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1 january 1948: जरा याद करो कुर्बानी, खरसावां में जलियांवालाबाग जैसी बर्बरता में शहीद हो गए थे आदिवासी

भारत के स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त के महज चार महीने बाद 1 जनवरी 1948 को खरसावां में जलियांवाला बाग जैसी ही ऐसी घटना घटी थी, जिसे नए भारत के लोग याद नहीं करना चाहेंगे. लेकिन आज तक गुनहगारों को सजा नहीं मिल सकी है. बहरहाल इस घटना में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने कई राज्यों के आदिवासी झारखंड के खरसावां पहुंचते हैं.

73 years ago police had opened fire on tribals in Kharsawan like Jallianwalabag incident
खरसावां में जलियांवालाबाग जैसी बर्बरता में शहीद हो गए थे आदिवासी
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Published : Jan 1, 2022, 10:54 AM IST

खरसावां : 1 जनवरी 1948 को जब आजादी मिले महज चार महीने हुए थे. देश नव वर्ष मना रहा था, तब खरसावां में जलियांवाला बाग जैसी ऐसी बर्बरता दिखी कि जश्न की खुशी काफूर हो गई. इसी दिन जमशेदपुर से करीब 60 किलोमीटर दूर खरसावां में सैकड़ों आदिवासियों पर पुलिस ने गोलियां चला दी थी. झारखंड की माटी कभी भी खरसावां के इन आदिवासियों की कुर्बानी नहीं भुला सकती है. यही कारण है कि लोग खरसावां गोलीकांड की जलियांवालाबाग कांड से तुलना करते हैं. पुलिस की गोली से शहीद आदिवासियों को हर साल एक जनवरी को झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लोग पहुंच कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. 1 जनवरी 2022 को भी शहीद दिवस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा समेत कई सांसद, विधायक के खरसावां पहुंचने की संभावना है.

ये भी पढ़ें-विस्फोटक इंटरव्यू: हेमंत ने कहा- दंगाई है बीजेपी, समाज में घोलती है जहर


यह है पूरी कहानी

स्थानीय लोग बताते हैं कि 1947 में आजादी के बाद पूरा देश राज्यों के पुनर्गठन के दौर से गुजर रहा था. तभी अनौपचारिक तौर पर 14-15 दिसंबर को ही खरसावां-सरायकेला रियासतों का विलय ओडिशा राज्य में कर दिया गया था. औपचारिक तौर पर एक जनवरी को कार्यभार हस्तांतरण करने की तिथि मुकर्रर हुई थी. इस दौरान एक जनवरी 1948 को आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने खरसावां-सरायकेला का ओडिशा में विलय करने के विरोध में खरसावां हाट मैदान में जनसभा बुलाई थी. विभिन्न क्षेत्रों से जनसभा में हजारों की संख्या में लोग पहुंचे थे.

एक जनवरी 1948 के दिन गुरुवार और साप्ताहिक बाजार-हाट का दिन था, इस कारण भीड़ अधिक थी. लेकिन, किसी कारणवश जनसभा में जयपाल सिंह मुंडा नहीं पहुंच सके. रैली के मद्देनजर पर्याप्त संख्या में पुलिस बल भी तैनात थी. इसी दौरान पुलिस और जनसभा में पहुंचे लोगों में किसी बात को लेकर संघर्ष हो गया. तभी अचानक फायरिंग शुरू हो गई और पुलिस की गोलियों से सैकड़ों की संख्या में लोग शहीद हो गए.

शहीदों की संख्या बताने वाला कोई सरकारी दस्तावेज नहीं

शहीदों की संख्या कितनी थी, इसका सही आकलन नहीं हो सका है. कहा तो यहां तक जाता है कि लाशों को खरसावां हाट मैदान स्थित एक कुंएं में भर कर मिट्टी पाट दिया गया. घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई. उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे. ऐसे में इस घटना का असर ये हुआ कि इलाके का ओडिशा में विलय रोक दिया गया. सरायकेला और खरसावां रियासत क्षेत्र का विलय बिहार राज्य में किया गया.

खरसावां गोलीकांड में शहीद हुए लोगों की संख्या बताने वाला कोई सरकारी दस्तावेज सरकार के पास नहीं है. खरसावां या सरायकेला थाना में इससे संबंधित कोई प्राथमिकी या अन्य दस्तावेज नहीं है. खरसावां गोलीकांड के 73 साल बाद भी अब तक शहीद हुए लोगों की वास्तविक संख्या का पता नहीं चल सका है. आजादी के बाद यह देश का सबसे बड़ा गोलीकांड था. जांच के लिए ट्रिब्यूनल बनाए गए, लेकिन उसकी रिपोर्ट कहां गई आज तक पता नहीं चल सका.

खरसावां : 1 जनवरी 1948 को जब आजादी मिले महज चार महीने हुए थे. देश नव वर्ष मना रहा था, तब खरसावां में जलियांवाला बाग जैसी ऐसी बर्बरता दिखी कि जश्न की खुशी काफूर हो गई. इसी दिन जमशेदपुर से करीब 60 किलोमीटर दूर खरसावां में सैकड़ों आदिवासियों पर पुलिस ने गोलियां चला दी थी. झारखंड की माटी कभी भी खरसावां के इन आदिवासियों की कुर्बानी नहीं भुला सकती है. यही कारण है कि लोग खरसावां गोलीकांड की जलियांवालाबाग कांड से तुलना करते हैं. पुलिस की गोली से शहीद आदिवासियों को हर साल एक जनवरी को झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लोग पहुंच कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. 1 जनवरी 2022 को भी शहीद दिवस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा समेत कई सांसद, विधायक के खरसावां पहुंचने की संभावना है.

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यह है पूरी कहानी

स्थानीय लोग बताते हैं कि 1947 में आजादी के बाद पूरा देश राज्यों के पुनर्गठन के दौर से गुजर रहा था. तभी अनौपचारिक तौर पर 14-15 दिसंबर को ही खरसावां-सरायकेला रियासतों का विलय ओडिशा राज्य में कर दिया गया था. औपचारिक तौर पर एक जनवरी को कार्यभार हस्तांतरण करने की तिथि मुकर्रर हुई थी. इस दौरान एक जनवरी 1948 को आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने खरसावां-सरायकेला का ओडिशा में विलय करने के विरोध में खरसावां हाट मैदान में जनसभा बुलाई थी. विभिन्न क्षेत्रों से जनसभा में हजारों की संख्या में लोग पहुंचे थे.

एक जनवरी 1948 के दिन गुरुवार और साप्ताहिक बाजार-हाट का दिन था, इस कारण भीड़ अधिक थी. लेकिन, किसी कारणवश जनसभा में जयपाल सिंह मुंडा नहीं पहुंच सके. रैली के मद्देनजर पर्याप्त संख्या में पुलिस बल भी तैनात थी. इसी दौरान पुलिस और जनसभा में पहुंचे लोगों में किसी बात को लेकर संघर्ष हो गया. तभी अचानक फायरिंग शुरू हो गई और पुलिस की गोलियों से सैकड़ों की संख्या में लोग शहीद हो गए.

शहीदों की संख्या बताने वाला कोई सरकारी दस्तावेज नहीं

शहीदों की संख्या कितनी थी, इसका सही आकलन नहीं हो सका है. कहा तो यहां तक जाता है कि लाशों को खरसावां हाट मैदान स्थित एक कुंएं में भर कर मिट्टी पाट दिया गया. घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई. उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे. ऐसे में इस घटना का असर ये हुआ कि इलाके का ओडिशा में विलय रोक दिया गया. सरायकेला और खरसावां रियासत क्षेत्र का विलय बिहार राज्य में किया गया.

खरसावां गोलीकांड में शहीद हुए लोगों की संख्या बताने वाला कोई सरकारी दस्तावेज सरकार के पास नहीं है. खरसावां या सरायकेला थाना में इससे संबंधित कोई प्राथमिकी या अन्य दस्तावेज नहीं है. खरसावां गोलीकांड के 73 साल बाद भी अब तक शहीद हुए लोगों की वास्तविक संख्या का पता नहीं चल सका है. आजादी के बाद यह देश का सबसे बड़ा गोलीकांड था. जांच के लिए ट्रिब्यूनल बनाए गए, लेकिन उसकी रिपोर्ट कहां गई आज तक पता नहीं चल सका.

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