छिन्दवाड़ा। पूरे देश में दशहरा के दिन बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहन किया जाता है. लेकिन कई जगह ऐसी भी हैं जहां अब भी रावण को पूजा जाता है. छिंदवाड़ा जिले में ऐसा ही एक आदिवासी गांव है, जहां पर रावण का मंदिर है. इस मंदिर में पुराने शिलालेख भी मौजूद हैं. रावण की याद में इस गांव का नाम भी रावनवाड़ा रखा गया है. जिले के कोल माइंस इलाके में स्थित रावनवाड़ा गांव का नाम रावण के नाम से पड़ने के पीछे पुख्ता प्रमाण तो नहीं है. लेकिन स्थानीय निवासी और रावण की पूजा करने वालों का कहना है कि इसी गांव के जंगलों में रावण ने आकर कठोर तप किया था. तब से ही गांव का नाम रावण के नाम पर रख दिया गया.
त्रेता युग में रावण ने की थी तपस्या
रावनवाड़ा गांव में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, त्रेता युग में रावण ने इसी गांव में भगवान शिव की आराधना की थी. उसी के बाद से इस गांव का नाम रावनवाड़ा पड़ा है. कहा जाता है कि पहले इस इलाके में घनघोर जंगल हुआ करता था. इसी जंगल के बीचो-बीच रावण ने भगवान शिव की आराधना की थी, और भोलेनाथ ने दर्शन देकर यहीं पर रावण को वरदान दिया था.
आराध्य देव के रूप में रावण की होती है पूजा
गांव के आदिवासी रावण को आराध्य देव के रूप में पूजते हैं. रावनवाड़ा में रहने वाले राजेश धुर्वे बताते हैं कि उनके ही खेत में रावण देव का मंदिर विराजित है, और उनकी कई पीढ़ियां लगातार रावण की पूजा करती आ रही हैं. स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि आदिवासी रावण को आराध्य मानते हैं जिसके चलते दशहरा और दिवाली के बाद यहां पर मेला भी लगता है. इस दौरान दूर-दूर से लोग यहां पूजा करने आते हैं और मंदिर में मुर्गों-बकरों की बलि दी जाती है.
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राजनीतिक लाभ के लिए शुरू हुई रावण की पूजा
पंडित श्रवण कृष्ण शास्त्री कहते हैं, 'वैसे तो रावण ब्राह्मण जाति के थे, वे काफी विद्वान भी थे, लेकिन उनके कर्म अच्छे नहीं थे, इसलिए उन्हें नहीं पूजा गया. लेकिन रावण ज्ञानी था, मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी छोटे भाई लक्ष्मण को उनसे सीख लेने की हिदायत दी थी. कुछ सालों में रावण पूजा तेजी से बढ़ी है. ऐसा सबसे बड़ा कारण राजनीतिक लाभ है. अधिकतर लोग इन्हें आदिवासियों का देवता मानते हैं, जबकि जाती से वे ब्राह्मण थे. राजनीतिक लाभ के लिए भी रावण पूजा अधिकतर इलाकों में की जाती रही है'.
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आज भी होती है रावण की पूजा
बुराई के प्रतीक रावण का दशहरा के मौके पर पुतला तो हर जगह दहन किया जाता है, लेकिन बदलते समय के साथ अब आदिवासी समाज हर तरफ से इसका विरोध करने लगा है. आदिवासियों का मानना है कि रावण उनके पूर्वज हैं, इसलिए प्रतीकात्मक रूप से पुतला दहन पर रोक लगना चाहिए. लेकिन छिंदवाड़ा का रावनवाड़ा आज भी रावण की पूजा के लिए जाना जाता है.