मंडला। रक्षाबंधन के त्योहार का अलग ही महत्व है, इस त्योहार में बहन अपने भाई को राखी बांधती है और बदले में भाई अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देता है. लेकिन शहर की अभिलाषा हो, आरती हो या फिर सरिता, सभी को उनके भाई रक्षाबंधन के त्योहार से पहले ससुराल लेने जरूर आते थे और सभी बहनें मायके जरूर जाती थीं लेकिन इस साल भाई बहन के प्यार पर कोरोना भारी पड़ रहा और न तो भाई लेने आ रहे हैं और न ही बहनें अपने मायके जा पा रहीं है. ऐसे में सभी बहनों के मन में वो मलाल है जो इससे पहले कभी न रहा.
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65 साल की नारायणी तिवारी के भाई छिंदवाड़ा में रहते है. महिला बाल विकास विभाग से रिटायर्ड नारायणी तिवारी नौकरी के दौरान भी छुट्टी लेकर अपने दोनों भाई की कलाई राखी बांधने जरूर जाती थीं. सरिता गोयल की शादी के 36 साल हो चुके लेकिन इन 36 सालों में ऐसा पहली बार हो रहा कि वे जबलपुर अपने मायके नहीं जा पा रहीं, यही कुछ कहना है आरती और अभिलाषा जैसी उन तमाम बहनों का जिनके भाई इस साल उन्हें कोरोना के चलते हुए लॉक डाउन के कारण न तो ससुराल लीबाने आ रहे और घर पर साधन होने के बाद भी दूसरे शहरों में लॉक डाउन होने के चलते वे मायके नहीं जा पा रहीं.
रक्षाबंधन भाई और बहन के पवित्र रिस्ते का वो पर्व है जिसमें एक साधारण सा धागा बहन के द्वारा भाई की कलाई में बाँधते ही वो रक्षा सूत्र बन जाता है, वहीं भाई भी इस दिन अपनी बहन को हमेशा रक्षा का वचन देता है इस प्यारे से रिस्ते के गवाह बनते हैं माता पिता और यही वजह है कि जितना इंतजार मायके में माता पिता और भाई को होता है उस से कहीं ज्यादा बहन को अपने पीहर जाने का,परम्परा के अनुसार इस त्यौहार में भाई बहन को लेने जरूर जाते हैं और बहनें भी भाई के आने से पहले ही पूरी तैयारी कर लेती हैं कि कब भैया आए और वो मायके जाएं।
वीडियो कॉलिंग से करना पड़ेगा संतोष
इन तमाम बहनों का कहना है कि इस साल अब उन्हें वीडियो कॉलिंग से ही रक्षाबंधन का त्यौहार मनाना पड़ेगा. लॉकडाउन पूरी तरह से खुल चुका था और उन्हें उम्मीद थी कि वे अपने मायके जा पाएंगी लेकिन 31 तारीख से 5 तरीख तक मंडला को छोड़कर बाकी के शहरों में लगे लॉकडाउन के चलते बहनें भाइयों की कलाई में राखी बांधने नहीं जा पा रहीं है. दूसरी तरफ लॉकडाउन के चलते बाजारों में भी राखियां देर से पहुंची और डाक या कोरियर से भी वे राखियां नहीं भेज सकीं है.
कोरोना पड़ा रिश्तों पर भारी
इस बार कोरोना के कारण सभी के चेहरे मायके सूने हैं. क्योंकि इस साल कोरोना के चलते महिलाएं मायके नहीं जा सकीं. वहीं मायके वालों को रक्षाबंधन का इंतजार था कि इस त्यौहार में जरूर उनकी बेटियां आएंगी लेकिन यह इंतजार अब और लंबा हो चला है. ऐसे में सभी को बस इसी बात का दुख है कि अपनों से मिलने अपने नहीं आ जा पा रहे और रिस्तों पर कहीं न कहीं कोरोना और लॉक डाउन भारी पड़ रहा है.
कजलियां की रहती थी धूम
रक्षाबंधन के एक दिन बाद काजलियां का त्यौहार मनाया जाता है. जिसके लिए हर बेटी के नाम पर घर पर विशेष तिथि पर घर के भीतर गेहूं, बांस की टोकरियों में बुवाई की जाती है और कजलियां के त्योहार वाले दिन छोटी उम्र की बेटियों से लेकर बुजुर्ग महिलाएं तक इन्हें खास पूजा पाठ के बाद नदियों या तालाबों में विसर्जित करने जाती थीं और एक मेले का सा माहौल बन जाता था. जिसमें ससुराल से आई हुई बहन, बेटियों का मोहल्ले पड़ोस की पुरानी सहेलियों से मुलाकात हो जाती थी लेकिन इस साल यह त्यौहार भी सुना ही रहेगा. क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग के चलते काजलियों का सामूहिक विसर्जन के बाद एक दूसरे के घर जाकर कजलियां भेंट नहीं किया जा सकेगा.
जुलाई माह से त्योहारों की शुरुआत होती है. रक्षाबंधन और कजलियां ऐसे मुख्य त्योहार हैं जिन पर साफ तौर पर कोरोना का इफेक्ट देखा जा रहा है. ऐसे में आने वाले हर तीज त्यौहार भी इसी बेरंग माहौल में बीतने की उम्मीद है. इसका आगाज भी भाई बहनों के रिश्ते पर भारी पड़ रहे कोरोना कहर से हो चुकी है.