रांची: झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में 28 सीटें एसटी के लिए रिजर्व हैं. जो किसी भी पार्टी को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने में सबसे अहम भूमिका निभाती हैं. अटल बिहारी बाजपेयी की पहल पर बिहार से अलग हुए झारखंड में 28 में से 14 एसटी सीटों पर भाजपा के विधायक थे. लेकिन उसके बाद अबतक हुए चार चुनावों में भाजपा कभी भी उस आंकड़े को नहीं छू पाई. अब भाजपा समझ चुकी है कि आदिवासी वोट बैंक को साधे बगैर सत्ता तक पहुंचना आसान नहीं होगा. लिहाजा, पार्टी अभी से ही उस कवायद में जुट गई है. इसी कड़ी में 5 जून को रांची में आदिवासी महारैली (Mega Tribal conference in Ranchi) बुलायी गई है.
राष्ट्रीय स्तर के इस महासम्मेलन में देश भर से चालीस हजार से अधिक आदिवासी कार्यकर्ताओं को जुटाने का लक्ष्य रखा गया है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा (BJP National President JP Nadda) बतौर मुख्य अतिथि शामिल होंगे. जनजाति मोर्चा के कार्यकर्ताओं को अपने गांव, पंचायत में बैठक कर अरवा चावल देकर सभी को आमंत्रित करने का टास्क दिया गया है. भाजपा यह दिखाना चाहती है कि वह एकमात्र ऐसी पार्टी है जो राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों की चिंता करती है. शायद यही वजह है कि मोदी मंत्रिमंडल में जनजातीय मामलों के मंत्री की जगह झारखंड के नेता अर्जुन मुंडा को मिली है.
एसटी सीटों पर कैसे पकड़ खोती गई भाजपा: 2005 में 09 और 2009 में भी सिर्फ 09 एसटी सीटों पर भाजपा को जीत मिली. 2014 में मोदी लहर के बावजूद भाजपा की झोली में सिर्फ 11 एसटी सीटें गईं. फिर भी यह आंकड़ा भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में मददगार बना. कुल 37 सीटों पर जीत के साथ जेवीएम के छह विधायकों को अपने पाले में लाकर भाजपा एक मजबूत सरकार की नींव रखने में सफल रही. यह भाजपा के लिए झारखंड में स्वर्णिम दौर था. झारखंड बनने के बाद साल 2014 में पहली बार रघुवर दास के नेतृत्व में किसी एक दल के बहुमत वाली सरकार बनी थी. पहली बार कोई गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बना था.
रघुवर सरकार ने बिना किसी दबाव के पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था. उस सरकार को डबल इंजन की सरकार की संज्ञा मिली थी. 2014 से 2019 तक झारखंड को केंद्र की योजनाओं का लॉन्चिंग पैड भी कहा जाता रहा. फिर भी 2019 के विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा को नकार दिया. पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान एसटी सीटों पर हुआ. 2014 में 11 एसटी सीट जीतने वाली भाजपा की झोली में सिर्फ 2 एसटी सीटें आईं. सिर्फ खूंटी जिला की खूंटी और तोरपा से भाजपा के नीलकंठ सिंह मुंडा और कोचे मुंडा विजयी रहे. यह भाजपा के लिए सबसे बड़ा सेट बैक साबित हुआ. नतीजतन, पार्टी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा.
एसटी सीटों पर मजबूत होती गई झामुमो: दूसरी तरफ हमेशा से सत्ता के करीब या मुख्य विपक्षी की भूमिका में रही झामुमो ने अपने इस परंपरागत वोट बैंक पर कभी पकड़ कमजोर नहीं होने दी. इसी का नतीजा था कि झामुमो को 2005 में 09, 2009 में 10 और 2014 के चुनाव में 13 एसटी सीटों पर जीत मिली. लेकिन 2019 के चुनाव में झामुमो ने तमाम रिकॉर्ड तोड़ डाला. कांग्रेस और राजद के साथ महागठबंधन की बदौलत कुल 30 सीटों पर जीत के साथ झामुमो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. झामुमो ने सबसे ज्यादा 19 एसटी सीटों पर जीत दर्ज की.