भोपाल। राजधानी में इत्र की सुगंध नवाबों के दौर से ही महक रही है, एक तरफ इत्र से खुदा की इबादत होती है, तो दूसरी तरफ इससे लोगों को ताजगी भरा एहसास मिलता है, पुराने भोपाल में कई दुकानें हैं, जहां इत्र ही इत्र का व्यापार होता है और दुकानों में रखे इत्र की सुगंध से सारा बाजार महक जाता है, कोरोना ने इसके कारोबार की रौनक काम तो की है, लेकिन कद्रदानों की फेहरिस्त बानी हुई है.
कन्नौज के इत्र की भारी डिमांड
पुराने दौर में इत्र कपड़ों में लगाकर निकलना एक शाही अंदाज की निशानी थी, आज भी यह परंपरा जारी है, भोपाल में इत्र को तहजीब के तौर पर लिया जाता है. यहां इत्र का व्यापार काफी पुराना है, नवाबों के समय इत्र दूर-दूर से मंगवा कर भोपाल की सल्तनत को महकाया जाता था.
आज के दौर में यहां के व्यापारी कन्नौज से इत्र मंगाते हैं. कन्नौज के बारे में कहा जाता है कि यहां की फिजाओं में भी इत्र महकता है, क्योंकि कन्नौज में सबसे ज्यादा इत्र बनाया जाता है, इसके अलावा दिल्ली और मुंबई से भी भोपाल में इत्र मंगाया जाता है, दुबई और सऊदी से भी बेशकीमती और महंगे इत्र यहां आते हैं, जिनकी कीमत ₹10,000 से शुरू होती है.
इत्र ऊद की खुशबू नहीं जाती, इब्राहिमपुरा के दुकानदार अमान अहमद बताते हैं कि भोपाल में इत्र की सबसे छोटी सीसी ₹20 में भी मिल जाती है. भोपाल में मुख्य रूप से इत्र गुलाब ,इत्र दिलशाद, इत्र खस, इत्र अरसक, इत्र शीवा, इत्र केवड़ा ,इत्र फिरदौस ,इत्र चार्ली, इत्र मुश्क मिलता है. इत्र में सबसे महंगा इत्र ऊद होता है, इसकी खुशबू उड़ती नहीं है इत्र के खरीदार शाहबाज खान का कहना है कि रमजान के महीने में इत्र नहीं खरीद पाए, इसलिए वो अभी खरीद रहे हैं.
100 साल पुरानी इत्र की दुकान
भोपाल के जुमेराती इलाके में हाजी साहब की दुकान के नाम से प्रसिद्ध इत्र की दुकान तकरीबन 100 साल पुरानी है, यहां से इत्र लेने पूरे भोपाल के साथ ही इंदौर, उज्जैन, जबलपुर, दिल्ली और मुंबई से भी लोग आते हैं, यहां आज उनके घराने की तीसरी पीढ़ी दुकान संभाल रही है.
तीसरी पीढ़ी के वारिस और दुकान के मालिक के इरशाद अली ने बताया कि भोपाल में उनकी सबसे पुरानी इत्र की दुकान है, हमारी दुकान में हर किस्म और सुगंध का इत्र मिल जाता है, हर तरह की कीमत में भी इत्र उपलब्ध है.
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नवाबी दौर में इत्र रखने का तरीका नवाबों को इत्र का काफी शौक हुआ करता था, उस दौर में इत्र को सहेज कर रखा जाता था, नवाब इत्र को बोतलों में ना रखकर कुप्पियों में रखते थे. यह कुप्पियां ऊंट की खाल से बने चमड़े की हुआ करती थी, जो आज के इस दौर में शायद ही कहीं देखने को मिले, ये कुप्पियां इस तरह से बनाई जाती थी कि इनमें से इत्र की सुगंध बाहर ना निकल पाए, इनको रखने के लिए महलों और किलों में इत्रदान ,ताक और आले भी बनाए जाते थे, जो कि कुप्पियों के आकार पर निर्भर होते थे.