ग्वालियर। पूरे देश में जब आजादी की लड़ाई चरम पर थी, उसे धार देने के लिए महात्मा गांधी देश के कोने-कोने में जा रहे थे, लेकिन पूरे आंदोलन के दौरान बापू कभी ग्वालियर नहीं आये. स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों ने इसके लिए कई बार उनसे संपर्क भी साधा, लेकिन वे नहीं माने. इस दौरान इस अंचल यानी सिंधिया रियासत में कांग्रेस के गठन और तिरंगा फहराने पर भी राजकीय प्रतिबंध था. बावजूद इसके अगर हम महात्मा गांधी की हत्या के घटना को देखें तो उसमें ग्वालियर एक मुख्य भूमिका में नजर आती है. आखिर गांधी, गोडसे और फिर राष्ट्रपिता की शहादत वाले इस जघन्य हत्याकांड से ग्वालियर का कनेक्शन क्या था, ग्वालियर ने इसका क्या खामियाजा भुगता ? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि जानिए कही और अनकही कहानी जो बड़ी रोमांचक है.
गांधी कभी नहीं आए, नेहरू की सभा में तिरंगा लहराने पर मिली कैद: ग्वालियर में स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी लोगों में रहे और महात्मा गांधी के साथ वर्धा आश्रम में कुछ समय बिताने वाले गांधीवादी कक्का डोंगर सिंह की आत्मकथा महासमर के साक्षी में इसका उल्लेख बड़ी पीड़ा के साथ किया गया है. उन्होंने लिखा है कि ग्वालियर रियासत में कांग्रेस का गठन नहीं हो सकता था, क्योंकि तब ऊपर तय हुआ था कि अभी हम अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट लड़ाई लड़ें. रियासतों में रहने वाले लोगों को स्वतंत्रता के बाद उनका वाजिब हक मिलेगा. मैंने दो बार गांधीजी से ग्वालियर आने का आग्रह किया. झांसी जाकर उनसे मिलकर विनती की, लेकिन उन्होंने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया. तब कहा गया कि अंग्रेजों के जाते ही राजा खुद सत्ता छोड़ भागेंगे, लेकिन आजादी के दीवानों को भला कहां चैन था. उन्होंने पहले डोंगर सिंह के नेतृत्व में कन्हैया लोकगीत के जरिये गांव-गांव अलख जगाई फिर थाटीपुर में अखाड़े के जरिये युवाओं को संगठित करने का प्रयास किया.
इसके बाद अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा सभा का गठन किया गया. 17 दिसम्बर 1927 को हुए अधिवेशन में सबसे पहले रियासत वाले क्षेत्रों में उत्तरदायी शासन की मांग उठी. 1936 के कराची अधिवेशन में पहुंचे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ये घोषणा तो की यदि स्वराज मिल जाता है, तो रियासत, जनता को भी उसमें हिस्सा मिलेगा, लेकिन इन क्षेत्रों में कांग्रेस को गतिविधियां चलाने का अधिकार मिल जाएगा.
ग्वालियर के नाम लिखा गया कलंक: 30 जनवरी 1948 को भारत के इतिहास में काला दिन माना जाता है. यह काला दिन इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसी दिन शाम को जब दिल्ली के बिड़ला भवन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्रार्थना सभा से उठ रहे थे, उसी दौरान नाथूराम गोडसे ने बापू के सीने को गोली से छलनी कर दिया था. नाथूराम गोडसे ने बापू की हत्या की साजिश की पटकथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर में रची थी. ग्वालियर शुरू से ही हिंदू महासभा का गढ़ रहा है. जहां आज भी गोडसे को भगवान की तरह पूजा जाता है. उन दिनों गोडसे के सहयोगी ग्वालियर आते-जाते थे. 20 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या की नाकाम कोशिश की.
दिल्ली से भागकर ग्वालियर आये साजिशकर्ता: वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली का कहना है कि 24 जनवरी 1948 को रात दो बजे पंजाबमेल से नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे ग्वालियर आये. यहां से वे अपने पुराने हिन्दू महासभाई परिचित डॉ दत्तात्रय सदाशय परचुरे के शिंदे की छावनी के घर पहुंचे. 28 जनवरी तक परचुरे के घर में ही रुके और उसी रात पठानकोटमेल से वापस दिल्ली लौट गए, यहां रहकर गोडसे ने 20 जनवरी को मिली असफलता के कारणों का रिव्यू किया और फिर अपने दिमाग में नया प्लान तैयार किया.
ग्वालियर में फिर सीखी निशानेबाजी: 20 जनवरी के हमले के असफल हो जाने के बाद गोडसे बहुत परेशान था. उसके पास ग्वालियर से ही मिली एक 32 बोर की एक पिस्टल थी. उसने ग्वालियर में स्वर्णरेखा के आसपास सुनसान इलाकों में निशाना लगाने का अभ्यास भी किया. इस पिस्टल को उसे जगदीश गोयल नामक व्यक्ति ने बेची थी और कारतूस भी उपलब्ध कराए थे. 29 जनवरी को सुबह गोडसे दिल्ली पहुंचा और उसने उसी दिन शाम को ग्वालियर से ले जाई गई पिस्टल से महात्मा गांधी पर वार करके कलंक का वह अध्याय लिख दिया, जिसके छींटे ग्वालियर तक आये और वह भी इस कलंक कथा का हिस्सा बन गया.
ग्वालियर ने झेला दंश: महात्मा गांधी की नृशंस हत्या के बाद ग्वालियर को भी घृणा की नजर से देखा गया. यहां रहने वाले दक्षिणी ब्राह्मण परिवारों को लंबे समय तक संदेह की नजर से देखा गया. अन्य राजनीतिक नुकसान भी इन्हें झेलना पड़े. हालांकि इस मामले में डॉ परचुरे को कोर्ट ने बरी कर दिया था, लेकिन उनका परिवार अनेक वर्षों तक संदेह के दायरे में और अघोषित रूप से पुलिस और गुप्तचरों की निगरानी में रहा.