भिंड। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान सिंधिया रियासत के गोहद के गांव जटपुरा के गुर्जर परिवार में साल 1927 में मोहर सिंह का जन्म हुआ था, जो आगे चलकर बीहड़ में आतंक का सबसे बड़ा पर्याय बन गया. आजाद भारत में मोहर सिंह गुर्जर की दहाड़ (ETV Bharat Special Dacoit Series) से पुलिस भी थर्राती थी. उसका नाम सुन लोगों के हलक सूख जाते थे. हालांकि, पुलिस उनकी फरियाद सुनती तो वो बागी नहीं बनते, लेकिन पारिवारिक कलह और पुलिस की अनदेखी ने उन्हें हथियार उठाने के लिए मजबूर कर दिया.
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पारिवारिक झगड़े ने मोहर को बनाया बागी
मोहर सिंह के बेटे सत्यभान सिंह गुर्जर ने बताया कि पारिवार बड़ा था, जिसकी वजह स आपसी मतभेद भी रहते थे. साल 1955 में पारिवारिक विवाद पुलिस तक पहुंचा, जब पुलिस ने भी साथ नहीं दिया तो मजबूरन मोहर सिंह को बंदूक उठानी पड़ी और दुश्मनों से बदला लेने के लिए वो बीहड़ों में चले गए. परिजन और रिश्तेदार उन्हें मनाकर किसी तरह दो बार वापस ले आये, लेकिन तीसरी बार वे नहीं लौटे. हालांकि, इंतकाम पूरा करने के बाद उन्होंने 140 बागियों के साथ 1972 में आत्मसमर्पण कर दिया.
150 बागियों के 'सरदार' थे मोहर सिंह
पूर्व डकैत मोहर सिंह के गैंग में 150 बागी थे, उस समय डकैत आपसी तालमेल के साथ रहते थे. डाकू माधो सिंह उनके खासमखास थे, कई गैंग को मिलाकर एक गिरोह बनता था, जिसके अपने-अपने सरदार होते थे. ये गैंग हर ढाई महीने में एक बार इकट्ठा होता था. अपहरण जैसी वारदातों में भी टकराव होता था, लेकिन एक दूसरे की इज्जत रखते हुए पकड़ने-छोड़ने पर राजी हो जाते थे. मोहर सिंह के गिरोह में करीब 400 बागी थे, जिनमें से 150 बागियों का नेतृत्व मोहर सिंह करते थे, यानि उनके सरदार थे.
फिल्मी पर्दे से अलग बागियों की जिंदगी
मोहर सिंह के बेटे सत्यभान सिंह गुर्जर ने बताया कि फिल्मों में डकैतों और बागियों को जिस तरह दिखाया जाता है, वैसा होता नहीं है. उनके पिता बताते थे कि असल जिंदगी में डकैत और बागी कभी घोड़ों का इस्तेमाल नहीं करते थे क्योंकि इनकी वजह से उनकी रफ्तार कम होती थी, बीहड़ों में पुलिस आसानी से उन तक पहुंच सकती थी. डकैतों का सफर हमेशा पैदल रहता था. सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्मों में घोड़ों पर सवार बागियों को दिखाया जाता है, जबकि बागियों का जीवन बेहद कष्टकारी रहता था. कई-कई दिनों तक खाना भी नसीब नहीं होता था, कभी सामने रखा हुआ खाना भी पुलिस की वजह से छोड़कर भागना पड़ता था.
400 हत्या, 600 अपहरण के केस दर्ज
सत्यवान सिंह गुर्जर के मुताबिक उनके पिता पर करीब 400 से ज्यादा हत्या और 600 से अधिक अपहरण के केस अलग-अलग थानों में दर्ज (Mohar Singh gurjar dangerous rebel of Chambal) हैं. इनमें से ज्यादातर अपराध उन्होंने नहीं किये थे, फिर भी गैंग के मुखिया के नाते गैंग के हर अपराध का जिम्मेदार मुखिया को भी माना जाता था. यही वजह थी कि उनके गैंग पर पुलिस ने 12 लाख रुपए का इनाम रखा था, जिसमें 2 लाख रुपए का इनाम अकेले बागी मोहर सिंह गुर्जर पर ही था.
26 लाख की फिरौती से उड़े पुलिस के होश
सबसे यादगार वारदात के बारे में बताते हुए सत्यवान कहते हैं कि उनके पिता ने बताया था कि दिल्ली के एक मूर्ति तस्कर को ग्वालियर में किडनैप करा लिया था, जिसे बेशकीमती मूर्ति के बहाने चंबल बुलाया था. वह प्लेन से दिल्ली से ग्वालियर पहुंचा था, जहां मोहर सिंह ने उसे पकड़ लिया, फिर उसके परिवार वालों से 26 लाख रुपए की फिरौती वसूली थी. हालांकि, अपहरण के बाद चंबल के बीहड़ों में छोड़ दिया था. इस मामले में पुलिस एड़ी-चोटी का जोर लगाई थी, लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ.
बागी उसूलों के लिए कभी डकैती नहीं डाली
बागियों के भी अपने उसूल हुआ करते थे, मोहर सिंह के बेटे ने बताया कि मोहर सिंह डकैत नहीं थे, वह बागी हुए थे. बागियों का अपना उसूल होता है, इसीलिए उन्होंने कभी डकैती नहीं डाली. जीवन यापन के लिए पैसा जुटाने का एकमात्र जरिया अपहरण था. इसके पीछे कारण था कि घरों में डकैती डालने पर घर में महिलाओं का निरादर न हो, कोई सदस्य उनके साथ गलत न कर दे क्योंकि तब बागी गिरोह में महिलाएं नहीं होती थी. इसी वजह से बागी होने का मतलब ब्रह्मचर्य का पालन भी हुआ करता था.
मोहर के परिवार पर पुलिस करती जुल्म
बीहड़ के साथ-साथ जब पुलिस में भी मेहर सिंह का खौफ बढ़ने लगा, तब अपनी नाक बचाने के लिए पुलिस एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगी. पुलिस किसी तरह मोहर सिंह को अपने चंगुल में फंसाना चाहती थी. धौलपुर में हुए एक अपहरण के बाद भिंड पुलिस ने उनके परिवार पर जुल्म ढाना शुरू कर दिया. मोहर सिंह के भतीजे ने बताया कि वे जब भी कोई कांड करते थे, पुलिस पूरे परिवार को थाने में ठूंस देती थी, बेरहमी से लाठियां बरसाती थी, दबाव बनाती थी कि किसी तरह मोहर सिंह को सरेंडर करवा दें, लेकिन वे सरेंडर करने को तैयार नहीं थे, जिसकी वजह से पूरे परिवार को पुलिस का जुल्म सहना पड़ा.
सुब्बाराव के प्रभाव से सरेंडर को हुए राजी
सन 1972 में चंबल के डकैतों और बागियों को सरकार ने सरेंडर कर मुख्य धारा से जुड़ने का ऑफर दिया था. उस दौरान गांधी विचारक एसएन सुब्बाराव चंबल के बीहड़ों में घूम-घूम कर डकैतों से मिले. इसी दौरान उनकी मुलाकात डकैत माधो सिंह से भी हुई. चूकिं माधो सिंह और मोहर सिंह अजीज दोस्त थे. ऐसे में वे सुब्बाराव की बातों से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरेंडर करने (Mohar Singh gurjar dangerous rebel of Chambal) के लिए हामी भर दी. हालांकि इसके लिए उन्होंने अपनी कुछ शर्तें भी रखी थी.
UP पुलिस पर नहीं भरोसा, MP में किया सरेंडर
एक इंटरव्यू में मोहर सिंह ने बताया था कि उन्होंने कभी उत्तर प्रदेश की पुलिस पर भरोसा नहीं किया क्योंकि उत्तर प्रदेश पुलिस डकैतों को ले जाकर एनकाउंटर कर देती थी. ऐसे में उन्होंने मध्यप्रदेश में ही सरेंडर करने का फैसला किया. माधो सिंह की मुलाकात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी हुई, इसके बाद जयप्रकाश नारायण के सामने मुरैना जिले के जौरा में उन्होंने अपने सभी साथियों के साथ सरेंडर कर दिया. बाद में भी बीहड़ों में घूम-घूम कर उन्होंने 500 से ज्यादा बागियों को भी सरेंडर करवाया था, जिसके बाद उन्हें 8 साल कैद हुई.
जब जेल में जला दी थी चार्जशीट की कॉपी
मोहर सिंह के बेटे सत्यवान ने बताया कि उनके पिता ने बताया था कि जब जेल में बंद थे, उस दौरान जेल में उनके अपराधों की चार्ज शीट भेजी गई थी, जब पूछा कि ये क्या है तो उन्हें बताया गया कि यह आपके अपराधों का रिकॉर्ड है. यह सोचकर की सारे अपराध इन्हीं कागजों में दर्ज हैं, मोहर सिंह ने चार्टशीट की फाइल ही जला डाली. जब पुलिस ने उनसे पूछा कि ये क्या किया तो उन्होंने कहा कि हमने अपने सारे केस यहीं खत्म कर दिए. जेलकर्मियों ने उन्हें बताया कि चार्जशीट की एक कॉपी कोर्ट में भी होती है, यह सुन उनकी हवाइयां उड़ गई, बाद में वे इस पर खूब हंसे.
बागी से हीरो बन फिल्म में निभाया किरदार
बागी मोहर सिंह भले ही पुलिस और दुश्मनों के लिए खलनायक रहे. लेकिन उन्होंने फिल्मों में भी काम किया. जेल से बाहर आने के बाद 1982 में डकैतों पर बनी फिल्म चंबल के डाकू में उन्होंने अभिनय किया. फिल्म में उन्होंने अपने किरदार को निभाया है, उनके साथ पूर्व डकैत माधो सिंह ने भी अपने किरदार के लिए खुद ही अभिनय किया है.
बागी पर लगी जनता की जनसेवा वाली 'मोहर'
जेल से निकलने के बाद मोहर सिंह की जिंदगी पूरी तरह बदल गई, वे अपने परिवार के साथ रहने लगे. समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए सरकार की तरफ से 21 बीघा जमीन उन्हें दी गई क्योंकि बागी होकर भी वे गरीबों की मसीहा की तरह मदद करते थे. बेटी की शादी हो घर बनाना हो या खाने का इंतजाम. एक सूचना पर मोहर सिंह हाजिर हो जाते थे. जेल से बाहर आने के बाद जनता ने उन्हें बहुत प्यार-सम्मान दिया. बाद में नगर पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीते. उनके कार्यकाल में पहली बार गांव में सड़क निर्माण हुआ. पहली पानी की टंकी भी मोहर सिंह ने ही लगवाई थी.
5 मई 2020 को ढल गया गरीबों का 'सूरज'
5 मई 2020 को 93 साल की उम्र में मोहर सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया, वे लंबे समय तक मधुमेह से ग्रसित रहे. उनके निधन पर पूरा मेहगांव शोक में डूब गया. कोरोना की वजह से ज्यादातर राजनीतिक हस्तियां नहीं पहुंच सकीं, लेकिन कलेक्टर-एसपी श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे. उनके वंशज आज भी उन पर फख्र करते हैं. युवा पीढ़ी अपने दादा से बहुत प्रभावित है क्योंकि उन्होंने हिंसा की जगह अपने दादा की जनसेवा देखी है, उनकी इज्जत देखी है और वही जिम्मेदारी है, जिसे आगे ले जाना है.