मुरैना। राजनीतिक दल भले ही 'हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान' का नारा देते हो, लेकिन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार हिंदी को राजभाषा का दर्जा नहीं मिल सका. ना ही हिंदी कार्य और व्यवहार में लाई गई. यही कारण है कि देश की प्राचीन और मूल भाषा होने के बावजूद भी हिंदी सहायक भाषा के तौर पर स्वीकार की गई. वहीं अंग्रेजी मुख्य भाषा के रूप में स्थापित होती चली गई चाहे बैंक कार्यप्रणाली की बात हो, चिकित्सा के क्षेत्र में हो या फिर तकनीकी शिक्षा की बात हो. हर जगह अंग्रेजी में साहित्य उपलब्ध कराया गया और अंग्रेजी में ही वर्तमान से लेकर भावी पीढ़ी तक को शिक्षा दी गई. यही कारण रहा कि अंग्रेजी धीरे-धीरे हिंदी को पीछे छोड़ते हुए देश की जनता में नीचे तक अपनी जगह बनाती चली गई.
हिंदी देश की सबसे प्राचीन और मूल भाषा मानी जाती है. स्वतंत्रता के बाद संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात मिलती है. संविधान में यह कहा गया है कि हिंदी भारत की राजभाषा होगी और देवनागरी लिपि भाषा मानी जाएगी. साथ ही अंग्रेजी को हिंदी की सहायक भाषा के रूप में 15 वर्ष के लिए रखा गया था. 15 साल बाद अंग्रेजी को हिंदी की सहायक भाषा के रूप में स्थाई कर दिया गया. यहीं से हिंदी की अवनति शुरू हो गई और अंग्रेजी की जड़ें हिंदुस्तान में गहरी होती चली गई. अंग्रेजी हिंदुस्तान की सहायक भाषा से धीरे-धीरे व्यापक भाषा के रूप में स्वीकारी जाने लगी.
किसी भी भाषा को और उसके अस्तित्व को बचाना है, तो उस देश की मातृभाषा को राजभाषा और प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा की मुख्य भाषा बनाया जाना चाहिए. तभी वह भाषा व्यक्ति के जीवन में और व्यवहार में उतरती है. साथ ही वह मातृभाषा के रूप में स्वीकार की जा सकती है, लेकिन मातृभाषा में शिक्षा न देना और अपने आप को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए अन्य भाषाओं में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा देना, मातृभाषा के ह्रास का मूल कारण है. हिंदी को देश की मुख्य भाषा और व्यवहारिक भाषा बनाना है, तो देश की समस्त शिक्षा प्रणाली में हिंदी को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के माध्यम का हिस्सा बनाना होगा.