मुरैना। किसी ने सही कहा है... 'कंधों पर है जीवन का बोझ किताबों की जगह है रद्दी का बोझ, जिस मैदान पर खेलना था इनको, उस मैदान को साफ करना इनका जीवन बना, जिस दौर में इन्हें खिलखिलाना था. वह जीवन आंसू पीकर मजबूत बन रहा है. और पेट भरना क्या होता है आज तक इन्हें मालूम नहीं है'. मुरैना जिले में कोरोना काल में लगाए गए लॉकडाउन के कारण बाजारों में तो बच्चों का बचपन दो वक्त की रोटी के लिए बिकता नजर नहीं आया, लेकिन शहर से दूरदराज क्षेत्र में रहने वाले ये मासूम दो वक्त की रोटी के लिए कहीं कचरे के ढेर में तो कहीं तो खेल तमाशा दिखाकर अपनी आजीविका चलाते हैं.
मजबूरी की रोटी
दरअसल ऐसे गरीब किसान परिवार जो सिर्फ मजदूरी पर आधारित रहकर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. इन परिवारों के बच्चे या तो अपने माता पिता के साथ खेतों पर काम करते हैं. या फिर कोई और विकल्प तलाश करके अपना पेट चलाने के लिए संघर्ष करते हैं. सरकार के बनाएं गए बाल श्रम के सभी नियम कानूनों पर तमाचा मारती ये वो तस्वीरे हैं, जोकि ये मजबूर मासूम आज भी दो वक्त की रोटी के लिए ना केवल अपना बचपन बर्बाद कर रहे हैं, बल्कि खुद की जान भी जोखिम में डाल रहे हैं
कीचड़ में सिक्के की आस
21वीं सदी के डिजिटिल इंडिया के दौर में और इस भीषण महामारी में कुछ बच्चे ऐसे भी मिले हैं, जो कबाड़ में अपने जीवन को नष्ट करने में लगे रहते हैं. ऐसा ही कुछ माजरा राष्ट्रीय राजमार्ग के नजदीक कुंवारी नदी पर देखने को मिला, जहां पास के गांव में निवास करने वाले गरीब परिवारों के बच्चे नदी के दलदल और कीचड़ में चंद सिक्के बिनने में अपना पूरा समय बर्बाद कर रहे हैं, और उन चंद पैसों के लालच में उन्हें परिवार और समाज भी रोक नहीं पा रहा है.
जिम्मेदारों को भी नहीं है कोई चिंता
इधर इस मामले में जब कलेक्टर मुरैना प्रियंका दास से बात की गई तो उन्होंने बताया कि यह व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही है. और इसे किसी एक रात में सुधारना संभव नहीं है इसके लिए सामाजिक जन जागृति लाना आवश्यक है.वहीं जब इस संबंध में बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष से बात की गई तो उन्होंने ने सफाई देते हुए कहा है कि वह समय-समय पर इसके लिए काम करते हैं और तमाम बाजारों में काम करने वाले बच्चों को वह सही दिशा में लाने का काम कर चुके है.
बर्बाद हो रहा है इन मासूमों का जीवन
स्कूल जाने के समय पर पशु चराना और पढ़ने के समय पर चंद सिक्के बीनने में अपना समय नष्ट करने वाले इन बच्चों को ना सामाजिक संस्थाएं सही दिशा दे पा रही हैं ना बाल कल्याण समिति इनका मार्गदर्शन कर रही है, और ना ही चाइल्ड लाइन इन बेबस मजदूर बच्चों तक पहुंच पाई है. इन हालातों को देखकर लगता है कि सरकार द्वारा चलाई जा रही यह सारी योजनाएं सिर्फ सरकारी बजट को कागजों में खर्च करने तक सीमित है. गरीब मजदूर और जरूरतमंद परिवारों के बच्चों का न केवल बचपन बल्कि जीवन भी बर्बाद हो रहा है. सरकारों द्वारा बनाए जाने वाले तमाम कानूनों और तमाम योजनाओं के संचालन के बाद भी सरकार के करोड़ों रुपए खर्च होने पर भी हालात जस के तस हैं.
चंद रुपयों में तय होता है मजबूरी का सौदा
ये तस्वीरें ये सच्चाई महज मुरैना जिले बस की नहीं है, देश में बालश्रम के मामले में आए दिन देखने को मिलते रहते हैं. जहां दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करने वाले मासूमों की मजबूरी का सौदा चंद रुपयों में तय हो जाता है. जहां कारखाने, रेस्टोरेंट,दुकानें समेत कई जगहों पर मालिकों द्वारा प्रतिदिन 50 से 100 रुपये देकर मासूम बच्चों से दिन भर काम लेते हैं. इतना ही नहीं बाल श्रमिकों का शारीरिक व मानसिक शोषण भी किया जाता है. हद तो तब पार हो जाती है, जब इन बच्चों के परिजन भी चंद रुपयों के लालच में अपने बच्चों को बाल मजदूरी में धकेल देते हैं.
...और कब तक?
खैर बाल मजदूरी हमारे समाज का वो कड़वा सच है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है. बचपन इंसान की जिंदगी का सबसे हसीन पल होता है. बचपन में न किसी बात की चिंता होती है और न किसी का डर होता है, लेकिन हर इंसान को बचपन में यह पल नसीब हो, यह संभव नहीं है. कुछ मासूमों का बचपन कैसे बर्बाद हो रहा है, मुरैना की तस्वीरें साफ बता रही है.. गरीबी में पेट भरने की जद्दोजहद में काम के बोझ तले दबकर रह जाता है.