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मंडला की शाकरा बनाती हैं एक-से-बढ़कर एक पेंटिंग्स, पूर्व राष्ट्रपति कलाम और पूर्व PM वाजपेयी भी कर चुके हैं तारीफ

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Published : Sep 10, 2019, 1:58 PM IST

मंडला में एक ऐसी कलाकार हैं, जिनकी बनाई स्केचेज और पेंटिंग्स की तारीफ भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पत्र लिखकर कर चुके हैं.

मंडला की शाकरा बनाती हैं एक-से-बढ़कर एक पेंटिंग्स

मंडला। अमूमन महिलाओं के हाथ आपने चूल्हे-चौके की ही जिम्मेदारी देखी होगी. अधिकतर लोगों का मानना है कि महिलाएं घर के कामों के लिए ही हैं, लेकिन आज के वक्त में महिलाएं हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रही हैं.

मंडला की शाकरा बनाती हैं एक-से-बढ़कर एक पेंटिंग्स

मंडला में भी एक ऐसी कलाकार हैं, जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और तय लकीरों से आगे बढ़कर कला के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है. उनका नाम है शाकरा खान. उनकी बनाई स्केचेज और पेंटिंग्स की तारीफ भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी पत्र लिखकर कर चुके हैं. लेकिन शाकरा की कला को आज भी वह मुकाम नहीं मिल पाया है, जिसकी वो सच्ची हकदार हैं. प्रदेश में उनकी कला की वो कीमत नहीं, जो उन्हें पहचान के साथ ही दो जून की रोटी भी दे सके.

शाकरा के पास दो कमरे का जर्जर घर है, जिसमें वे अपने पिता मोहम्मद याशीन खान के साथ रहती हैं. लेकिन उनकी गुरबत भी उनके मजबूत इरादों को नहीं तोड़ सकी. उन्होंने अपनी साधाना से ऐसे रंग उकेरे हैं कि जिसने देखा वो बस देखता ही रह गया. शाकरा ने रंगों की दुनिया की शुरुआत भी अचानक की. शाकरा के पिता भी पेंटिंग करते हैं. उन्हें देखकर ही शाकरा ने भी पेंटिंग करना, स्केचेज बनाना शुरू किया. अपने स्कूल के प्रोजेक्ट में वे ऐसे रंग भरती थी कि शिक्षकों को लगता था कि ये शाकरा ने नहीं बनाया और स्कूल में उनसे फिर वही प्रोजेक्ट बनवाए जाते थे.

ऐसे तय हुआ शाकरा की रंगों वाली दुनिया का सफर

शाकरा के पिता से एक लड़का पेंटिंग सीखने आता था और जो वो नहीं बना पाता था, वो शाकरा बना लेती भी. शाकरा बताती हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा खुशी तब हुई थी, जब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का पेंसिल आर्ट बनाकर उन्होंने भेजा और उनके पास दोनों ही हस्तियों के प्रमाणपत्र के साथ पत्र आए.

मोहम्मद यासिन खान ने 1952 से पेंटिंग की शुरुआत फिल्मी पोस्टर बनाने से की और उन्हें वो ख्याति मिली कि कान्हा नेशनल पार्क के डायरेक्टर उन्हें हाथी पर बैठा कर ले जाते टाइगर के साथ ही दूसरे जानवरों का दीदार कराते और फिर यासिन अपनी कूची से उनका हू-ब-हू अक्स कैनवास पर उतारते. इन्हीं से इनकी बेटी शाकरा को प्रेरणा मिली. वहीं जिला पंचायत द्वारा संचालित कला दीर्घा के मैनेजर सुधीर कांस्कार बताते हैं कि पिता-पुत्री ने जो कला की वो साधना की है, वो हर किसी के बस की बात नहीं.

शाकरा और उनके पिता का कहना है कि उन्होंने रंगों की दुनिया का सफर तो बहुत किया, लेकिन तारीफ के अलावा ऐसा कुछ हाथ न लगा, जिससे रोजी-रोटी चल सके. अब उन्हें सरकार से काफी उम्मीदें हैं.

मंडला। अमूमन महिलाओं के हाथ आपने चूल्हे-चौके की ही जिम्मेदारी देखी होगी. अधिकतर लोगों का मानना है कि महिलाएं घर के कामों के लिए ही हैं, लेकिन आज के वक्त में महिलाएं हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रही हैं.

मंडला की शाकरा बनाती हैं एक-से-बढ़कर एक पेंटिंग्स

मंडला में भी एक ऐसी कलाकार हैं, जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और तय लकीरों से आगे बढ़कर कला के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है. उनका नाम है शाकरा खान. उनकी बनाई स्केचेज और पेंटिंग्स की तारीफ भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी पत्र लिखकर कर चुके हैं. लेकिन शाकरा की कला को आज भी वह मुकाम नहीं मिल पाया है, जिसकी वो सच्ची हकदार हैं. प्रदेश में उनकी कला की वो कीमत नहीं, जो उन्हें पहचान के साथ ही दो जून की रोटी भी दे सके.

शाकरा के पास दो कमरे का जर्जर घर है, जिसमें वे अपने पिता मोहम्मद याशीन खान के साथ रहती हैं. लेकिन उनकी गुरबत भी उनके मजबूत इरादों को नहीं तोड़ सकी. उन्होंने अपनी साधाना से ऐसे रंग उकेरे हैं कि जिसने देखा वो बस देखता ही रह गया. शाकरा ने रंगों की दुनिया की शुरुआत भी अचानक की. शाकरा के पिता भी पेंटिंग करते हैं. उन्हें देखकर ही शाकरा ने भी पेंटिंग करना, स्केचेज बनाना शुरू किया. अपने स्कूल के प्रोजेक्ट में वे ऐसे रंग भरती थी कि शिक्षकों को लगता था कि ये शाकरा ने नहीं बनाया और स्कूल में उनसे फिर वही प्रोजेक्ट बनवाए जाते थे.

ऐसे तय हुआ शाकरा की रंगों वाली दुनिया का सफर

शाकरा के पिता से एक लड़का पेंटिंग सीखने आता था और जो वो नहीं बना पाता था, वो शाकरा बना लेती भी. शाकरा बताती हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा खुशी तब हुई थी, जब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का पेंसिल आर्ट बनाकर उन्होंने भेजा और उनके पास दोनों ही हस्तियों के प्रमाणपत्र के साथ पत्र आए.

मोहम्मद यासिन खान ने 1952 से पेंटिंग की शुरुआत फिल्मी पोस्टर बनाने से की और उन्हें वो ख्याति मिली कि कान्हा नेशनल पार्क के डायरेक्टर उन्हें हाथी पर बैठा कर ले जाते टाइगर के साथ ही दूसरे जानवरों का दीदार कराते और फिर यासिन अपनी कूची से उनका हू-ब-हू अक्स कैनवास पर उतारते. इन्हीं से इनकी बेटी शाकरा को प्रेरणा मिली. वहीं जिला पंचायत द्वारा संचालित कला दीर्घा के मैनेजर सुधीर कांस्कार बताते हैं कि पिता-पुत्री ने जो कला की वो साधना की है, वो हर किसी के बस की बात नहीं.

शाकरा और उनके पिता का कहना है कि उन्होंने रंगों की दुनिया का सफर तो बहुत किया, लेकिन तारीफ के अलावा ऐसा कुछ हाथ न लगा, जिससे रोजी-रोटी चल सके. अब उन्हें सरकार से काफी उम्मीदें हैं.

Intro:मण्डला जैसे जिले की महिलाओं के हाथ अमूमन चौका चूल्हा की जिम्मेदारी रहती है लेकिन यहाँ एक ऐसी कलाकार भी है जिसकी कलाकारी की तारीफ पूर्व राष्ट्रपति कलाम और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी पत्र लिख कर चुके हैं लेकिन इस कलाकार को आज भी वह मुकाम नहीं मिल पाया जिसकी वो हकदार है।


Body:दो कमरे का घर जिसमें एक कि हालात तो ऐसी की जिसे जर्जर ही कहा जा सकता है लेकिन यहाँ रहते हैं दो ऐसे कलाकार जिन्होंने अपनी साधाना से ऐसे रंग उकेरे की जिसने देखा बस देखता ही रह गया। मोहम्मद याशीन खान ने 1952 से पेंटिंग की शुरुआत फिल्मी पोस्टर बनाने से की और उन्हें वो ख्याति मिली कि कान्हा नैशनल पार्क के डायरेक्टर उन्हें हाथी पर बैठा कर ले जाते टाइगर के साथ ही दूसरे जानवरों का दीदार कराते और फिर याशीन अपनी कूची से उनका हूबहू अक्स कैनवास पर उतरते यह सब कुछ उनकी बेटी शाकरा खान देखा करतीं और स्कूल के प्रोजेक्ट बनाते हुए उसमें कला का ऐसा रंग भरती की शिक्षको को लगता कि ये शाकरा ने नहीं बनाया और स्कूल में उनसे फिर वही प्रोजेक्ट बनवाए जाते,शाकरा ने रंगों की दुनिया की शुरुआत भी अचानक की जब उनके यहाँ एक लड़का याशीन से चित्रकारी सीखने आता और जो वो न बना पाता वो शाकरा बनाती,और ऐसे ही शाकरा ने बहुत सी पेंटिंग बना डाली,शाकरा बताती हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा खुशी तब हुई थी जब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का पेंशील आर्ट बना कर भेजा और उनके पास दोनों ही हस्तियों के प्रमाणपत्र के साथ ही पत्र आए


Conclusion:शाकरा और उनके पिता का कहना है कि उन्होंने रंगों की दुनिया का सफर तो बहुत किया लेकिन तारीफ के अलावा ऐसा कुछ हाथ न लगा जिस से रोजी रोटी चल सके,याशीन खान के हाथ अब थक चुके हैं वहीं शाकरा ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की नोकरी कर चित्रकला को अब अलविदा कह दिया है क्योंकि उनका कहना है कि मण्डला जिले या फिर प्रदेश में उनकी कला की वो कीमत नहीं जो उन्हें पहचान के साथ ही दो जून की रोटी का सहारा बन सके।वहीं जिंला पंचायत द्वारा संचालित कला दीर्घा के मैनेजर सुधीर कांस्कार बताते हैं कि वे उनकी कलाकारी बचपन से देखते आ रहे हैं और खान के साथ ही उनकी बेटी ने कला की वो साधना की है जो हर किसी के बस की बात नहीं। बाईट--मोहम्मद याशीन खान,चित्रकार बाईट--शाकरा खान,चित्रकार बाईट--सुधीर कांस्कार,मैनेजर कला दीर्घा,जिला पंचायत
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