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खंडहर में तब्दील हो रही ऐतिहासिक इमारत, कभी यहां सैलानियों का लगता था जमावड़ा - War

बिंझिया क्षेत्र में बना आशफ खां का मकबरा मुगल कालीन इतिहास को अपने आप में समेटे हुए है, लेकिन अनदेखी की वजह से आज भूत बंगले में तब्दील होता जा रहा है.

आशफ खां का मकबरा
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Published : Mar 12, 2019, 3:32 PM IST

मण्डला। बिंझिया क्षेत्र में बना आशफ खां का मकबरा अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है, जो मुगल कालीन इतिहास को अपने आप में समेटे हुए है, ये मकबरा मुमताज के भतीजे की मजार पर बना है, लेकिन अनदेखी की वजह से आज भूत बंगले में तब्दील होता जा रहा है.

दरअसल, शहर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक धरोहर और उस पर उकेरी गई कलाकृतियों के बेजोड़ नमूने से अपरिचित हैं. इसका कारण सरकारी उपेक्षा है या फिर जिम्मदार इसके महत्व से अनजान हैं. बस स्टैंड से महज एक किलोमीटर दूर सड़क किनारे आशफ खां का मकबरा स्थित है, लेकिन उस मकबरे तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है.

आशफ खां का मकबरा

सन 1564 में अकबर की सेना लेकर अब्दुल मजीद हराठी आसफ खां प्रथम ने गढ़ा मण्डला राज्य पर आक्रमण किया, जिसमें रानी दुर्गावती की शहादत हुई. इसके बाद गढ़ा मण्डला मुगलों का गुलाम बन गया. इसी वंश का मिर्जा जफर बेग जो मुमताज का भतीजा था, उसे सन 1587 में आसफ खां तृतीय की पदवी दी गयी.

आसफ खां तृतीय ने 1605 से 1612 तक जहांगीर के पुत्र सुल्तान परवेज रसूल के साथ एक बड़ी सेना लेकर गढ़ा मण्डला में रहा और यहां के राजाओं से कर वसूलने का काम किया. ये बार-बार बालाघाट पर हमला भी करता रहा, लेकिन 1612 में उसकी मृत्यु हो गयी. अनुमान है कि आसफ खां के पुत्र मिर्जा अली असगर ने ही अपने पिता की याद में इस मकबरे को बनवाया था, जो स्वयं बाद में जुझार सिंह से लड़ाई के दौरान धामनी के दुर्ग में मारा गया था.

निर्माण की दृष्टि से लगभग 400 साल पुराने इस मकबरे में मुगल वास्तुकला देखने को मिलती है. मकबरे और इसके आस पास का क्षेत्र तो लगभग 6 साल पहले पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में लिया है, लेकिन यहां आने-जाने का कोई रास्ता नहीं होने के चलते मुगल कालीन इतिहास की ये धरोहर अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाने को मजबूर है.

मण्डला। बिंझिया क्षेत्र में बना आशफ खां का मकबरा अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है, जो मुगल कालीन इतिहास को अपने आप में समेटे हुए है, ये मकबरा मुमताज के भतीजे की मजार पर बना है, लेकिन अनदेखी की वजह से आज भूत बंगले में तब्दील होता जा रहा है.

दरअसल, शहर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक धरोहर और उस पर उकेरी गई कलाकृतियों के बेजोड़ नमूने से अपरिचित हैं. इसका कारण सरकारी उपेक्षा है या फिर जिम्मदार इसके महत्व से अनजान हैं. बस स्टैंड से महज एक किलोमीटर दूर सड़क किनारे आशफ खां का मकबरा स्थित है, लेकिन उस मकबरे तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है.

आशफ खां का मकबरा

सन 1564 में अकबर की सेना लेकर अब्दुल मजीद हराठी आसफ खां प्रथम ने गढ़ा मण्डला राज्य पर आक्रमण किया, जिसमें रानी दुर्गावती की शहादत हुई. इसके बाद गढ़ा मण्डला मुगलों का गुलाम बन गया. इसी वंश का मिर्जा जफर बेग जो मुमताज का भतीजा था, उसे सन 1587 में आसफ खां तृतीय की पदवी दी गयी.

आसफ खां तृतीय ने 1605 से 1612 तक जहांगीर के पुत्र सुल्तान परवेज रसूल के साथ एक बड़ी सेना लेकर गढ़ा मण्डला में रहा और यहां के राजाओं से कर वसूलने का काम किया. ये बार-बार बालाघाट पर हमला भी करता रहा, लेकिन 1612 में उसकी मृत्यु हो गयी. अनुमान है कि आसफ खां के पुत्र मिर्जा अली असगर ने ही अपने पिता की याद में इस मकबरे को बनवाया था, जो स्वयं बाद में जुझार सिंह से लड़ाई के दौरान धामनी के दुर्ग में मारा गया था.

निर्माण की दृष्टि से लगभग 400 साल पुराने इस मकबरे में मुगल वास्तुकला देखने को मिलती है. मकबरे और इसके आस पास का क्षेत्र तो लगभग 6 साल पहले पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में लिया है, लेकिन यहां आने-जाने का कोई रास्ता नहीं होने के चलते मुगल कालीन इतिहास की ये धरोहर अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाने को मजबूर है.

Intro:मण्डला नगर के बिंझिया क्षेत्र में एक ऐसा मकबरा है जो मुगल कालीन इतिहास को अपने में समेटे हुए है लेकिन शहर के बीच मे होने के बाद भी मण्डला नगर के ही निवासी इस ऐतिहासिक धरोहर और कला के बेजोड़ नमूने से अपरिचित हैं जिसका कारण सरकारी उपेक्षा या फिर जिम्मदारों के द्वारा इसका महत्व ही न समझा जाना है हालत ये है कि कोई अगर इसको खोजना भी चाहे तो यहाँ तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं है


Body:मण्डला नगर के शहरी क्षेत्र बस स्टैंड से महज एक किलोमीटर दूर सड़क के किनारे एक बोर्ड लगा मिल जाएगा जिस पर लिखा हुआ है आशफखां का मकबरा लेकिन उस मकबरे तक पहुंचने का कोई मार्ग आपको इस लिए नज़र नहीं आएगा क्योंकि मार्ग है ही नहीं, आसपास के घरों और आँगन से होते हुए अगर माकान वालों की मेहरबानी से आप यहाँ पहुँचे तो मुगल कालीन इतिहास की इस धरोहर को बस निहारते रह जाएंगे।जितनी इस मकबरे की खूबसूरती है उतना ही पुराना इसका इतिहास भी है सन 1564 में बादशाह अकबर की सेना लेकर अब्दुल मजीद हराठी आसफखां प्रथम ने गढ़ा मण्डला राज्य पर आक्रमण किया जिसमें रानीदुर्गावती की शहादत हुई जिसके बाद गढ़ा मण्डला मुगलों का गुलाम बन गया इसी बंश के मिर्जा जफर बेग जो मुमताज महल का भतीजा था उसे सन 1587 में आसफखां तृतीय की पदवी दी गयी,जिसने 1605 से 1612 तक जहांगीर के पुत्र सुल्तान परवेज रसूल के साथ एक बड़ी सेना लेकर गढ़ा मण्डला में रहा और यहाँ के राजाओं से कर बसूलने का काम किया वहीं यह बार बार बालाघाट पर हमला भी करता रहा,एक बार सुल्तान परवेज सेनापति के आभाव में आसफखां और सेना को बालाघाट हमले के लिए ले गया इसी समय लंबी चढाई,अधिक मदिरापान, लूटमार और थकान से आसफखां बालाघाट में ही बीमार हो गया जो वापस लौट कर तो आया लेकिन 1612 में उसकी मृत्यु हो गयी,अनुमान है कि आसफखां के पुत्र मिर्जा अली असगर ने ही अपने पिता की याद में इस मकबरे को बनवाया था जो स्वयं बाद में जुझार सिंह की लड़ाई के दौरान धामनी के दुर्ग में मारा गया था


Conclusion:मण्डला नगर के लालीपुर चौराहे से आगे मुश्लिम सम्प्रदाय के कब्रिस्तान के ठीक सामने सड़क की दूसरी तरफ यह मकबरा है जो आज दिखाई भी नहीं देता इसका आकार लगभग 30 स्क्वेयर फुट में है पूरब की तरफ दरवाजे वाले इस मकबरे में सामने एक परकोटा,उसकी साइड में एक छोटा कमरा तो बीच मे बड़ा सा कमरा है जहाँ आशफखां की कब्र मानी जाती है,इस भवन पर चार कोनों में चार मीनारें बनी हुई है बीच के कमरे के ऊपर बड़ा सा चौकोर गुम्बद है,नीचे की नींव पत्थरों से तो बाकी की जुड़ाई मिट्टी की ईंट से हुई है,जिन्हें चूने और रेत की मदद से जोड़ा गया है,निर्माण की दृष्टि से लगभग 400 साल पुराने इस मकबरे में मुगल वास्तुकला देखने को मिलती है,मकबरे और इसके आसपास का क्षेत्र तो लगभग 6 साल पहले पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में ले लिया है लेकिन यहाँ आने जाने का कोई रास्ता न होने के चलते मुगल कालीन इतिहास की यह धरोहर अपनी दुर्दशा पर आँशु बहाने को मजबूर है।

बाईट--हेमन्तिका शुक्ला, इतिहासकार पुरातत्व अधिकारी
पीटूसी--मयंक तिवारी ईटीवी भारत मण्डला।
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