झाबुआ। देश में ऐसे विरले समाज सुधारक कम ही होंगे जिनके निधन के 21 साल बाद भी उनके अनुयाई उन्हें भगवान की तरह पूजते हो. झाबुआ के बामनिया में कर्म स्थली के रूप में आदिवासी समाज के उत्थान के लिए काम करने वाले मामा बालेश्वर दयाल को हजारों लोग देवता की तरह पूजते हैं. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बड़े समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के साथी मामा बालेश्वर दयाल की आज 21वीं पुण्यतिथि थी. वहीं जननायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का समाधि स्थल आज मध्य प्रदेश सरकार की उपेक्षा का शिकार हो रहा है.
26 दिसंबर 1996 को मामा बालेश्वर दयाल ने झाबुआ जिले के बामनिया भील सेवा आश्रम में अंतिम सांस ली थी. मामा बालेश्वर दयाल को राजस्थान के बांसवाड़ा, कुशलगढ़, प्रतापगढ़, उदयपुर सहित भील क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय के लोग भगवान की तरह मानते हैं और इन गांवों में सैकड़ों की तादाद में उनके मंदिर बने हुए हैं. आदिवासी समाज के उत्थान लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले मामा बालेश्वर दयाल समाजवादी विचारधारा के नेता भी थे.
मामा बालेश्वर दयाल ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ कई आंदोलन में अपनी महती भूमिका निभाई है, लेकिन देश और प्रदेश के इतिहास में उसका जिक्र कम ही मिलता है. देश की आजादी के बाद तत्कालीन सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले उनके विचार की क्रांति का ही प्रभाव था, कि राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश और सीमावर्ती गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक बदलाव आए. आज उनकी 21वीं पुण्यतिथि के अवसर पर उनके हजारों समर्थकों ने उनकी समाधि पर अपना शीश नवाजा. सामाजिक बदलाव के लिए मामा बालेश्वर दयाल द्वारा किए गए कार्यों के चलते उनके अनुयायियों ने भारत सरकार से उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग भी की है.