जबलपुर। दिवाली का त्योहार नजदीक आ चुका है, दिवाली का नाम आते ही दिए और रोशनी का ख्याल मन में आता है, दिए जलाना मां लक्ष्मी के स्वागत का प्रतीक माना जाता हैं, दिए जलाकर ही दिवाली की पूजा शुरू की जाती है, लेकिन अब ये परंपराएं खत्म होती नजर आ रही हैं, दिए के कारोबार से जुड़े छोटे छोटे कारीगर भी अब इसकी चपेट में आते जा रहे हैं, मिट्टी के दिए की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेते जा रहे हैं.
जबलपुर में लगभग दस हजार कुशल कारीगर हैं जो कई पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े हैं और साल भर केवल मिट्टी के बर्तन बना कर ही अपने परिवार का पालन करते हैं, कलाकारों का कहना है कि पहले जो मिट्टी उन्हें बिना किसी परेशानी के मिल जाती थी अब उसके लिए भी मूल्य चुकाना पड़ता है. जहां भी बर्तन बनाने लायक मिट्टी है वह भी अब या तो वन विभाग के कब्जे में चली गई या फिर निजी लोगों के अधिपत्य में हो गई है, जिस कारण दिए बेंच कर उन्हें मिलने वाले पैसों का ज्यादा हिस्सा मिट्टी खरीदने में ही चला जाता है.
सरकार एक तरफ तो इंवेस्टर समिट कर रही है जिससे प्रदेश में रोजगार आए और बेरोजगारों को रोजगार मिल सके, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो अपनी कला की दम पर मेहनत करके दिए बनाते हैं उनकी सरकार किसी तरह की कोई मदद नहीं कर रही है, जिससे ये कारीगर परेशान हैं और उनकी आर्थिक स्थिति भी अब बिगड़ चुकी है.
मिट्टी के दियो का स्थान इलेक्ट्रॉनिक और विदेशी दियों ने ले लिया है, ऐसे में लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब मिट्टी के दिए बनाने की कला ही समाप्त हो जाएगी और इसके कारोबार से जुड़े लोग बेरोजगार हो जाएंगे. ऐसा ही कुछ जबलपुर में होता दिख रहा है, जहां लगातार इससे जुड़े लोगों के रोजगार का संकट मंडराने लगा है.