जबलपुर। भेड़ाघाट में सड़क किनारे आपको सफेद संगमरमर की बनी मूर्तियां बेचते हुए कलाकार नजर आ जाते हैं. इनमें से कुछ कलाकारों की मूर्तियां नायाब हैं. लेकिन इन मूर्तियों को देखकर सहसा ऐसा एहसास होता है कि मानों यह मूर्तियां कुछ कहना चाहती हैं. यह मूर्तियां हंसती मुस्कुराती नहीं हैं. बल्कि इनमें एक बेबसी नजर आती हैं. ऐसा लगता है कि मानों यह मूर्तियां कुछ कह रही हैं. कि कोई परेशान है. हमने जब मूर्ति कलाकारों से उनकी परेशानी जाननी चाही. तो उन्होंने कहा कि उनकी कला बड़े व्यापारियों के यहां गिरवी रखी है. जब भी इन कलाकारों को पैसे की जरूरत होती है. तो बड़े व्यापारी पैसा दे देते हैं और फिर कला माटी के मोल बिक जाती है और परेशान आदमी पत्थर में भी खुशी नहीं डाल पाते.
- कलाकारों की नहीं सुनती सरकार
भेड़ाघाट की खूबसूरत संगमरमर चट्टानों को देखने और नौका विहार करने देश के लगभग सभी आम और खास लोग यहां आते हैं. यहां मूर्तिकार सैकड़ों साल पहले भी मूर्तियां बना रहे थे. जब अहिल्याबाई होलकर यहां आई थी.तब महात्मा गांधी यहां आए थे. देश के प्रधानमंत्री, प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल लगभग सभी लोग भेड़ाघाट में बनी मूर्तियां ले जा चुके हैं. संगमरमर की दूधिया चट्टान से मूर्ति बनाने की यह कला सदियों पुरानी है. इन लोगों को किसी ने सिखाया नहीं है. बल्कि यह खुद ही इस कला के माहिर हो गए हैं. लेकिन भेड़ाघाट के अलावा इन लोगों को कहीं पर भी कोई स्थान नहीं मिला. सरकार ने कभी इस कला को संरक्षण देने की कोशिश नहीं की.
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- पत्थर तक नहीं मिलता
ऐसे जबलपुर के आसपास कई जगह यह नर्म दूधिया पत्थर पाया जाता है. लेकिन इन कलाकारों को यह पत्थर नहीं मिल पाता. कलाकारों का कहना है कि वह 50 रुपए किलो की दर से इस पत्थर को खरीदते हैं. ऐसा नहीं है कि जबलपुर के आसपास पत्थर खनन नहीं हो रहा लेकिन जिनको इस पत्थर को तराशने की कला आती है. उन तक यह पत्थर नहीं पहुंच पाता है. मूर्ति बनाने के दौरान बहुत भारी डस्ट उड़ती है और मूर्ति बनाते समय इन कलाकारों के फेफड़ों में डस्ट जमा हो जाती है. जिससे वो बीमार भी हो जाते हैं. लेकिन पेट की आग बुझाने के लिए कलाकार अपने हाथ नहीं रोकते और जब दिल और दिमाग दोनों ही तकलीफ में हो तो, पत्थर की बनी मूर्तियां क्यों मायूसी नजर नहीं आएंगी.