ग्वालियर। 70 के दशक में चंबल की पहचान खूंखार डकैतों से होती थी. कहा जाता है कि यहां एक-दो नहीं बल्कि सौ से ज्यादा डकैतों के सरदार रहते थे. इनकी इतनी दहशत थी कि पुलिस भी बीहड़ों में पैर रखने से पहले हजार बार सोचती थी. इन्हीं डकैतों में से एक था पान सिंह तोमर. (Pan Singh athlete army man becomes a dacoit)
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'बनूंगा तो फौजी ही'
पान सिंह तोमर की जिंदगी पूरी तरह से फिल्मी थी. इसलिए उन पर एक अवॉर्ड विनिंग बॉलीवुड मूवी बन चुकी है. जिसमें अभिनेता इरफान खान ने पान सिंह तोमर के किरदार को जिंदा कर दिया था.
मुरैना मुख्यालय से करीब 55 किलोमीटर दूर भिडोसा गांव में 1 जनवरी 1932 को पान सिंह का जन्म हुआ. सीधा साधा परिवार खेती बाड़ी कर अपना गुजारा करता था. भिडोसा गांव में करीब-करीब हर घर में एक फौजी था. इसलिए लड़कपन में बालक पान सिंह की नन्हीं आंखों में सेना की वर्दी छप चुकी थी. उन्होंने घरवालों को साफ-साफ कह दिया था कि बनूंगा तो फौजी ही और कोई काम मुझे नहीं करना. जवानी की दहलीज पर कदम रखने के साथ ही पान सिंह अपने सपने को सच करने में जुट गए.
चौथी कक्षा फेल पान सिंह बन गया सिपाही
फौजी बनने के लिए उन्होंने खूब पसीना बहाया. सुबह चार बजे जब लोग नींद में होते, तो पान सिंह खेतों में निकल चुके होते. सूरज निकलने से पहले वो कई किलोमीटर नाप चुके होते थे. कई महीनों की मेहनत के बाद छह फीट लंबे पान सिंह तोमर का सपना साकार होने वाला था. सेना की भर्ती निकली और अच्छी कद काठी का युवा पान सिंह पहली कोशिश में ही सिपाही बन गया.
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क्या खूब दौड़े पान सिंह...
सेना में पान सिंह तोमर अपनी लंबाई के कारण पूरे ग्रुप में काफी चर्चित थे. उनकी पहली पोस्टिंग उत्तराखंड के रुड़की में हुई, जहां वे सूबेदार बने . सेना में जाने के बाद भी दौड़ना उनका जुनून बना रहा. जब भी वो अपने साथियों के साथ दौड़ते तो अव्वल आते. उनके अफसरों ने इस हुनर को पहचाना. अफसरों ने पान सिंह तोमर को अब लंबी दौड़ के लिए तैयार किया. जल्द ही वे अच्छे सैनिक के साथ ही सेना के मशहूर एथलीट बन गए.
1950 और 1960 के दशक में सात बार राष्ट्रीय स्टीपलचेज के चैम्पियन बने. 1952 के एशियाई खेलों में उन्होंने भारत की अगुवाई की. पान सिंह तोमर ने 3000 मीटर की दौड़ 9 मिनट 2 सेकंड में पूरी की. ये ऐसा रिकॉर्ड था जिसे दूसरे एथलीटों को तोड़ने में 15 साल लग गए.
पान सिंह को खींच लाई गांव की मिट्टी
इसी दौरान चीन और पाकिस्तान से 1962 और 1965 में युद्ध छिड़ गया. लेकिन पान सिंह तोमर को इससे दूर रखा गया. सेना एक अच्छे धावक को लड़ाई के मैदान से दूर रखना चाहती थी. शानदार करियार के बाद 1972 में पान सिंह तोमर ने आर्मी से रिटायरमेंट ले लिया.
सिस्टम के खिलाफ फौजी पान सिंह का 'यलगार'
सेना से रिटायर होने के बाद पान सिंह सुकून की जिंदगी जीने के लिए फिर से अपने गांव भिडोसा आ गए. फिर से खेती-बाड़ी और गांव की मिट्टी में रच बस गए . लेकिन तकदीर में कुछ और ही लिखा था. गांव की मिट्टी लाल होने वाली थी.यहां खून की होली खेली जानी थी. गले में मेडल की बजाय पान सिंह तोमर के कंधे पर दुनाली बंदूक आने वाली थी.(rebel of behad pan singh tomar)
कुछ समय बाद पान सिंह को पता चला कि उनकी जमीन पर उनके ही परिवार के सदस्यों ने कब्जा कर लिया था. पान सिंह तोमर अफसरों के सामने कई बार गिड़गिड़ाए. फौजी होने की दुहाई दी. दौड़ में जीते मेडल दिखाए. वे कलेक्टर के पास भी फरियाद लेकर गए. कलेक्टर ने मेडल जमीन पर फेंक दिए और उन्हें धक्के मारकर दफ्तर से बाहर फिंकवा दिया. पान सिंह ने हाथ पैर जोड़े, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. गांव के पंच सरपंच भी उन्हें इंसाफ नहीं दिला पाए.
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इसलिए बागी हो गया पान सिंह
एक दिन पान सिंह तोमर अपनी जमीन को वापस लेने के लिए किसी अधिकारी के पास गए थे . इसी का फायदा उठाकर परिवार के सदस्य बब्बू सिंह ने उनकी मां से मारपीट कर दी. पान सिंह घर लौटे तो मां की आंखों में आंसू थे. पान सिंह का खून खौल उठा. एक अनुशासित फौजी का कानून से भरोसा उठ गया. मां के आंसू उनके सीने में अंगारे बनकर धधकने लगे. बदले की आग में पान सिंह सब कुछ भूल गए. कई सालों तक देश के लिए पसीना बहाने वाला फौजी बदले की आग में जल रहा था. उसने कसम खाई कि मां के आंसुओं का हिसाब सबको देना होगा. और यहीं से पैदा हुआ एक खतरनाक डकैत पान सिंह तोमर.
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पान सिंह बन गया बीहड़ का आतंक
पान सिंह तोमर का पहला शिकार बना बब्बू सिंह, जिसने उसकी मां के साथ मारपीट की थी. पान सिंह अपने भतीजे बलवंत सिंह को साथ लेकर पहुंच गए बब्बू सिंह के खेत. पान सिंह को देखते ही वो भागने लगा. एक किलोमीटर तक पान सिंह ने उसका पीछा किया और फिर उस पर गोलियों की बौछार कर दी. बब्बू सिंह वहीं ढेर हो गया. इसी के साथ पान सिंह के लिए गांव के रास्ते भी बंद हो गए. अपने भतीजे के साथ वो बीहड़ चले गए. आखिरी सांस तक बीहड़ ही उनका घर बना रहा. पान सिंह अब बागी बन चुका था.
बदले की आग में फौजी बन गया डकैत
यहां से शुरु होती है पान सिंह के आतंक और दहशत की दुनिया. उसने सबसे पहले एक आदमी का अपहरण किया. 75000 रुपए की फिरौती ली. हथियार खरीदे और 28 लोगों की गैंग बना ली. जमीन हड़पने वाले परिवार के एक-एक सदस्य को पान सिंह ने गोलियों से भून डाला. अब तक पान सिंह तोमर चंबल के बीहड़ों का सबसे खूंखार डकैत बन चुका था. अब पूरा चंबल पान सिंह की दहाड़ से थर्राने लगा. वो बागी से डकैत बन चुका था.
पान सिंह तोमर ने खेली खून की होली
70 के दशक में चंबल के बीहड़ में डकैत पान सिंह तोमर का नाम गूंजता था. कई बार पुलिस की उससे मुठभेड़ हुई, लेकिन फौज की ट्रेनिंग ने उसे इतना शातिर बना दिया था, कि वो हर बार पुलिस पर भारी पड़ता. 1981 में पान सिंह तोमर के गिरोह से पुलिस की फिर मुठभेड़ हुई. पान सिंह तोमर फिर भी पुलिस के हाथ नहीं लगा, लेकिन उसका भाई मातादीन मारा गया. इसका बदला लेने के लिए पान सिंह तोमर ने गुर्जर समुदाय के 6 लोगों की हत्या कर दी.
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पान सिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी
छह निर्दोष लोगों की हत्या से सरकार हिल गई. उसकी थू-थू होने लगी. विपक्षी दलों ने सरकार को निकम्मा और डरपोक करार दिया. भोपाल से लेकर दिल्ली तक सरकार पर जबरदस्त दबाव पड़ने लगा. मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने डकैत पान सिंह तोमर को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी कर दिया.
पान सिंह को पकड़ना इतना आसान नहीं था. गांव में उसके भी मुखबिर फैले हुए थे. जो उसे पहले ही बता देते थे कि पुलिस कब-कहां आने वाली है. कई दिनों तक पुलिस और पान सिंह के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा. लेकिन पान सिंह की दहशत बढ़ती जा रही थी.
भोपाल से दिल्ली तक हिल गई सरकार
पान सिंह तोमर को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए बीएसएफ की 15 कंपनियों और एसटीएफ की टीम ने मोर्चा संभाला .इस मिशन पर सरकार के करोड़ों रुपए खर्च हो चुके थे. जिंदा पान सिंह तोमर सरकारी की नाकामी का दाग बन चुका था. करोड़ों रुपए फूंकने के बाद भी अब तक पान सिंह तोमर पुलिस के हाथ नहीं लगा था.
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ऐसे मारा गया पान सिंह तोमर
1 अक्टूबर 1981 को इंस्पेक्टर एमपी सिंह और 500 से ज्यादा सुरक्षाबलों ने डकैत पान सिंह तोमर को चंबल में घेर लिया.दोनों तरफ से जोरदार गोलीबारी हुई. एनकाउंटर करीब 12 घंटे तक चला. सैकड़ों राउंड की फायरिंग में पान सिंह तोमर और उसके कई साथी मारे गए.
पान सिंह तोमर का भतीजा बलवंत सिंह तोमर मौके से फरार हो गया.लेकिन कुछ दिनों बाद उसने भी सरेंडर कर दिया. 11 साल जेल में काटने के बाद पान सिंह तोमर के भतीजे बलवंत सिंह तोमर रिहा हुए. वे अब ग्वालियर में अपनी जिंदगी काट रहे हैं.
अब यहां रहता है पान सिंह तोमर का परिवार
चंबल में आतंक का पर्याय रहे पान सिंह तोमर की मौत को कई साल हो चुके हैं. उनके परिवार ने भिडोसा गांव छोड़ दिया है. वो अब उत्तर प्रदेश के झांसी में रह रहा है. पान सिंह तोमर के बेटे सौरव सिंह तोमर भारतीय सेना में सूबेदार पद से रिटायर हो चुके हैं. वो झांसी के बबीना में अपनी मां इंदिरा के साथ रहते हैं. दूसरे बेटे हनुमंत सिंह तोमर हैं. जिनकी 1985 में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो चुकी है.
सिस्टम ने पैदा किया डकैत !
पानी सिंह तोमर को दुनिया चंबल का खूंखार डकैत मानती है. लेकिन उसके गांव के लोग उसे बागी कहते थे यानि विद्रोही. ये विद्रोह एक व्यवस्था के खिलाफ था, जो एक फौजी को उसकी पुश्तैनी जमीन नहीं दिलवा पाया. क्या होता अगर उस वक्त के सरकारी अफसर एक रिटायर्ड फौजी की फरियाद सुन लेते. एक अनुशासित सिपाही यूं खून ही होली नहीं खेलता. एक शानदार एथलीट सिस्टम को अपने पैरों तले रौंदकर पुलिस की गोलियां का निशाना नहीं बनता.