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मिट्टी के दिए का कारोबार संकट में, कलाकारों से रूठीं 'मां लक्ष्मी'

जबलपुर में लगभग दस हजार कुशल कारीगर हैं जो दिए बनाने का काम करते हैं, साल भर वह केवल मिट्टी के बर्तन बनाकर ही अपने परिवार का पालन करते हैं. लेकिन खत्म होती मिट्टी के बर्तनों की मांग इनके जीवन पर एक संकट बन गया है.

मिट्टी के दिए का कारोबार संकट में
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Published : Oct 20, 2019, 2:00 PM IST

Updated : Oct 20, 2019, 3:48 PM IST

जबलपुर। दिवाली का त्योहार नजदीक आ चुका है, दिवाली का नाम आते ही दिए और रोशनी का ख्याल मन में आता है, दिए जलाना मां लक्ष्मी के स्वागत का प्रतीक माना जाता हैं, दिए जलाकर ही दिवाली की पूजा शुरू की जाती है, लेकिन अब ये परंपराएं खत्म होती नजर आ रही हैं, दिए के कारोबार से जुड़े छोटे छोटे कारीगर भी अब इसकी चपेट में आते जा रहे हैं, मिट्टी के दिए की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेते जा रहे हैं.

दिए का कारोबार संकट में

जबलपुर में लगभग दस हजार कुशल कारीगर हैं जो कई पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े हैं और साल भर केवल मिट्टी के बर्तन बना कर ही अपने परिवार का पालन करते हैं, कलाकारों का कहना है कि पहले जो मिट्टी उन्हें बिना किसी परेशानी के मिल जाती थी अब उसके लिए भी मूल्य चुकाना पड़ता है. जहां भी बर्तन बनाने लायक मिट्टी है वह भी अब या तो वन विभाग के कब्जे में चली गई या फिर निजी लोगों के अधिपत्य में हो गई है, जिस कारण दिए बेंच कर उन्हें मिलने वाले पैसों का ज्यादा हिस्सा मिट्टी खरीदने में ही चला जाता है.

सरकार एक तरफ तो इंवेस्टर समिट कर रही है जिससे प्रदेश में रोजगार आए और बेरोजगारों को रोजगार मिल सके, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो अपनी कला की दम पर मेहनत करके दिए बनाते हैं उनकी सरकार किसी तरह की कोई मदद नहीं कर रही है, जिससे ये कारीगर परेशान हैं और उनकी आर्थिक स्थिति भी अब बिगड़ चुकी है.

मिट्टी के दियो का स्थान इलेक्ट्रॉनिक और विदेशी दियों ने ले लिया है, ऐसे में लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब मिट्टी के दिए बनाने की कला ही समाप्त हो जाएगी और इसके कारोबार से जुड़े लोग बेरोजगार हो जाएंगे. ऐसा ही कुछ जबलपुर में होता दिख रहा है, जहां लगातार इससे जुड़े लोगों के रोजगार का संकट मंडराने लगा है.

जबलपुर। दिवाली का त्योहार नजदीक आ चुका है, दिवाली का नाम आते ही दिए और रोशनी का ख्याल मन में आता है, दिए जलाना मां लक्ष्मी के स्वागत का प्रतीक माना जाता हैं, दिए जलाकर ही दिवाली की पूजा शुरू की जाती है, लेकिन अब ये परंपराएं खत्म होती नजर आ रही हैं, दिए के कारोबार से जुड़े छोटे छोटे कारीगर भी अब इसकी चपेट में आते जा रहे हैं, मिट्टी के दिए की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेते जा रहे हैं.

दिए का कारोबार संकट में

जबलपुर में लगभग दस हजार कुशल कारीगर हैं जो कई पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े हैं और साल भर केवल मिट्टी के बर्तन बना कर ही अपने परिवार का पालन करते हैं, कलाकारों का कहना है कि पहले जो मिट्टी उन्हें बिना किसी परेशानी के मिल जाती थी अब उसके लिए भी मूल्य चुकाना पड़ता है. जहां भी बर्तन बनाने लायक मिट्टी है वह भी अब या तो वन विभाग के कब्जे में चली गई या फिर निजी लोगों के अधिपत्य में हो गई है, जिस कारण दिए बेंच कर उन्हें मिलने वाले पैसों का ज्यादा हिस्सा मिट्टी खरीदने में ही चला जाता है.

सरकार एक तरफ तो इंवेस्टर समिट कर रही है जिससे प्रदेश में रोजगार आए और बेरोजगारों को रोजगार मिल सके, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो अपनी कला की दम पर मेहनत करके दिए बनाते हैं उनकी सरकार किसी तरह की कोई मदद नहीं कर रही है, जिससे ये कारीगर परेशान हैं और उनकी आर्थिक स्थिति भी अब बिगड़ चुकी है.

मिट्टी के दियो का स्थान इलेक्ट्रॉनिक और विदेशी दियों ने ले लिया है, ऐसे में लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब मिट्टी के दिए बनाने की कला ही समाप्त हो जाएगी और इसके कारोबार से जुड़े लोग बेरोजगार हो जाएंगे. ऐसा ही कुछ जबलपुर में होता दिख रहा है, जहां लगातार इससे जुड़े लोगों के रोजगार का संकट मंडराने लगा है.

Intro:वह दिन दूर नहीं जब मिट्टी में मिल जाएगी मिट्टी के दीए बनाने की कला जबलपुर के मिट्टी के हजारों कलाकारों के सामने संकट के बादल


Body:जबलपुर दीपाली दीयों से आती है और यह शुभ दिए सदियों से मिट्टी के बनाए जाते रहे हैं ऐसा माना जाता है यह दिए की रोशनी की वजह से घर में लक्ष्मी आती है लेकिन जो लोग इन दिनों को बनाते हैं उनसे लक्ष्मी रूठ गई है

जबलपुर में 10,000 से ज्यादा प्रजापति समाज के लोग रहते हैं जो आज भी मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं यह सभी बेहतरीन कलाकार हैं लेकिन अब इन कलाकारों के सामने संकट के बादल छा गए हैं पहले दिवाली आने के समय इन लोगों की चांदी हुआ करती थी क्योंकि इनके बनाए दिया उसे लोग दिवाली मनाते थे और इसकी वजह से इन्हें अच्छा मुनाफा हो जाता था लेकिन अब बाजार में इनके दीयों की मांग घट रही है दिवाली के पहले ही गुजरात और दूसरे प्रदेशों से सांचे वाले दिए बाजार में आ जाते हैं और महंगे दामों पर बिकते है आकर्षक होने की वजह से लोग इन दियो को खरीदते हैं वही पहले बिजली की रोशनी नहीं होती थी तो ज्यादा दिए जलाए जाते थे लेकिन अब बिजली की रोशनी की वजह से दीयों की प्रासंगिकता घटती जा रही है और इसकी वजह से लक्ष्मी को आवाहन करने वाली यह दिए बीती बातें बनते जा रहे हैं और दीयों के साथ ही इनको बनाने वाले सिमटते जा रहे हैं

इन लोगों की मांग है कि मिट्टी की वजह से उनको रोजगार मिलता है इन दिनों यह दिए बनाते हैं इसके बाद गमले बनाने लगते हैं फिर गर्मी का मौसम जाता है तो मटके बनाने लगते हैं इस तरीके से साल भर कुछ ना कुछ बनाकर इनको रोजगार मिलता रहता है लेकिन पहले जो मिट्टी फ्री में मिल जाती थी वह धीरे धीरे करके या तो निजी लोगों के कब्जे में चली गई या फिर सरकारी कब्जे में हो गई अब इन कलाकारों को मिट्टी तक नहीं मिल पा रही है इसलिए इनका काम मुश्किल होता जा रहा है


Conclusion:सरकार रोजगार के जरिए नहीं खोज पा रही है और जो लोग परंपरागत रोजगार में लगे हुए हैं उन्हें सुविधा नहीं दे पा रही है सरकार को चाहिए परंपरागत रोजगार में लगे हुए लोगों को यदि कुछ थोड़ी सी बुनियादी सुविधाएं दे दी जाए तो वे सरकार पर बोझ बनने की बजाए अर्थव्यवस्था के लिए मजबूती प्रदान करेंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारें अंधी और बहरी हो गई हैं और इन्हें बुनियादी चीजें नजर नहीं आती
Last Updated : Oct 20, 2019, 3:48 PM IST
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