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जानिए कुंभ मेले का धर्म और इतिहास,इसके बदले स्वरूप पर क्या कहते हैं इतिहासकार

गोपाल भारद्वाज ने कहा कि सरकार को कुंभ के इतिहास को संभालने की जरूरत है. जिससे कुंभ का पौराणिक महत्व न खोये. इसको लेकर भी सरकारों को ध्यान देना चाहिए. उन्होने सरकार से मांग की है कि कुंभ के इतिहास को लेकर हरिद्वार में म्यूजियम का निर्माण होना चाहिए.

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Published : Jan 17, 2021, 10:27 AM IST

Kumbh Mela
कुंभ मेले

मसूरी/भोपाल। फरवरी में हरिद्वार में होने वाले कुंभ में आस्था, सभ्यता, संस्कृति के रंग देखने को मिलेंगे. कुंभ अपने आप में भारतीय संस्कृति का एक दस्तावेज है. कुंभ का अपना ही अलग एक भरा-पूरा इतिहास है, जो कि हर किसी को रोमांचित करता है. कुंभ की पौराणिकता और इतिहास को लेकर ईटीवी भारत ने मशहूर इतिहासकार गोपाल भारद्वाज से बात की. जिसमें उन्होंने कुंभ के अनसुने और अनसुलझे पहलुओं को बारीकी से बताया.

जानिए कुंभ मेले का धर्म और इतिहास

समुद्र मंथन से शुरू हुआ कुंभ का सिलसिला

इतिहासकार गोपाल भारद्वाज ने बताया कि कुंभ मेले को अपने ही पौराणिक महत्व है. भारत में आदिकाल से कुंभ मेला आयोजित किया जा रहा है. जिसका वर्णन शास्त्रों में भी साफ लिखा हुआ है. शास्त्रों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत को पाने के लिये असुरों और देवताओं में युद्ध हुआ था. ऐसे में असुरों से अमृत को बचाने के लिये विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया. जिसके बाद वे भागने लगे. उस समय कुंभ (घड़े) से कुछ बूंदें छलक कर भारत के चार स्थानों पर गिरी.

Know the religion and history of Kumbh Mela
जानिए कुंभ मेले का धर्म और इतिहास

पढ़ें- टीकाकरण महाभियान: शैलेंद्र द्विवेदी को लगा पहला टीका, CM त्रिवेंद्र ने दी बधाई

पहले 15 दिनों का होता था कुंभ

यह तब हुआ जब सूर्य मकर राशि में जाता है. यह संयोग 12 साल में एक बार आता है. यह सूर्य से भी बनता है और बृहस्पति से भी बनता है. उन्होंने कहा कि भारत के हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक में अमृत की बूंदें गिरी थीं. जहां पर तब से कुंभ का महापर्व अलग-अलग समय में आयोजित किया जाता है.

उन्होंने बताया कि अगर वर्तमान में कुंभ महापर्व का स्वरूप बदल दिया गया है. पहले 15 दिनों का कुंभ होता था. अब इसे 2 से 3 महीने का करके मकर संक्रांति से जोड़ दिया गया है, जबकि यह अप्रैल महीने में हुआ करता था. उन्होंने बताया कि जनवरी में काफी ठंड हुआ करती थी, ऐसे में हरिद्वार में लोग बहुत कम आते थे. उस समय आने जाने के संसाधन भी बहुत कम थे. जिसके कारण लोग हाथी-घोड़ों से आते थे.

Market in 1815.
1815 में बाजार.

पढ़ें- ऋषिकेश में दो दिवसीय ग्लोबल म्यूजिक फेस्टिवल का आयोजन, यहां कराएं ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन

अग्रेजों ने भी समझी कुंभ की महत्ता
गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि पहले अंग्रेज बेशक हमारे देश में राज कर रहे थे, परंतु उन्होंने कभी भी देश की धार्मिक आस्थाओं को ठेस नहीं पहुंचाई. 1828 में हरिद्वार में कुंभ को बेहतर आयोजित करने के लिये उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम्स बेंटिक ने कुंभ मेले का आयोजन के लिए ₹1000 दिए थे. उन्होंने बताया कि उस समय भी हजारों, लाखों लोग कुंभ मेले में स्नान करने के लिए आते थे. कुंभ मेले के दौरान देश ही नहीं बल्कि विदेशों के कई लोग हरिद्वार पहुंचते थे. वे तब यहां व्यापार भी करते थे.

Har ki Pauri
हर की पौड़ी.

पढ़ें- वैज्ञानिकों ने हाइड्रोपोनिक्स विधि से किया बीज रहित खीरे का उत्पादन, किसानों की बढ़ेगी आय

पहले सिरमौर बटालियन मेले मेंं देती थी सुरक्षा

पूर्व में पंचांग के माध्यम से ही पता लगता था कि कुंभ कब और कहां आयोजित होना है. उसी को देखते हुए लोग कुंभ में स्नान करने के लिए आते थे. मेरठ की बेगम सुमरो भी हरिद्वार के कुंभ में अपनी उपस्थिति देने के लिये 1000 घुड़सवार के साथ आया करती थीं. महाराज पटियाला भी कमरबंद पोशाक के साथ कुंभ में पहुंचते थे. आसपास के कई राजा भी अपनी सेना के साथ कुंभ में शामिल होते थे .उन्होंने बताया कि उस समय सिरमौर बटालियन मेले में सुरक्षा प्रदान करती थी.

Haridwar of 1815.
1815 का हरिद्वार.

पढ़ें- रुड़की: हादसे को न्योता दे रहा गंगनहर पर बना पुल, कुंभ तैयारियों की खुली पोल

कुंभ के पौराणिक महत्व को संजोने की जरुरत

गोपाल भारद्वाज ने बताया कि मेले को लेकर हर सरकार अपने तरीके से काम करती है. सभी इसे अपने तरीके से बेहतर करने की कोशिश करते हैं. हिंदू धर्म की कुंभ में बड़ी आस्था माना जाती है. उन्होंने कहा कि सरकार को कुंभ के इतिहास को संभालने की जरूरत है. जिससे कुंभ का पौराणिक महत्व न खोये.

Ghats of Haridwar in 1815.
1815 में हरिद्वार के घाट.

इसको लेकर भी सरकारों को ध्यान देना चाहिए. उन्होने सरकार से मांग की है कि कुंभ के इतिहास को लेकर हरिद्वार में म्यूजियम का निर्माण होना चाहिए. जिसमें कुंभ की पुरानी तस्वीरों के साथ कुंभ से जुड़े इतिहास को दिखाया जाना चाहिए. जिससे की आने वाली युवा पीढी कुंभ के इतिहास और इसकी भव्यता को समझ सकें.

मसूरी/भोपाल। फरवरी में हरिद्वार में होने वाले कुंभ में आस्था, सभ्यता, संस्कृति के रंग देखने को मिलेंगे. कुंभ अपने आप में भारतीय संस्कृति का एक दस्तावेज है. कुंभ का अपना ही अलग एक भरा-पूरा इतिहास है, जो कि हर किसी को रोमांचित करता है. कुंभ की पौराणिकता और इतिहास को लेकर ईटीवी भारत ने मशहूर इतिहासकार गोपाल भारद्वाज से बात की. जिसमें उन्होंने कुंभ के अनसुने और अनसुलझे पहलुओं को बारीकी से बताया.

जानिए कुंभ मेले का धर्म और इतिहास

समुद्र मंथन से शुरू हुआ कुंभ का सिलसिला

इतिहासकार गोपाल भारद्वाज ने बताया कि कुंभ मेले को अपने ही पौराणिक महत्व है. भारत में आदिकाल से कुंभ मेला आयोजित किया जा रहा है. जिसका वर्णन शास्त्रों में भी साफ लिखा हुआ है. शास्त्रों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत को पाने के लिये असुरों और देवताओं में युद्ध हुआ था. ऐसे में असुरों से अमृत को बचाने के लिये विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया. जिसके बाद वे भागने लगे. उस समय कुंभ (घड़े) से कुछ बूंदें छलक कर भारत के चार स्थानों पर गिरी.

Know the religion and history of Kumbh Mela
जानिए कुंभ मेले का धर्म और इतिहास

पढ़ें- टीकाकरण महाभियान: शैलेंद्र द्विवेदी को लगा पहला टीका, CM त्रिवेंद्र ने दी बधाई

पहले 15 दिनों का होता था कुंभ

यह तब हुआ जब सूर्य मकर राशि में जाता है. यह संयोग 12 साल में एक बार आता है. यह सूर्य से भी बनता है और बृहस्पति से भी बनता है. उन्होंने कहा कि भारत के हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक में अमृत की बूंदें गिरी थीं. जहां पर तब से कुंभ का महापर्व अलग-अलग समय में आयोजित किया जाता है.

उन्होंने बताया कि अगर वर्तमान में कुंभ महापर्व का स्वरूप बदल दिया गया है. पहले 15 दिनों का कुंभ होता था. अब इसे 2 से 3 महीने का करके मकर संक्रांति से जोड़ दिया गया है, जबकि यह अप्रैल महीने में हुआ करता था. उन्होंने बताया कि जनवरी में काफी ठंड हुआ करती थी, ऐसे में हरिद्वार में लोग बहुत कम आते थे. उस समय आने जाने के संसाधन भी बहुत कम थे. जिसके कारण लोग हाथी-घोड़ों से आते थे.

Market in 1815.
1815 में बाजार.

पढ़ें- ऋषिकेश में दो दिवसीय ग्लोबल म्यूजिक फेस्टिवल का आयोजन, यहां कराएं ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन

अग्रेजों ने भी समझी कुंभ की महत्ता
गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि पहले अंग्रेज बेशक हमारे देश में राज कर रहे थे, परंतु उन्होंने कभी भी देश की धार्मिक आस्थाओं को ठेस नहीं पहुंचाई. 1828 में हरिद्वार में कुंभ को बेहतर आयोजित करने के लिये उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम्स बेंटिक ने कुंभ मेले का आयोजन के लिए ₹1000 दिए थे. उन्होंने बताया कि उस समय भी हजारों, लाखों लोग कुंभ मेले में स्नान करने के लिए आते थे. कुंभ मेले के दौरान देश ही नहीं बल्कि विदेशों के कई लोग हरिद्वार पहुंचते थे. वे तब यहां व्यापार भी करते थे.

Har ki Pauri
हर की पौड़ी.

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पहले सिरमौर बटालियन मेले मेंं देती थी सुरक्षा

पूर्व में पंचांग के माध्यम से ही पता लगता था कि कुंभ कब और कहां आयोजित होना है. उसी को देखते हुए लोग कुंभ में स्नान करने के लिए आते थे. मेरठ की बेगम सुमरो भी हरिद्वार के कुंभ में अपनी उपस्थिति देने के लिये 1000 घुड़सवार के साथ आया करती थीं. महाराज पटियाला भी कमरबंद पोशाक के साथ कुंभ में पहुंचते थे. आसपास के कई राजा भी अपनी सेना के साथ कुंभ में शामिल होते थे .उन्होंने बताया कि उस समय सिरमौर बटालियन मेले में सुरक्षा प्रदान करती थी.

Haridwar of 1815.
1815 का हरिद्वार.

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कुंभ के पौराणिक महत्व को संजोने की जरुरत

गोपाल भारद्वाज ने बताया कि मेले को लेकर हर सरकार अपने तरीके से काम करती है. सभी इसे अपने तरीके से बेहतर करने की कोशिश करते हैं. हिंदू धर्म की कुंभ में बड़ी आस्था माना जाती है. उन्होंने कहा कि सरकार को कुंभ के इतिहास को संभालने की जरूरत है. जिससे कुंभ का पौराणिक महत्व न खोये.

Ghats of Haridwar in 1815.
1815 में हरिद्वार के घाट.

इसको लेकर भी सरकारों को ध्यान देना चाहिए. उन्होने सरकार से मांग की है कि कुंभ के इतिहास को लेकर हरिद्वार में म्यूजियम का निर्माण होना चाहिए. जिसमें कुंभ की पुरानी तस्वीरों के साथ कुंभ से जुड़े इतिहास को दिखाया जाना चाहिए. जिससे की आने वाली युवा पीढी कुंभ के इतिहास और इसकी भव्यता को समझ सकें.

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