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परंपराओं पर भारी कोरोना महामारी, इतिहास में पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन नहीं बंटेगी बूंदी - कोरोना से परंपराएं प्रभावित

कोरोना के चलते स्वतंत्रता दिवस का आयोजन भी प्रभावित हुआ है. इस बार शासन के आदेशों के चलते कोई भी बड़ा आयोजन नहीं होगा. इसके चलते कई छोटे बड़े कारोबार प्रभावित हुए हैं. झंडा वालों से लेकर बूंदी वालों तक को भारी नुकसान हुआ है. वहीं आजादी के बाद से ऐसा शायद पहली बार होगा कि स्वतंत्रता दिवस पर बूंदी नहीं बंटेगी.

Corona epidemic heavy on traditions
परंपराओं पर भारी कोरोना महामारी
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Published : Aug 14, 2020, 7:36 PM IST

मंडला। कोरोना के चलते रीति रिवाजों और परम्पराओं पर भी ब्रेक लगा है. एक ऐसी ही परम्परा जो बीते 70 सालों से निभाई जाती थी, उस पर भी ब्रेक लगा है. जी हां राष्ट्रीय पर्व के आयोजन और समाप्ति के बाद हजारों स्कूली बच्चों को बूंदी के पैकेट और लड्डू बांटे जाते थे. लेकिन इस बार बच्चों को बूंदी नहीं मिलेगी, कहने को यह बात बहुत छोटी है लेकिन यह उस जोश और उत्साह पर कोरोना का आघात है, जो स्वंत्रता दिवस का खास आकर्षण हुआ करता था.

कोरोना महामारी के बीच परंपराओं का पालन नहीं हो पा रहा है

बच्चे हों या बूढ़े, महिला हो या पुरुष आजादी एक ऐसा शब्द है, जो हर किसी के मन में गर्व की अनुभूति देता है. ऐसे में बात जब मातृभूमि की आजादी की हो तो जोश और उत्साह अलग ही देखते बनता है. देश के कोने कोने में आजादी के पर्व पर अनेकों आयोजन होते थे. ऐसे में इस पर्व से जुड़े हुए व्यवसाय को भी खासा लाभ होता था. लेकिन कोरोना ने ना केवल आज़ादी के जश्न को फीका किया है, लोगों के व्यवसाय पर भी नुकसान पहुंचाया है.

The tradition of distributing Bundi ladoos on Independence Day has been around for a long time.
स्वतंत्रता दिवस पर बूंदी के लड्डू बेचे जाने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है

बूंदी के व्यापार को हुआ नुकसान

उदय चौक में गुप्ता स्वीट्स है, जो हर राष्ट्रीय पर्व पर तकरीबन 3 टन तक बूंदी बनाया करते थे. जो स्कूली बच्चों को बांटने के लिए, ग्राम पंचायतों या फिर सरकारी दफ्तरों में जाती थी. लेकिन कोरोना के चलते इस साल स्वतंत्रता दिवस आजादी के बाद पहली बार ऐसा प्रभावित हुआ कि सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन कहीं नहीं होगा.

ऐसे में 15 अगस्त को लेकर तैयारी कर चुके गुप्ता स्वीट्स के मालिक परेशान हैं. क्योंकि राष्ट्रीय पर्व पर जहां उन्हें बिजनेस के लिहाज से फायदा होता था, वहीं एक आत्मसंतुष्टि का भी अहसास हुआ करता था.

फीका है आजादी का जश्न

जीतेन्द्र साहू भी इस साल परेशान हैं. सीजन का धंधा करने वाले जीतेन्द्र की छोटी सी दुकान है, जिसमें वे तिरंगा झंडा, तिरंगे वाले बैच और ऐसी तमाम सामग्री बेचा करते थे. जो स्वतंत्रता दिवस की थीम पर होती है. दुकान तो इस साल भी लगी है. लेकिन वे स्कूली बच्चे इस साल कोरोना के चलते नहीं आ रहे, जो बड़े शौक से इन सामानों को खरीदा करते थे और तिरंगे को लहराते हुए गर्व के साथ आजादी के जश्न में बहुत से सामान लेकर जाते थे.

महामारी मिठाई पर भारी, परम्परा में शामिल थी बूंदी

73 साल के वरिष्ठ पत्रकार और जिले के वरिष्ठ नागरिक हनुमान तिवारी का कहना है कि सारी मिठाइयों पर स्वतंत्रता दिवस हो या फिर गणतंत्र दिवस बूंदी ही भारी पड़ती थी. जो आजादी के जश्न की मिठास को दोगुना कर देती है. सन 1953 से वे हर एक राष्ट्रीय पर्व में बूंदी देखते आए हैं और जिले के हजारों स्कूलों, सरकारी कार्यालयों में बच्चों से लेकर शिक्षकों और अधिकारियों तक को बूंदी ही मिलती थी.

सभी इसे पसंद भी बहुत करते थे. क्योंकि इसमें एक अलग ही मिठास और स्वाद है जो किसी और मिठाई में मिलता ही नहीं. दूसरी तरफ यह पूरी तरह से स्थानीय भी हैं, बचपन भी कार्यक्रमों के खत्म होते ही बूंदी का इंतजार किया करते थे, बूंदी का बांटना ही कार्यक्रम समाप्ति का संकेत होता था.

स्काउट गाइड, रेडक्रॉस, एनसीसी, होमगार्ड, पुलिस बल, सस्त्रबल और महिला हो या पुरुष कदम से कदम मिलाते शानदार परेड का प्रदर्शन और इसके बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम जो राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत इस सब का गवाह मंडला का महात्मा गांधी स्टेडियम इस साल सूना है. उसे भी कहीं न कहीं यह बात जरूर खल रही होगी कि 72 साल के इतिहास में वह पहली बार स्वन्त्रता दिवस के उत्साह का गवाह नहीं बन पा रहा और यह पहली बार है कि नहीं बंटेगी 'बूंदी'.

मंडला। कोरोना के चलते रीति रिवाजों और परम्पराओं पर भी ब्रेक लगा है. एक ऐसी ही परम्परा जो बीते 70 सालों से निभाई जाती थी, उस पर भी ब्रेक लगा है. जी हां राष्ट्रीय पर्व के आयोजन और समाप्ति के बाद हजारों स्कूली बच्चों को बूंदी के पैकेट और लड्डू बांटे जाते थे. लेकिन इस बार बच्चों को बूंदी नहीं मिलेगी, कहने को यह बात बहुत छोटी है लेकिन यह उस जोश और उत्साह पर कोरोना का आघात है, जो स्वंत्रता दिवस का खास आकर्षण हुआ करता था.

कोरोना महामारी के बीच परंपराओं का पालन नहीं हो पा रहा है

बच्चे हों या बूढ़े, महिला हो या पुरुष आजादी एक ऐसा शब्द है, जो हर किसी के मन में गर्व की अनुभूति देता है. ऐसे में बात जब मातृभूमि की आजादी की हो तो जोश और उत्साह अलग ही देखते बनता है. देश के कोने कोने में आजादी के पर्व पर अनेकों आयोजन होते थे. ऐसे में इस पर्व से जुड़े हुए व्यवसाय को भी खासा लाभ होता था. लेकिन कोरोना ने ना केवल आज़ादी के जश्न को फीका किया है, लोगों के व्यवसाय पर भी नुकसान पहुंचाया है.

The tradition of distributing Bundi ladoos on Independence Day has been around for a long time.
स्वतंत्रता दिवस पर बूंदी के लड्डू बेचे जाने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है

बूंदी के व्यापार को हुआ नुकसान

उदय चौक में गुप्ता स्वीट्स है, जो हर राष्ट्रीय पर्व पर तकरीबन 3 टन तक बूंदी बनाया करते थे. जो स्कूली बच्चों को बांटने के लिए, ग्राम पंचायतों या फिर सरकारी दफ्तरों में जाती थी. लेकिन कोरोना के चलते इस साल स्वतंत्रता दिवस आजादी के बाद पहली बार ऐसा प्रभावित हुआ कि सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन कहीं नहीं होगा.

ऐसे में 15 अगस्त को लेकर तैयारी कर चुके गुप्ता स्वीट्स के मालिक परेशान हैं. क्योंकि राष्ट्रीय पर्व पर जहां उन्हें बिजनेस के लिहाज से फायदा होता था, वहीं एक आत्मसंतुष्टि का भी अहसास हुआ करता था.

फीका है आजादी का जश्न

जीतेन्द्र साहू भी इस साल परेशान हैं. सीजन का धंधा करने वाले जीतेन्द्र की छोटी सी दुकान है, जिसमें वे तिरंगा झंडा, तिरंगे वाले बैच और ऐसी तमाम सामग्री बेचा करते थे. जो स्वतंत्रता दिवस की थीम पर होती है. दुकान तो इस साल भी लगी है. लेकिन वे स्कूली बच्चे इस साल कोरोना के चलते नहीं आ रहे, जो बड़े शौक से इन सामानों को खरीदा करते थे और तिरंगे को लहराते हुए गर्व के साथ आजादी के जश्न में बहुत से सामान लेकर जाते थे.

महामारी मिठाई पर भारी, परम्परा में शामिल थी बूंदी

73 साल के वरिष्ठ पत्रकार और जिले के वरिष्ठ नागरिक हनुमान तिवारी का कहना है कि सारी मिठाइयों पर स्वतंत्रता दिवस हो या फिर गणतंत्र दिवस बूंदी ही भारी पड़ती थी. जो आजादी के जश्न की मिठास को दोगुना कर देती है. सन 1953 से वे हर एक राष्ट्रीय पर्व में बूंदी देखते आए हैं और जिले के हजारों स्कूलों, सरकारी कार्यालयों में बच्चों से लेकर शिक्षकों और अधिकारियों तक को बूंदी ही मिलती थी.

सभी इसे पसंद भी बहुत करते थे. क्योंकि इसमें एक अलग ही मिठास और स्वाद है जो किसी और मिठाई में मिलता ही नहीं. दूसरी तरफ यह पूरी तरह से स्थानीय भी हैं, बचपन भी कार्यक्रमों के खत्म होते ही बूंदी का इंतजार किया करते थे, बूंदी का बांटना ही कार्यक्रम समाप्ति का संकेत होता था.

स्काउट गाइड, रेडक्रॉस, एनसीसी, होमगार्ड, पुलिस बल, सस्त्रबल और महिला हो या पुरुष कदम से कदम मिलाते शानदार परेड का प्रदर्शन और इसके बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम जो राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत इस सब का गवाह मंडला का महात्मा गांधी स्टेडियम इस साल सूना है. उसे भी कहीं न कहीं यह बात जरूर खल रही होगी कि 72 साल के इतिहास में वह पहली बार स्वन्त्रता दिवस के उत्साह का गवाह नहीं बन पा रहा और यह पहली बार है कि नहीं बंटेगी 'बूंदी'.

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