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प्रवासी मजदूरों का छलका दर्द, कहा- घर से निकला था धन कमाने के लिए, अब घर लौट रहा हूं जिंदगी बचाने के लिए

लॉकडाउन के कारण बाहर फंसे मजदूर अपने घरों तक किसी न किसी तरह से घर पहुंच रहे हैं. इन मजदूरों को ट्रेन या गाड़ी नहीं मिलने पर ये हजारों किलोमिटर तक पैदल सफर कर घर पहुंच रहे हैं. रांची और खूंटी जिले की सीमा पर तुपुदाना के पास फ्लाइ ओवर के नीचे कुछ मजदूर आराम कर रहे थे. ईटीवी भारत ने जब उनसे जानकारी की तो पता चला कि कोई विशाखापटनम से साइकिल चलाते हुए पलामू जा रहे थे, तो कोई छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से पश्चिम बंगाल के मालदा जा रहे थे.

Migrant laborers told pain from ETV bharat in ranchi
मजदूरों ने बयां किया दर्द
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Published : May 15, 2020, 6:37 PM IST

रांची: 'घर से निकला था धन कमाने के लिए, अब घर लौट रहा हूं जिंदगी बचाने के लिए'. यह दास्तां है उन मजदूरों की जो अपने सीने में बेशुमार दर्द दबाए सड़कों पर निकल पड़े हैं. इनका एक ही लक्ष्य है कि किसी भी तरह गांव पहुंचना है. रांची और खूंटी जिले की सीमा पर मजदूरों से जुड़ी दिल दहलाने वाली तस्वीरें देखने को मिली. तुपुदाना के पास फ्लाइ ओवर के नीचे सुस्ताते मजदूरों से बात करने पर पता चला कि कोई विशाखापटनम से साइकिल चलाते हुए पलामू के लिए निकला है, तो कोई छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से पश्चिम बंगाल के मालदा के लिए. ईटीवी भारत की टीम ने उन मजदूरों का दर्द जानने की प्रयास किया.

देखें EXCLUSIVE रिपोर्ट

ईटीवी भारत की टीम ने मजदूरों से बेइंतहा तकलीफ वाले सफर का सबब पूछा तो सभी का एक ही जवाब था- क्या करें, भूखों मरने की नौबत आ गयी है. पलामू जा रहे अखिलेश ने बताया कि 8 मई को विशाखापटनम से निकले हैं. बस और ट्रेन का जुगाड़ नहीं हुआ था तो हम 14 साथियों ने अपनी जमा पूंजी से साइकिल खरीद ली और पलामू अपने गांव के लिए चल पड़े हैं. मालदा के बबलू राय ने कहा कि ठेकेदार हाथ खड़े कर चुका था, दाने-दाने को मोहताज हो गए थे, इसलिए घर लौटने के सिवा कोई रास्ता नहीं दिखा. यह पूछने पर कि रात कैसे कटती है. बिना खाना-पानी के इतने दिनों से कैसे चलते आ रहे हैं. इसके जवाब में मजदूरों ने कहा कि रास्ते में कुछ नेकदिल लोगों की बदौलन खाने को कुछ मिल जाता है, कोई पानी दे देता है, जहां रात होती है वहीं डेरा डाल देते हैं. कुछ ऐसे थे जिनकी चप्पलें भी घिस गई थी.

दरअसल, तुपुदाना में ओवरब्रिज के नीचे छांव में प्रदेश बीजेपी के कार्यर्ताओं ने कैंप लगा रखा था. यहां मजदूरों को पानी के साथ-साथ चूड़ा-गुड़ और बिस्किट के अलावा चप्पलें बांटी जा रही थी. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और आंध्र प्रदेश के विशाखापटनम से साइकिल चलाते हुए अपने गांवों के लिए इन मजदूरों से बातचीत हो रही थी कि अचानक दो ट्रक आकर रूका. ट्रक के डाले में इतने मजदूर भरे हुए थे कि गिनना मुश्किल था. इस तस्वीर को देखकर ऐसा लगा जैसे सोशल डिस्टेंसिंग शब्द को मतलब सामाजिक दूरी नहीं, बल्कि तमाचा होना चाहिए था. बहरहाल, ट्रक रूकते ही कई मजदूर बीजेपी कैंप की ओर लपके. पानी की बोतलें ली, खाने के पैकेट लिए और फिर ट्रकों के डाले में समा गए.

इसे भी पढे़ं:- पहली श्रमिक स्पेशल ट्रेन हटिया से जयपुर के लिए हुई रवाना, रेल प्रशासन ने यात्रियों से नहीं वसूले पैसे


खास बात यह रही कि किसी भी मजदूर ने इस लाचारी के लिए कोरोना वायरस को नहीं कोसा. जाहिर सी बात है कि मजदूरों को जिस तकलीफ हालात से गुजरना पड़ रहा है. उसका जिम्मेवार इस देश का सिस्टम है, क्योंकि मजदूरों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग शब्द बना ही नहीं है.

रांची: 'घर से निकला था धन कमाने के लिए, अब घर लौट रहा हूं जिंदगी बचाने के लिए'. यह दास्तां है उन मजदूरों की जो अपने सीने में बेशुमार दर्द दबाए सड़कों पर निकल पड़े हैं. इनका एक ही लक्ष्य है कि किसी भी तरह गांव पहुंचना है. रांची और खूंटी जिले की सीमा पर मजदूरों से जुड़ी दिल दहलाने वाली तस्वीरें देखने को मिली. तुपुदाना के पास फ्लाइ ओवर के नीचे सुस्ताते मजदूरों से बात करने पर पता चला कि कोई विशाखापटनम से साइकिल चलाते हुए पलामू के लिए निकला है, तो कोई छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से पश्चिम बंगाल के मालदा के लिए. ईटीवी भारत की टीम ने उन मजदूरों का दर्द जानने की प्रयास किया.

देखें EXCLUSIVE रिपोर्ट

ईटीवी भारत की टीम ने मजदूरों से बेइंतहा तकलीफ वाले सफर का सबब पूछा तो सभी का एक ही जवाब था- क्या करें, भूखों मरने की नौबत आ गयी है. पलामू जा रहे अखिलेश ने बताया कि 8 मई को विशाखापटनम से निकले हैं. बस और ट्रेन का जुगाड़ नहीं हुआ था तो हम 14 साथियों ने अपनी जमा पूंजी से साइकिल खरीद ली और पलामू अपने गांव के लिए चल पड़े हैं. मालदा के बबलू राय ने कहा कि ठेकेदार हाथ खड़े कर चुका था, दाने-दाने को मोहताज हो गए थे, इसलिए घर लौटने के सिवा कोई रास्ता नहीं दिखा. यह पूछने पर कि रात कैसे कटती है. बिना खाना-पानी के इतने दिनों से कैसे चलते आ रहे हैं. इसके जवाब में मजदूरों ने कहा कि रास्ते में कुछ नेकदिल लोगों की बदौलन खाने को कुछ मिल जाता है, कोई पानी दे देता है, जहां रात होती है वहीं डेरा डाल देते हैं. कुछ ऐसे थे जिनकी चप्पलें भी घिस गई थी.

दरअसल, तुपुदाना में ओवरब्रिज के नीचे छांव में प्रदेश बीजेपी के कार्यर्ताओं ने कैंप लगा रखा था. यहां मजदूरों को पानी के साथ-साथ चूड़ा-गुड़ और बिस्किट के अलावा चप्पलें बांटी जा रही थी. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और आंध्र प्रदेश के विशाखापटनम से साइकिल चलाते हुए अपने गांवों के लिए इन मजदूरों से बातचीत हो रही थी कि अचानक दो ट्रक आकर रूका. ट्रक के डाले में इतने मजदूर भरे हुए थे कि गिनना मुश्किल था. इस तस्वीर को देखकर ऐसा लगा जैसे सोशल डिस्टेंसिंग शब्द को मतलब सामाजिक दूरी नहीं, बल्कि तमाचा होना चाहिए था. बहरहाल, ट्रक रूकते ही कई मजदूर बीजेपी कैंप की ओर लपके. पानी की बोतलें ली, खाने के पैकेट लिए और फिर ट्रकों के डाले में समा गए.

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खास बात यह रही कि किसी भी मजदूर ने इस लाचारी के लिए कोरोना वायरस को नहीं कोसा. जाहिर सी बात है कि मजदूरों को जिस तकलीफ हालात से गुजरना पड़ रहा है. उसका जिम्मेवार इस देश का सिस्टम है, क्योंकि मजदूरों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग शब्द बना ही नहीं है.

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