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कपड़ा गरीबी की चादर ओढ़े जीने को है मजबूर, दो वक्त की रोटी के लिए झेल रहे गरीबी का सितम

गरीबी की चादर ओढे़ यह मजदूर बस जीने को मजबूर है. कमला का परिवार एक टपरिया में जीने को मजबूर है. लॉकडाउन में नियमों की झड़ी लगाए शासन को क्यों नहीं दिखता इस गरीब के घर का राशन. घर में एक बेटा है, जो लाचारी का जीवन जीने को मजबूर है. दूसरों के घर-घर जाकर जो मिल जाता है, उसी में इनका गुजारा चल रहा है. क्या सरकार की राजनीति वाली आंखें कभी इन गरीबों की तरफ देख पाएंगी.

Workers upset for bread
रोटी के लिए परेशान मजदूर
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Published : May 20, 2020, 9:08 PM IST

Updated : May 20, 2020, 9:28 PM IST

छतरपुर। रोटी के लिए रोजगार चाहिए या फिर आधार चाहिए, पर ये वो बदनसीब हैं, जिसके पास न तो रोजगार है और न ही आधार, ये बिल्कुल निराधार हैं. जिसके सिर पर छत के नाम पर काली पन्नी है. जो आधारहीन होता है, उसकी किसी को जरूरत भी नहीं होती, फिर भी ये जरूरी है वोट देने के लिए, बस पांच साल में एक बार ही याद आते हैं. गरीबी की चादर ओढे़ ये उस लाचार की कहानी है, जिसके पास न तो रहने के लिए घर है और ना ही खाने के लिए खाना. बेरोजगारी के चलते बुंदेलखंड से ज्यादातर मजदूर अपने गांव से अन्य राज्यों के लिए पलायन कर जाते थे, लेकिन अब ये मजदूर कोरोना महामारी की वजह से गांव वापस आ चुके हैं. छतरपुर से 17 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव कर्री में रहने वाला एक आदिवासी परिवार भी कुछ इसी तरह की परेशानी से जूझ रहा है.

गरीबी की मार

मुश्किल से मिलती है दो वक्त की रोटी

गांव में रहने वाले कमला आदिवासी ने कहा कि वे एक छोटे से टपरे में पिछले कई सालों से रह रहे हैं. परिवार में पत्नी और एक 10 साल का बेटा है. उन्होंने कहा कि उन्हें मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती है. जब खाने को कुछ नहीं रहता तो दूसरों से मांगकर पेट भरते हैं. झोपड़ी इतनी छोटी है कि उसके अंदर खड़े भी नहीं हो सकते, बरसात के दिनों में झोपड़ी के बाहर ही रहना पड़ता है. कमला ने कहा कि उसके पास ना तो राशन कार्ड है और ना ही गांव के सरपंच और सचिव ने उनकी किसी प्रकार की मदद की है.

नहीं मिलता किसी भी योजना का लाभ

कमला आदिवासी की पत्नी राजा भाई का कहना है कि उनके पास ना तो राशन कार्ड है और ना ही गांव का आधार कार्ड. यही वजह है कि उसे ना तो राशन मिलता है और ना ही गांव की किसी योजना का लाभ. गांव में लोगों के घर दिनभर काम करने पर खाने को मिल जाता है. कमला का बेटा कुछ साल पहले छत से गिर गया था, इलाज के लिए रुपए नहीं होने से उसका पेट लगातार बढ़ता जा रहा है. उन्होंने कहा कि खाने को पैसे नहीं हैं ऐसे में बच्चे का इलाज कैसे कराएं. कई बार सरकारी अस्पताल में जाकर इलाज कराने की कोशिश की लेकिन डॉक्टर बाहर की दवाएं लिखते हैं, जिसे वे नहीं खरीद सकते.

Forced to live in poverty
गरीबी में जीने को मजबूर

बीमारी से जूझ रहा शिवा

शिवा ने बताया कि वो कुछ साल पहले छत से गिर गया था. तभी से पेट बढ़ता जा रहा है. वो स्कूल जाना चाहता है, पढ़ना चाहता है. लेकिन बढ़ते हुए पेट का स्कूल में बच्चे मजाक ना बनाने लगे इस डर से वह स्कूल नहीं जाता है. गांव में इस आदिवासी परिवार के जैसे कई और परिवार भी हैं. जो वर्तमान में इसी तरह की परेशानी से जूझ रहे हैं. गरीबी के चलते गांव में रहने वाले मजदूर पलायन तो कर गए, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से उन्हें वापस अपने गांव आना पड़ा. सरकार के सामने एक चुनौती है कि कमला जैसे परिवार को रोजगार और खाना कैसे मुहैया कराएंगी.

Migrant labor
प्रवासी मजदूर

छतरपुर। रोटी के लिए रोजगार चाहिए या फिर आधार चाहिए, पर ये वो बदनसीब हैं, जिसके पास न तो रोजगार है और न ही आधार, ये बिल्कुल निराधार हैं. जिसके सिर पर छत के नाम पर काली पन्नी है. जो आधारहीन होता है, उसकी किसी को जरूरत भी नहीं होती, फिर भी ये जरूरी है वोट देने के लिए, बस पांच साल में एक बार ही याद आते हैं. गरीबी की चादर ओढे़ ये उस लाचार की कहानी है, जिसके पास न तो रहने के लिए घर है और ना ही खाने के लिए खाना. बेरोजगारी के चलते बुंदेलखंड से ज्यादातर मजदूर अपने गांव से अन्य राज्यों के लिए पलायन कर जाते थे, लेकिन अब ये मजदूर कोरोना महामारी की वजह से गांव वापस आ चुके हैं. छतरपुर से 17 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव कर्री में रहने वाला एक आदिवासी परिवार भी कुछ इसी तरह की परेशानी से जूझ रहा है.

गरीबी की मार

मुश्किल से मिलती है दो वक्त की रोटी

गांव में रहने वाले कमला आदिवासी ने कहा कि वे एक छोटे से टपरे में पिछले कई सालों से रह रहे हैं. परिवार में पत्नी और एक 10 साल का बेटा है. उन्होंने कहा कि उन्हें मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती है. जब खाने को कुछ नहीं रहता तो दूसरों से मांगकर पेट भरते हैं. झोपड़ी इतनी छोटी है कि उसके अंदर खड़े भी नहीं हो सकते, बरसात के दिनों में झोपड़ी के बाहर ही रहना पड़ता है. कमला ने कहा कि उसके पास ना तो राशन कार्ड है और ना ही गांव के सरपंच और सचिव ने उनकी किसी प्रकार की मदद की है.

नहीं मिलता किसी भी योजना का लाभ

कमला आदिवासी की पत्नी राजा भाई का कहना है कि उनके पास ना तो राशन कार्ड है और ना ही गांव का आधार कार्ड. यही वजह है कि उसे ना तो राशन मिलता है और ना ही गांव की किसी योजना का लाभ. गांव में लोगों के घर दिनभर काम करने पर खाने को मिल जाता है. कमला का बेटा कुछ साल पहले छत से गिर गया था, इलाज के लिए रुपए नहीं होने से उसका पेट लगातार बढ़ता जा रहा है. उन्होंने कहा कि खाने को पैसे नहीं हैं ऐसे में बच्चे का इलाज कैसे कराएं. कई बार सरकारी अस्पताल में जाकर इलाज कराने की कोशिश की लेकिन डॉक्टर बाहर की दवाएं लिखते हैं, जिसे वे नहीं खरीद सकते.

Forced to live in poverty
गरीबी में जीने को मजबूर

बीमारी से जूझ रहा शिवा

शिवा ने बताया कि वो कुछ साल पहले छत से गिर गया था. तभी से पेट बढ़ता जा रहा है. वो स्कूल जाना चाहता है, पढ़ना चाहता है. लेकिन बढ़ते हुए पेट का स्कूल में बच्चे मजाक ना बनाने लगे इस डर से वह स्कूल नहीं जाता है. गांव में इस आदिवासी परिवार के जैसे कई और परिवार भी हैं. जो वर्तमान में इसी तरह की परेशानी से जूझ रहे हैं. गरीबी के चलते गांव में रहने वाले मजदूर पलायन तो कर गए, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से उन्हें वापस अपने गांव आना पड़ा. सरकार के सामने एक चुनौती है कि कमला जैसे परिवार को रोजगार और खाना कैसे मुहैया कराएंगी.

Migrant labor
प्रवासी मजदूर
Last Updated : May 20, 2020, 9:28 PM IST
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