Shankaracharya History Qualification: शंकराचार्य के बारे में लोग सोशल मीडिया पर तरह-तरह की टिप्पणी कर रहे हैं. लेकिन कम ही लोगों को पता होगा कि जिस सनातन को लेकर आज का हिंदुत्व जिंदा है, उसे पुनर्जीवित करने का श्रेय आदि गुरु शंकराचार्य को जाता है. उन्हीं की बनाई परंपरा के अनुसार हजारों साल बाद भी शंकराचार्य पद पर संन्यासी की नियुक्ति होती है. हिंदू धर्म में ये सबसे पड़ा पद माना जाता है. शंकराचार्य बनने की पूरी प्रक्रिया समझते हैं ज्योतिष मठ के संन्यासी ब्रह्मचारी चैतन्यानंद जी महाराज से.
शंकराचार्य परंपरा कब शुरू हुई : आज से लगभग ढाई हजार साल पहले ईशा पूर्व के समय भारत में बौद्ध धर्म अपने चरम पर था. पूरे भारत में बौद्ध मठों का इतिहास इस दौर का मिलता है. ये बौद्ध मठ उस समय के प्रभावी धर्म व्यवस्था का हिस्सा थे. इनका केवल धार्मिक वर्चस्व ही नहीं था बल्कि यह उस समय के राजतंत्र को भी अपने अनुसार चला रहे थे. इसी दौरान केरल के कालाडी गांव में शंकर नाम के बच्चे का जन्म हुआ. बहुत कम उम्र में शंकर ने हिंदू धर्म के तमाम वेद कंठस्थ कर लिए. उपनिषदों का अध्ययन पूरा कर लिया. उस जमाने में मौजूद तमाम ग्रंथ इस बालक को पूरी तरह रटे हुए थे. बालक शंकर ने मौजूदा हिंदू धर्म के सिद्धांतों से कहीं आगे अद्वैत दर्शन के बारे में लोगों को ज्ञान देना शुरू कर दिया.
अद्वैत दर्शन की अवधारणा : इस अद्भुत चमत्कारी बालक का अद्वैत दर्शन की अवधारणा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी ढाई हजार साल पहले थी. बालक शंकर ने अपनी मां से अनुमति लेकर संन्यास ग्रहण किया और पूरे भारत की यात्राएं की. उस समय मौजूद विद्वानों को उनकी ही भाषा में शास्त्रार्थ के जरिए परास्त किया. संन्यासी शंकर ने पूरे भारत में सनातन हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया और यह हमेशा जिंदा रहे, इसके लिए उन्होंने चार मठों की स्थापना की. उस दौरान संन्यासी शंकर आदि गुरु शंकराचार्य हो चुके थे. पूरे भारत में उनकी प्रसिद्धि ऐसी हुई कि उन्होंने मठों के अलावा कई ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की.
पहले शंकराचार्य की नियुक्ति : ज्योतिष मठ के संन्यासी ब्रह्मचारी चैतन्यानंद ने बताया कि आदि गुरु शंकराचार्य की पुस्तक मठामनुशासन के अनुसार आदि गुरु शंकराचार्य ने जो व्यवस्था दी थी, उसके तहत पूरे भारत को उन्होंने चार हिस्सों में बांटा था. चार हिस्सों में सनातन धर्म के सिद्धांतों पर जीवन जीने के तरीकों को लोगों को आपस में समझाने के लिए चारों मठों में शंकराचार्य पद का सृजन किया गया. धर्म शास्त्र, कर्मकांड, यज्ञ पूजा, ज्योतिष आयुर्वेद के ज्ञाता ब्राह्मणों को शंकराचार्य बनाया गया था. लगभग 2000 साल पहले शुरू हुई यह परंपरा आज भी जारी है. परंपरा के अनुसार ही शंकराचार्य के पद पर नियुक्तियां होती हैं. शंकराचार्य पद पर नियुक्ति और मठों को चलाने के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने कुछ और ग्रंथ भी लिखे थे, जिनमें मठों को चलाने के नियम और शंकराचार्य के दायित्व और कर्तव्य लिखे हुए हैं.
आदि शंकराचार्य ना होते तो क्या होता : यह बड़ा काल्पनिक सवाल है लेकिन इसका जवाब आज बड़ा प्रासंगिक है, क्योंकि इस समय सनातन धर्म सबसे बड़ा मुद्दा है. जरा सोचिए यदि आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन को बचाने की पहल न की होती तो आज भारत में बौद्ध धर्म सबसे बड़ा धर्म होता. हिंदू धर्म को मानने वाले संभवतः बचे ही ना होते. चारों मठों की स्थापना ज्योतिर्लिंगों की स्थापना और कई मंदिरों की स्थापना के साथ पूरे देश में सनातन धर्म की अलख जगाने का काम शंकराचार्य आदि गुरु ने ही किया था. आज भी उसी परंपरा के जरिए शंकराचार्य का चयन होता है.
शंकराचार्य को कितना ज्ञान होता है : स्वामी चैतन्यानंद जी का कहना है कि शंकराचार्य के पद के लिए व्यक्ति को हिंदू धर्म के सभी ग्रंथ का ज्ञान होना चाहिए. शंकराचार्य को सभी वेदों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए. सभी पुराणों का ज्ञान होना चाहिए. हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथ गीता और रामायण के बारे में जानकारी होनी चाहिए. उपनिषद का अध्ययन होना चाहिए. हिंदू धर्म में वर्णित पूजा अनुष्ठान और यज्ञ की जानकारी होनी चाहिए. उनसे जुड़े हुए श्लोक और मंत्र का अध्ययन होना चाहिए. इसके साथ ही ज्योतिष और कर्मकांड की विधियों का ज्ञान होना चाहिए.
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कौन बन सकता है शंकराचार्य : कोई भी सामान्य साधु संन्यासी शंकराचार्य नहीं बन सकता. हिंदू धर्म के इस सबसे महत्वपूर्ण पद पर केवल चुनिंदा संत ही पहुंच सकते हैं. शंकराचार्य होने की पहली शर्त है कि वह संन्यासी होना चाहिए. मतलब उसने अपने घर का त्याग कर दिया हो. दूसरा वह ब्रह्मचारी होना चाहिए. उसने कभी शादी ना की हो. तीसरा वह कभी भी विदेश ना गया हो. वर्तमान शंकराचार्य सभी दंडी स्वामी हैं और वह धर्म के कड़े नियमों का पालन करते हैं. शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती लंबे समय तक भारत के दो मठों के शंकराचार्य रहे. उन्हीं ने अपने दो शिष्य शंकराचार्य सदानंद सरस्वती को द्वारका मठ का शंकराचार्य नियुक्त किया. वहीं स्वामी अविमुक्तेश्वर आनंद को ज्योर्तिमठ का शंकराचार्य नियुक्त किया. स्वामी चैतन्यानंद बताते हैं कि ये दोनों शंकराचार्य हिंदू धर्म के सभी अंगों के ज्ञाता हैं.