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'पाताल' में पानी की कमी, जिस पानी से हाथ नहीं धो सकते उसे पीने को मजबूर हैं छिंदवाड़ा के भारिया आदिवासी

छिंदवाड़ा के तामिया विकासखंड के गावों में नल से जल पहुंचना तो दूर. पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है. भीषण गर्मी में पानी के सभी प्राकृतिक स्त्रोत सूख गए हैं. ऐसे में लोग झिरिया और नाले का पानी पीने को मजबूर हैं.

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Published : Apr 25, 2022, 7:42 PM IST

water problem in patalkot
छिंदवाड़ा के आदिवासी गांवों में भीषण जलसंकट

छिंदवाड़ा। देश और प्रदेश के सरकारें हर घर नल से जल पहुंचाने की योजना बना रही हैं. हजारों घरों तक नल से पीने का पानी पहुंचाया भी गया, लेकिन छिंदवाड़ा के तामिया विकासखंड के गावों में नल से जल पहुंचना तो दूर. पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है. भीषण गर्मी में पानी के सभी प्राकृतिक स्त्रोत सूख गए हैं. ऐसे में सूखे तालाबों के किनारे गड्डे खोदकर या फिर नालों के पानी जिससे हाथ भी नहीं धोया जाए यहां रह रहे लोग उसे पीने को मजबूर हैं. खास बात यह है कि तामिया और पातलकोट के आसपास के इलाकों में भारिया जनजाति के लोग रहते हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के विकास के तमाम दावे करने वाली सरकारें इन्हें पीने का पानी पहुंचाने में क्यों असहाय बनी हुई हैं.

छिंदवाड़ा के आदिवासी गांवों में भीषण जलसंकट

'पाताल' में पानी नहीं: मजबूरी में गंदें पानी को छानकर पी रहे इन लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, क्योंकि जीवन के लिए जल बहुत जरूरी है. तामिया विकासखंड के पातालकोट इलाके में ज्यादातर गांव भारिया जनजाति के लोगों के हैं. इन गावों में विकास आजादी के 75 साल बाद भी नहीं पहुंच सका है. नल जल योजना तो छोड़िए ग्रामीणों के सुविधा के लिए यहां एक हैंडपंप तक नहीं है. ऐसे में जमीन में खोदे गए गहरे गड्डों में रिसकर आने वाला गंदा पानी पीना इनकी मजबूरी है.

पानी के लिए करना होता है मीलों का सफर: आदिवासी इलाकों में आपको गांवों के बाहर, तलाबों के किनारे या फिर नाले के किनारे कई सारी झिरिया (नाले के किनारे गड्ढे खोदने पर जिसमें पानी रिसता है उसे झिरिया कहते हैं) बनीं हुई दिखाई दे जाएंगी और इन गड्डों या झिरियों से पानी लाते ग्रामीण भी. इन लोगों की पीने के पानी की यह तलाश कई बार मीलों लंबीं हो जाती है. तामिया के बिरधा गांव के में करीब 40 घर की बस्ती है. इसमें 200 से ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन इस गांव में पीने के लिए साफ पानी के लिए अब तक कोई भी पुख्ता इंतजाम नहीं हैं. आलम यह है कि लोगों को मीलों दूर जाकर नाले के किनारे गड्ढा खोदकर उससे रिसकर आने वाला गंदा पानी पीना पड़ रहा है. ग्रामीण बताते हैं कि गांव में कोई हैंडपंप नहीं और ना ही पानी का कोई दूसरा संसाधन जिसकी वजह से गर्मी में पानी की व्यवस्था करने के लिए मीलों दूर जाना पड़ता है. गांव के लोगों का पूरा दिन पानी की तलाश करने और उसे घर तक लाने में बीत जाता है.

पानी के लिए छोड़नी पड़ती है रोजी-रोटी: आदिवासी गांव में रोजगार के संसाधन नहीं होने की वजह से लोग मजदूरी पर ही आश्रित हैं. ऐसे जब पानी की तलाश में ही गांव वालों का पूरा समय बीत जाता है तो वे मजदूरी पर भी नहीं जा पाते. ऐसे में उनके के सामने आर्थिक संकट भी पैदा हो रहा है. गांव में पानी की समस्या को लेकर ग्राम पंचायत स्तर पर कई बार आवेदन भी किया गया, लेकिन इन आदिवासियों को कोई सुनवाई नहीं हुई. जैसे तैसे पीने के लिए का पानी लेकर आने वाली महिलाओं का कहना है कि जिस पानी से हम हाथ भी नहीं धो सकते उस पानी को छान छान कर पीना पड़ रहा है. झिरिया में भी पानी थोड़ा-थोड़ा ही आता है, इसलिए गांव के लोग आपसी समझ के मुताबिक जरूरत भर का पानी लेते हैं. पहले एक परिवार पानी भरता है फिर थोड़ी देर बाद दूसरा परिवार पानी को भरता है. जरूरत के मुताबिक पानी लेना सबकी मजबूरी है इसलिए ऐसा करना पड़ रहा है, क्योंकि इस भरी गर्मी में जीने के लिए पानी पीना बेहद जरूरी है.

विकास छोड़िए, पानी की ही व्यवस्था करा दो सरकार: आदिवासियों के विकास और उत्थान के लिए चुनाव के समय में राजनेता बड़े-बड़े दावे और वादे करते हैं, लेकिन उन दावों की पोल खोलने के लिए पातालकोट के इन आदिवासी गांवों की यह हकीकत काफी है. तामिया और पातालकोट इलाके में सिर्फ बिरधा गांव ही नहीं है जहां पानी की किल्लत है. इलाके के कई गांव ऐसे हैं जहां आज भारिया जनजाति के लोग नाले और झिरिया का गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, लेकिन कोई इनकी सुध लेने वाला नहीं है.

छिंदवाड़ा। देश और प्रदेश के सरकारें हर घर नल से जल पहुंचाने की योजना बना रही हैं. हजारों घरों तक नल से पीने का पानी पहुंचाया भी गया, लेकिन छिंदवाड़ा के तामिया विकासखंड के गावों में नल से जल पहुंचना तो दूर. पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है. भीषण गर्मी में पानी के सभी प्राकृतिक स्त्रोत सूख गए हैं. ऐसे में सूखे तालाबों के किनारे गड्डे खोदकर या फिर नालों के पानी जिससे हाथ भी नहीं धोया जाए यहां रह रहे लोग उसे पीने को मजबूर हैं. खास बात यह है कि तामिया और पातलकोट के आसपास के इलाकों में भारिया जनजाति के लोग रहते हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के विकास के तमाम दावे करने वाली सरकारें इन्हें पीने का पानी पहुंचाने में क्यों असहाय बनी हुई हैं.

छिंदवाड़ा के आदिवासी गांवों में भीषण जलसंकट

'पाताल' में पानी नहीं: मजबूरी में गंदें पानी को छानकर पी रहे इन लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, क्योंकि जीवन के लिए जल बहुत जरूरी है. तामिया विकासखंड के पातालकोट इलाके में ज्यादातर गांव भारिया जनजाति के लोगों के हैं. इन गावों में विकास आजादी के 75 साल बाद भी नहीं पहुंच सका है. नल जल योजना तो छोड़िए ग्रामीणों के सुविधा के लिए यहां एक हैंडपंप तक नहीं है. ऐसे में जमीन में खोदे गए गहरे गड्डों में रिसकर आने वाला गंदा पानी पीना इनकी मजबूरी है.

पानी के लिए करना होता है मीलों का सफर: आदिवासी इलाकों में आपको गांवों के बाहर, तलाबों के किनारे या फिर नाले के किनारे कई सारी झिरिया (नाले के किनारे गड्ढे खोदने पर जिसमें पानी रिसता है उसे झिरिया कहते हैं) बनीं हुई दिखाई दे जाएंगी और इन गड्डों या झिरियों से पानी लाते ग्रामीण भी. इन लोगों की पीने के पानी की यह तलाश कई बार मीलों लंबीं हो जाती है. तामिया के बिरधा गांव के में करीब 40 घर की बस्ती है. इसमें 200 से ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन इस गांव में पीने के लिए साफ पानी के लिए अब तक कोई भी पुख्ता इंतजाम नहीं हैं. आलम यह है कि लोगों को मीलों दूर जाकर नाले के किनारे गड्ढा खोदकर उससे रिसकर आने वाला गंदा पानी पीना पड़ रहा है. ग्रामीण बताते हैं कि गांव में कोई हैंडपंप नहीं और ना ही पानी का कोई दूसरा संसाधन जिसकी वजह से गर्मी में पानी की व्यवस्था करने के लिए मीलों दूर जाना पड़ता है. गांव के लोगों का पूरा दिन पानी की तलाश करने और उसे घर तक लाने में बीत जाता है.

पानी के लिए छोड़नी पड़ती है रोजी-रोटी: आदिवासी गांव में रोजगार के संसाधन नहीं होने की वजह से लोग मजदूरी पर ही आश्रित हैं. ऐसे जब पानी की तलाश में ही गांव वालों का पूरा समय बीत जाता है तो वे मजदूरी पर भी नहीं जा पाते. ऐसे में उनके के सामने आर्थिक संकट भी पैदा हो रहा है. गांव में पानी की समस्या को लेकर ग्राम पंचायत स्तर पर कई बार आवेदन भी किया गया, लेकिन इन आदिवासियों को कोई सुनवाई नहीं हुई. जैसे तैसे पीने के लिए का पानी लेकर आने वाली महिलाओं का कहना है कि जिस पानी से हम हाथ भी नहीं धो सकते उस पानी को छान छान कर पीना पड़ रहा है. झिरिया में भी पानी थोड़ा-थोड़ा ही आता है, इसलिए गांव के लोग आपसी समझ के मुताबिक जरूरत भर का पानी लेते हैं. पहले एक परिवार पानी भरता है फिर थोड़ी देर बाद दूसरा परिवार पानी को भरता है. जरूरत के मुताबिक पानी लेना सबकी मजबूरी है इसलिए ऐसा करना पड़ रहा है, क्योंकि इस भरी गर्मी में जीने के लिए पानी पीना बेहद जरूरी है.

विकास छोड़िए, पानी की ही व्यवस्था करा दो सरकार: आदिवासियों के विकास और उत्थान के लिए चुनाव के समय में राजनेता बड़े-बड़े दावे और वादे करते हैं, लेकिन उन दावों की पोल खोलने के लिए पातालकोट के इन आदिवासी गांवों की यह हकीकत काफी है. तामिया और पातालकोट इलाके में सिर्फ बिरधा गांव ही नहीं है जहां पानी की किल्लत है. इलाके के कई गांव ऐसे हैं जहां आज भारिया जनजाति के लोग नाले और झिरिया का गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, लेकिन कोई इनकी सुध लेने वाला नहीं है.

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