा है. दरअसल, सागर-कानपुर मार्ग पर एक कस्बा कर्रापुर है. संत रविदास बनारस से चित्तौड़गढ़ के लिए निकले थे, तब करीब साढ़े छह सौ साल पहले संत रविदास आये थे और उनका दरबार लगा था. जब कर्रापुर का नाम केहरपुर हुआ करता था. तब संत रविदास ने यहां रात्रि विश्राम भी किया था. संत रविदास जहां रुके थे, वहां एक डेरा (आश्रम) स्थापित है. जहां देश भर के संत रविदास अनुयायी पहुंचते हैं.

चुनावों के मद्देनजर सारी मशक्कत : भाजपा भले ही इस कार्यक्रम को सामाजिक समरसता से जोड़कर पेश कर रही है. लेकिन पूरी कवायद कांग्रेस और बसपा का वोट बैंक माने जाने वाले दलित समुदाय के अहिरवार और जाटव मतदाताओं को भाजपा की तरफ लाने की की है. मध्यप्रदेश में बुंदेलखंड में अहिरवार और ग्वालियर चंबल में जाटव मतदाता काफी संख्या में हैं. कई सीटों पर हार जीत का फैसला दलित वोट बैंक के रूख को देखकर होता है. इसलिए भाजपा संत रविदास के जरिए दलित वोट को साधने की कवायद शुरू की है. मध्यप्रदेश में 35 सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं. अनुसूचित जाति वर्ग में 41 उपजातियां हैं, लेकिन बुंदेलखंड में अहिरवार और ग्वालियर चंबल का जाटव वोट बैंक भाजपा से जमकर नाराज हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को झटका : पिछले विधानसभा चुनाव के पहले अप्रैल माह में आरक्षण को लेकर दलितों ने ग्वालियर चंबल में जमकर प्रदर्शन किया था. इस दौरान हुए विवाद में गोली चलने और अनूसूचित जाति के लोगों पर सरकार ने हजारों की संख्या में प्रकरण दर्ज किए थे. इससे इस वर्ग का भाजपा से मोहभंग हो गया. अहिरवार व जाटव की नाराजगी नतीजा ये हुआ कि 2018 में एससी के लिए आरक्षित 35 सीटों में से 18 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की और अन्य सीटों पर भी भाजपा का गणित एससी मतदाताओं ने बिगाड दिया.

मध्यप्रदेश में दलित वोट बैंक का गणित : मध्यप्रदेश में दलित वोट बैंक के गणित की बात करें तो साढे़ सात करोड आबादी में करीब 80 लाख वोटर अनुसूचित जाति के हैं. जो मध्यप्रदेश की आबादी के लिहाज से करीब 17 फीसदी हैं. वहीं प्रदेश में करीब 80 सीटें ऐसी हैं, जहां अनुसूचित जाति के मतदाताओं का रुख जीत-हार में निर्णायक भूमिका निभाता है. अगर बीजेपी 2013 के विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन अनुसूचित जाति वर्ग की आरक्षित सीटों पर दोहरा देती है, तो भाजपा की सरकार बनना सुनिश्चित होगा. क्योंकि 2013 में विधानसभा चुनाव में भाजपा को अनुसूचित जाति वर्ग की आरक्षित 35 सीटों में से सिर्फ तीन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन अब वैसा प्रदर्शन दोहराना काफी मुश्किल नजर आ रहा है.

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विरोध में कर्रापुर आश्रम : कर्रापुर की जगह बड़तूमा में मंदिर बनाने का विरोध तब से जारी है, जबसे मध्यप्रदेश सरकार ने रविदास मंदिर निर्माण का एलान किया था. कर्रापुर डेरा के प्रमुख पंचमदास विरोध जता चुके हैं. उनका कहना है कि कर्रापुर पूरे देश में संत रविदास के स्थान के रूप में जाना जाता है. सरकार को मंदिर कर्रापुर में बनाना था. 100 करोड़ में दलित समाज के उत्थान के लिए कोई अस्पताल, यूनिवर्सिटी और उद्योग लगा सकते थे. संत रविदास के अनुयायी जो कर्रापुर से जुड़े है, वो इसे कर्रापुर आश्रम के महत्व को कम करने की कवायद के तौर पर देख रहे हैं.

सागर। संत रविदास मंदिर की ओट में मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों में दलित वोटों को साधने की कोशिश में बीजेपी है. मध्यप्रदेश के 2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा को दलित सीटों पर कांग्रेस के मुकाबले कम सीटें मिली थीं. जबकि 2013 में भाजपा ने दलित सीटों पर बड़ी जीत हासिल की थी. संत रविदास मंदिर दलित वोट बैंक के उन अनुयायियों को साधने की कोशिश है, जो रविदास पंथ के अनुयायी हैं. वहीं, दूसरी ओर रविदास मंदिर को लेकर सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं. क्योंकि दलित संत और महापुरुषों के लिहाज से मध्यप्रदेश की पहचान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जन्मभूमि के रूप में है. इंदौर के महू में उनका जन्म हुआ था, लेकिन अंबेडकर के अनुयायियों का झुकाव ज्यादातर बौद्ध धर्म की तरफ हो रहा है.

अहिरवार और जाटव समाज पर नजर : मध्य प्रदेश में दलितों की 41 जातियों में से सबसे ज्यादा अहिरवार और जाटव समाज है, जो संत रविदास का अनुयायी है. मध्यप्रदेश में बुंदेलखंड और चंबल में अहिरवार और जाटव समाज सबसे ज्यादा हैं. इसके अलावा उज्जैन और मालवा में भी कुछ इलाकों में संत रविदास के अनुयायी काफी संख्या में हैं. रविदासिया, रविदास और रैदास पंथ के नाम से जाने जाने वाले इस पंथ के अनुयायी मध्यप्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, पंजाब, यूपी और पश्चिम बंगाल में हैं.

संत रविदास मंदिर सागर में ही क्यों : सवाल ये है कि सागर में रविदास मंदिर क्यों बनाया जा रहा है. दरअसल, सागर-कानपुर मार्ग पर एक कस्बा कर्रापुर है. संत रविदास बनारस से चित्तौड़गढ़ के लिए निकले थे, तब करीब साढ़े छह सौ साल पहले संत रविदास आये थे और उनका दरबार लगा था. जब कर्रापुर का नाम केहरपुर हुआ करता था. तब संत रविदास ने यहां रात्रि विश्राम भी किया था. संत रविदास जहां रुके थे, वहां एक डेरा (आश्रम) स्थापित है. जहां देश भर के संत रविदास अनुयायी पहुंचते हैं.

चुनावों के मद्देनजर सारी मशक्कत : भाजपा भले ही इस कार्यक्रम को सामाजिक समरसता से जोड़कर पेश कर रही है. लेकिन पूरी कवायद कांग्रेस और बसपा का वोट बैंक माने जाने वाले दलित समुदाय के अहिरवार और जाटव मतदाताओं को भाजपा की तरफ लाने की की है. मध्यप्रदेश में बुंदेलखंड में अहिरवार और ग्वालियर चंबल में जाटव मतदाता काफी संख्या में हैं. कई सीटों पर हार जीत का फैसला दलित वोट बैंक के रूख को देखकर होता है. इसलिए भाजपा संत रविदास के जरिए दलित वोट को साधने की कवायद शुरू की है. मध्यप्रदेश में 35 सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं. अनुसूचित जाति वर्ग में 41 उपजातियां हैं, लेकिन बुंदेलखंड में अहिरवार और ग्वालियर चंबल का जाटव वोट बैंक भाजपा से जमकर नाराज हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को झटका : पिछले विधानसभा चुनाव के पहले अप्रैल माह में आरक्षण को लेकर दलितों ने ग्वालियर चंबल में जमकर प्रदर्शन किया था. इस दौरान हुए विवाद में गोली चलने और अनूसूचित जाति के लोगों पर सरकार ने हजारों की संख्या में प्रकरण दर्ज किए थे. इससे इस वर्ग का भाजपा से मोहभंग हो गया. अहिरवार व जाटव की नाराजगी नतीजा ये हुआ कि 2018 में एससी के लिए आरक्षित 35 सीटों में से 18 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की और अन्य सीटों पर भी भाजपा का गणित एससी मतदाताओं ने बिगाड दिया.

मध्यप्रदेश में दलित वोट बैंक का गणित : मध्यप्रदेश में दलित वोट बैंक के गणित की बात करें तो साढे़ सात करोड आबादी में करीब 80 लाख वोटर अनुसूचित जाति के हैं. जो मध्यप्रदेश की आबादी के लिहाज से करीब 17 फीसदी हैं. वहीं प्रदेश में करीब 80 सीटें ऐसी हैं, जहां अनुसूचित जाति के मतदाताओं का रुख जीत-हार में निर्णायक भूमिका निभाता है. अगर बीजेपी 2013 के विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन अनुसूचित जाति वर्ग की आरक्षित सीटों पर दोहरा देती है, तो भाजपा की सरकार बनना सुनिश्चित होगा. क्योंकि 2013 में विधानसभा चुनाव में भाजपा को अनुसूचित जाति वर्ग की आरक्षित 35 सीटों में से सिर्फ तीन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन अब वैसा प्रदर्शन दोहराना काफी मुश्किल नजर आ रहा है.

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विरोध में कर्रापुर आश्रम : कर्रापुर की जगह बड़तूमा में मंदिर बनाने का विरोध तब से जारी है, जबसे मध्यप्रदेश सरकार ने रविदास मंदिर निर्माण का एलान किया था. कर्रापुर डेरा के प्रमुख पंचमदास विरोध जता चुके हैं. उनका कहना है कि कर्रापुर पूरे देश में संत रविदास के स्थान के रूप में जाना जाता है. सरकार को मंदिर कर्रापुर में बनाना था. 100 करोड़ में दलित समाज के उत्थान के लिए कोई अस्पताल, यूनिवर्सिटी और उद्योग लगा सकते थे. संत रविदास के अनुयायी जो कर्रापुर से जुड़े है, वो इसे कर्रापुर आश्रम के महत्व को कम करने की कवायद के तौर पर देख रहे हैं.

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